लखनऊ। आज का दौर प्रचार का दौर हैं। हालात ऐसी है कि दो.चार रचनाएँ क्या छपी, लेखक महान बनने की महत्वाकांक्षा पालने लगते हैं। अनिल सिन्हा इस तरह की महत्वकांक्षाओं से दूर काम में विश्वास रखने वाले रचनाकार रहे, साहित्य की राजनीति से दूर। इसीलिए उपेक्षित भी रहे। अनिल सिन्हा अत्यन्त सक्रिय रचनाकार थे। इनके जीवन में कोई दोहरापन नहीं था। जो अन्दर था, वही बाहर। आज के दौर में ऐसे रचनाकार का मिलना कठिन है।
लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा को याद करते हुए यह विचार जाने माने कवि भगवान स्वरूप कटियार ने व्यक्त किये। वे अनिल सिन्हा की तीसरी पुण्यतिथि के अवसर पर कल 25 फरवरी 2014 को जन संस्कृति मंच की ओर से लेनिन पुस्तक केन्द्र, लालकुंआ में आयोजित कार्यक्रम ‘हमारी यादों में अनिल सिन्हा’ में बाल रहे थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कथाकार गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव ने की। उन्होंने कहा कि अनिल सिनहा में सांस्कृतिक सजगता थी। वे किसी रचना पर विचार करते समय उसमें संघर्ष किस रूप में अभिव्यक्त हो रहा है, इस पर ध्यान देते थे।
जसम के संयोजक कौशल किशोर ने कहा कि अनिल सिन्हा विविध विधाओं में दक्ष रचनाकार थे। कहानी, आलोचना, पत्रकारिता, कला समीक्षा आदि क्षेत्रों में काम किया। वे उन लोगों में थे जिन्होंने लखनऊ ही नहीं बल्कि प्रदेश में क्रान्तिकारी वाम धारा के सांस्कृतिक आंदोलन का सूत्रपात किया। उनके रचना कर्म में हमें प्रखर व जनपक्षधर दृष्टि मिलती है। उनके जीवन से यह सीखा जा सकता है कि अभाव में रहते हुए भी कैसे अपने आत्म सम्मान के साथ जिया जाय। उन्होंने अपने आत्मसमान से कभी समझौता नहीं किया।
आलोचक रवीन्द्र कुमार सिन्हा का कहना था कि जनजीवन की कठिनाइयों व आंदोलनों में तपकर ही कोई रचनाकार बनता है। इन आंदोलनों में तपकर ही अनिल सिन्हा के रचनात्मक व वैचारिक व्यक्तित्व का निर्माण हुआ था। लेखन व पत्रकारिता के साथ ही अनिल सिन्हा की चित्रकला व संगीत में भी गहरी रूचि थी। कवि बी एन गौड़ ने अनिल सिन्हा को याद करते हुए कहा कि अनिल सिन्हा ने गलत को कभी स्वीकार नहीं किया। उनकी खूबी यह भी थी कि अपने विरोध को भी बड़ी शालीनता से दर्ज कराते थे।
इस मौके पर गिरि संस्थान के प्रोफेसर व समाज विज्ञानी हिरण्मय धर ने अनिल सिन्हा को सामाजिक सरोकारों के लिए याद किया और पटना से लेकर लखनऊ तक उनके साथ की यादों को साझा किया। उनका कहना था कि अनिल सिन्हा हमें प्रेरित करते थे कि उन लोगों पर समाज वैज्ञानिक के रूप् में काम किया जाना चाहिए जो असंगठित हैं। आज सबसे ज्यादा शोषण का शिकार ये हो रहे हैं। नवउदारवाद के दौर ने तो संगठित क्षेत्र को असंगठित कर दिया है। इस पूरी परिघटना को समझना जरूरी है।
अनिल सिन्हा के व्यापक दृष्टिकोण की चर्चा करते हुए एपवा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ताहिरा हसन ने कहा कि जिस पारिवारिक परिवेश से आये थे, वह सामंती व धार्मिक जकड़न भरा था। उन्होंने इस जकड़न के खिलाफ संघर्ष करके अपने को आधुनिक व प्रगतिशील बनाया था। महिलाओं के प्रति उनका नजरिया साफ था और महिला आंदोलन को कैसे सुदृढ़ किया जाय तथा उसमें महिलाओं की भागीदारी कैसे बढ़े, इस पर उनका जोर रहता था।
कार्यक्रम में कथाकार प्रताप दीक्षित, देवनाथ क्ष्विेदी, राम कठिन सिंह, आदियोग, ओ पी सिनहा, के के शुक्ला, विमला किशोर, आदि ने भी अपने विचार रखे।
अनिल सिन्हा जैसे रचनाकार का मिलना कठिन है
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सम्पादक
डॉ. लीना