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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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डा. धर्मवीर विश्व स्तर के चिंतक-आलोचक हैं : डॉ भूरेलाल

महान आजीवक चिंतक डा. धर्मवीर के 71वें जन्मदिवस के अवसर पर 'भारतीय आजीवक महासंघ' (ट्रस्ट) के तत्वाधान में 'धर्मवीर साहित्य एवं संस्कृति मंच' द्वारा, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के डा. भूरेलाल जी की अध्यक्षता में  09 दिसम्बर, 2021 को एक आनलाइन विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। यह गोष्ठी  "डा. धर्मवीर का कबीर सम्बन्धी आलोचना कर्म" विषय पर आधारित थी। इस विचार गोष्ठी के मुख्य वक्ता डा. दीनानाथ जी थे। डा. रंजीत कुमार, अरुण आजीवक और संतोष कुमार  ने वक्ता के रूप में अपनी बात रखी।

गोष्ठी का आरम्भ डा. दीनानाथ जी के व्याख्यान से हुआ। दीनानाथ जी ने डा. धर्मवीर के कबीर सम्बन्धी अध्ययन के आधार पर बताया कि कबीर ने स्त्री-पुरुष समानता की बात की है। कबीर तलाक और पुनर्विवाह के पक्षधर थे, उन्होंने बताया कि कबीर साहेब ने कहा है कि यदि स्त्री-पुरुष अर्थात पति -पत्नी में बन नहीं रही है तो वे तलाक ले कर अलग हो जाएं पुनर्विवाह में जाएं। इस प्रकार उन्होंने कहा कि कबीर का दर्शन स्त्री स्वतंत्रता, स्त्री समानता का दर्शन है।

इस के आगे डा. दीनानाथ जी ने यह भी कहा कि कबीर ने केवल नारी (जारिणी) को ही नहीं बल्कि पुरुष (जार) को भी दुत्कारा है। मतलब कबीर जार और जारिणी दोनों की एक साथ खाल उतारते हैं। बताया जाय, पुनर्जन्म का विरोध, नियतिवाद की बात, जारकर्म का विरोध, जाति पर गर्व ये सब दलित अर्थात आजीवक आंदोलन के भाग हैं। इतिहास के हर काल में हर आजीवक महापुरुष इसी आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराते हुए मिलता है। इस क्रम में हमारे कबीर साहेब महान आजीवक के रूप में सामने आये हैं। दीनानाथ जी ने कबीर के स्त्री सम्बन्धी दर्शन पर बात रखते हुए स्पष्ट तौर पर कहा कि, 'कबीर स्त्री विरोधी नहीं थे। वे गृहस्थ परम्परा के थे। वे तो संन्यासियों, योगियों को भी नसीहत देते हैं और उन्हें विवाह कर घर में रहने को कहते हैं। कबीर ने जहाँ बुरी स्त्री और बुरे पुरुष को दुत्कारा है तो वहीं दूसरी तरफ वे अच्छी स्त्री और अच्छे पुरुष की प्रशंसा भी करते हैं। कबीर ने पत्नी को सुहागन, सदाचारी कह कर प्रशंसा की है। दुल्हन की प्रशंसा में उन्होंने गीत लिखे हैं, खुद बहुरिया बन नाचते हैं।'

दीनानाथ जी ने कहा डा. धर्मवीर ने अपनी आलोचना से इस देश से इतिहास के नाम पर प्रक्षिप्त, किंवदंती और पुराण पाथने वाली लेखनी को आग लगा दी है। उन्होंने कबीर के असली आंदोलन को सामने ला कर इस देश के असली इतिहास को भी सामने ला दिया है। डा. धर्मवीर को पढ़ने के बाद दलितों को अब द्विजों के प्रक्षिप्त और किंवदंतियां भला कैसे बर्दाश्त होंगे।

डा. दीनानाथ जी ने अपनी महत्वपूर्ण बात में  कही कि 'आजीवक धर्म न जानने के कारण लोग कबीर को सिद्धों, नाथों और बौद्धों से जोड़ते हैं और आज भी लोग ऐसा ही कर रहे हैं।' उन्होंने बताया कि, सिद्ध, नाथ, बौद्ध संन्यासी थे जबकि कबीर गृहस्थ थे।

दीनानाथ जी ने आगे बताया कि, डा. धर्मवीर जी कबीर की परम्परा को मक्खलि गोसाल तक ले जाते हैं। उन्होंने कहा कि, 'डा. धर्मवीर ने कबीर की परम्परा को पीछे मक्खलि गोसाल तथा आगे स्वामी अछूतानन्द, बाबू मंगूराम तक जोड़ा। दलित आन्दोलन की कड़ी जो टूट गयी थी उसे डा. धर्मवीर ने जोड़ दिया है।' उन्होंने कहा, डा. धर्मवीर पहले ऐसे चिंतक हैं जिन्होंने उन आंदोलनों को उन की ऐतिहासिक जड़ से जोड़ा है और उन्हें क्रमबद्ध किया है।

इस प्रकार, डा. दीनानाथ जी ने कहा कि, डा. धर्मवीर जी ने अपनी आलोचना कर्म के द्वारा  कबीर के साथ होते आ रहे अन्याय को इतिहास, धर्म, परम्परा के साथ जोड़ कर  बहुत बड़ा न्याय किया है।

अगले वक्ता के रूप में संतोष कुमार ने अपनी बात रखी। उन्होंने महान आजीवक कबीर साहेब के पद 'ग्यान की आंधी' का वाचन किया-

"संतो भाई, आई ग्यान की आधी।

भ्रम की टाटी सबै उड़ानी, माया रहे न बांधी।।

दूचिते की थूनी गिरानी, मोह बलेंडा टूटा।।

त्रिष्ना छान परी घर ऊपर, दुरमति भांडा फूटा।।

जोग जुगत कर सन्तो बांधी, निरचू चुवै न पानी।।

कूड़ कपट माया का निकसा, हरि की गति जब जानी।।

आंधी पीछे जो जल बरसा, तिहि तेरा मन भीना।।

कहै कबीर मग भया प्रकाशा, उदै भान, तम खीना।।"

 

कबीर साहेब का यह पद बहुत महत्वपूर्ण है। कबीर साहेब अपनी कौम की समस्या और उस का समाधान खोज लेते हैं और फिर अपने लोगों को बताते हैं कि अपनी परम्परा, अपनी विचारधारा, अपनी संस्कृति, अपना धर्म, अपनी पहचान जान लेने के बाद हमारे चारों तरफ जो भ्रम फैला था, पहचान का जो संकट खड़ा था वह अब टूट गया है। जैसे आज दलित कौम अपनी पहचान खो कर समस्याओं में घिरी है उसी तरह कबीर के समय में भी दलित कौम पहचान की संकट से ही जूझ रही थी। कबीर संघर्ष करते हुए अपने समाज की परम्परा और विचारधारा का पता लगाते हैं और फिर उसे अपने लोगों को बताते हैं। उन्होंने अपना ग्यान अर्थात अपनी मूल परम्परा और विचारधारा को पा कर उस पर गर्व किया है। संतोष कुमार ने डा. धर्मवीर की एक कविता 'बिना प्रतीक का युद्ध' भी पढ़ी जो इस प्रकार है -

"अब मूर्ति के खिलाफ एक शब्द न बोलें।

वे अपने भगवानों की हजार मूर्तियाँ बनाएँ,

इससे सेहत पर क्या फर्क पड़ता है?

हवा गन्दी कहाँ होती है? पानी दूषित कब होता है?

कबीर का कितना समय बर्बाद हुआ प्रतीकों से लड़ने में?

तीर्थ को पानी कहना पड़ा,

मन्दिर को मन में लाना पड़ा,

प्रतिमा को पत्थर बताना पड़ा,

क्या जरूरत थी इकतारे पर,

इतना लम्बा शबद सुनाने की?

 

बस, इसी एक जगह घमासान मचाए रहते,

"नार कहावै पीर की, रहै और संग सोय।

जार सदा मन में बसै, खसम खुशी क्यों होय?"

डा. धर्मवीर का कवि रूप भी संतोष कुमार ने प्रस्तुत किया। डा. साहब एक बेहतरीन कवि भी थे। उन की कविताएँ भी दलित आंदोलन और चिंतन के क्रम में ही आयी हैं। साहित्य की कोई भी विधा हो -कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि उसे कौम की विचारधारा और परम्परा के क्रम में ही आनी है। इस से कट कर साहित्य की कोई भी विधा हो वह कचरे के समान ही होती है। संतोष जी ने डा. साहब की जो कविता पढ़ी है वह कबीर के संघर्ष को बयां करती है। डा. साहब अपनी कविता के माध्यम से यही बता रहे हैं कि, हमारे महापुरुषों को अपने अपने समय में दलित आंदोलन को शून्य से शुरु करना पड़ता है। उन का अधिकांश समय विरोधियों से संघर्ष करते हुए बीत जाता है। इस के पीछे का कारण है दलित आंदोलन की क्रमबद्धता का टूटना। कबीर को भी अपना आंदोलन शून्य से शुरू करना पड़ा था। डा. धर्मवीर का आंदोलन भी ऐसे ही चला है। लेकिन, आज के दलितों के लिए खुशी की बात यह है कि डा. साहब ने पीछे के दलित आंदोलनों को खोज कर उन्हें क्रमबद्ध कर दिया है। 

संतोष कुमार ने डा. धर्मवीर के आलोचना कर्म के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि 'डा. धर्मवीर ने आलोचना की ऐतिहासिक पद्धति अपनायी और विकसित की। इसी पद्धति के आधार पर डा. धर्मवीर आजीवक तक पहुंचते हैं और महान आजीवक कबीर के साथ साथ आजीवक संस्कृति और इतिहास को भी सामने लाते हैं।' बिल्कुल सही बात है, इस देश में इतिहास के नाम पर प्रक्षिप्त और किंवदंतियों के कचरे ही चारों तरफ फैले पडे़ थे। उन्हीं प्रक्षिप्त और किंवदंतियों के जाल में दलित लेखक /साहित्यकार भी उलझे पडे़ थे यहाँ तक बाबा साहेब डा. अम्बेडकर भी द्विजों के प्रक्षिप्त और किंवदंतियों के जाल से बच नहीं सके थे। डा. धर्मवीर यदि ना आते तो आगे भी पता नहीं कितने वर्षो तक दलित चिंतन को प्रक्षिप्त और किंवदंतियों के जाल में उलझे रहना पड़ता।

संतोष जी ने अपनी बात कैलाश दहिया जी के लिखित वक्तव्य पढ़ने के साथ  समाप्त की। दहिया जी का वक्तव्य इस गोष्ठी के विषय के दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण है, इसलिए उसे यहां ज्यों का त्यों दिया जा रहा है -

"'डा. धर्मवीर का कबीर सम्बन्धी आलोचना कर्म' इस विषय पर कुछ भी कहने के पूर्व हमें देखना होगा कि डा. साहब से पहले कबीर और उन की वाणी के बारे में किस तरह की आलोचना की जा रही थी। सर्वप्रथम तो, कबीर पर आलोचना को ले कर ब्राह्मण ने दिशा निर्धारित की हुयी थी। गैर ब्राह्मण आलोचकों ने भी ब्राह्मण द्वारा निर्धारित बातों को ही अपने हितों के अनुसार बना रखा था। इस ब्राह्मणी आलोचना की खासियत क्या थी? खासियत यह थी कि इस ने कबीर की वाणी को तो छोड़िए कबीर के जीवन को ही प्रक्षिप्त से भर रखा था। बात यह थी कि ब्राह्मण आलोचक किसी भी रूप में कबीर के जीवन और कहे को सामने आने देना नहीं चाहते थे। डा. धर्मवीर ने अपने आलोचना कर्म से कबीर की मूल वाणी को ही नहीं खोजा बल्कि उन के जीवन को भी सामने ला दिया है। सभी ने यह स्वीकार करना पड़ा है कि कबीर को ले कर डा. धर्मवीर की प्रतिस्थापना के बगैर किसी भी तरह से कबीर का अध्ययन संभव नहीं है।

अपनी आलोचना दृष्टि में डा. धर्मवीर ने क्या किया है? डा. साहब ने परम्परा और चिंतन के साथ ऐतिहासिक तथ्यों का सहारा लिया है। डा. साहब ने 'कहते हैं', 'सुना है' जैसे वाक्यों को आग लगा दी है। चूंकि, कबीर एतिहासिक महापुरुष हैं, ऐसे में उन के बारे में 'कहते हैं' या 'सुना है' जैधसी बात लिखने का क्या अर्थ है? जरूर इस के पीछे वे शक्तियाँ हैं जो कबीर के सच को सामने नहीं आने देना चाहती हैं। असल में, कबीर इस देश की दलित-दमित जनता की आवाज हैं जिन के दुखों के साथ वे अपनी आवाज मिलाते हैं। डा. साहब अपने आलोचना कर्म के माध्यम से इस दुख को सामने ले आते हैं। डा. साहब ने कबीर पर आलोचना की अपनी पहली किताब में बताया ही है, 'दलितों का भला वेदों और उपनिषदों में नहीं हो सकता। जिन शास्त्रों ने शूद्रों और अन्त्यजों को नीचे गिराया हो वे उन का भला कैसे करेंगे?'

शूद्र और अछूत हिन्दू धर्म शास्त्रों की योजनाबद्ध उपज हैं-यह जान कर भी यदि दलित समाज उन्हीं धर्म शास्त्रों से अपने कल्याण की उम्मीद रखें तो यह बात उन की नासमझी की होगी।'(कबीर के आलोचक, पृष्ठ 30) डा. साहब की कबीर को ले कर यही आलोचना दृष्टि विकसित होती जाती है। वैसे भी, कबीर साहेब ने खुद 'ना हिन्दू ना मुसलमान' की गर्जना की है। तब डा. साहब की दृष्टि कबीर की दिशा में ही बढ़ती चली जाती है।

डा. साहब के तर्कों से हिंदी साहित्य जगत में तूफान आ जाता है। बड़े बड़े नामी-गिरामी द्विज आलोचकों पर डा. धर्मवीर सवाल खड़े कर देते हैं। तब हिन्दी प्राध्यापकीय आलोचना और साहित्यिक दुनिया के लोग सवाल पर सवाल खड़े करते जाते हैं। डा. साहब सभी के सवालों का धैर्य से और बहुत तार्किक जवाब देते हैं, और इस क्रम में कबीर पर डा. साहब की पहली पुस्तक 'कबीर के आलोचक' के बाद एक के बाद एक किताब आती चली जाती है। इस क्रम में आठ किताबें आती हैं जिन के नाम गिनाए जा सकते हैं :-

1. कबीर के आलोचक (1997)

2. कबीर : बाज भी, कपोत भी, पपीह भी (2000)

3. कबीर और रामानंद : किंवदंतियाँ (2000)

4. कबीर : डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी का प्रक्षिप्त चिंतन (2000)

5. कबीर के कुछ और आलोचक (2002)

6. कबीर : सूत न कपास (2003)

7. कबीर : खसम खुशी क्यों होय (2013)

इस क्रम में चिंतन की पूर्णता के साथ साल 2017 में आती है 'महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल'।

कबीर को केंद्र में रख कर डा. धर्मवीर अपनी विचार यात्रा पूरी करते हैं। यह आलोचना कर्म पूरे 20 साल चलता है। इन 20 सालों में कबीर पूरी तरह खुल जाते हैं। इस में कबीर की वाणी और परम्परा के साथ साथ उन का समाजशास्त्रीय, ऐतिहासिक और धार्मिक अध्ययन हो जाता है। इसी क्रम में पता लगता है कि कबीर अपने महान पुरखे मक्खलि गोसाल की आजीवक परम्परा में पले-बढ़े हैं। वे धर्म के रूप में आजीवक हैं।

कबीर पर अपनी आलोचना दृष्टि में डा. धर्मवीर की एक बेहद महत्वपूर्ण खोज है, कबीर के वाणी संग्रह  'बीजक' के नाम का रहस्य। डा. धर्मवीर ने 'बीजक' के नाम से रहस्य का पर्दा उठाते हुए बताया है, 'बीजक एक व्यक्ति का नाम है जो अपने धर्म और दर्शन में आजीवक थे और दासता के विरोध में लड़ रहे थे। (महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल, पृष्ठ 228) कबीर के आलोचकों में से कोई भी इस बात को जान - समझ नहीं पाया था कि कबीर की वाणियों के संग्रह का नाम बीजक क्यों है? यही बीजक आज डीएनए के नाम से जाना जाता है। तब बीजक का अर्थ 'पैतृकता की पहचान' के रूप में खुलता जाता है। कबीर के आलोचना कर्म में बीजक केंद्रीय तत्व बन जाता है। इसी क्रम में डा. धर्मवीर जारकर्म और जारसत्ता को सारी दुनिया के सामने खोल देते हैं। इसी क्रम में हिन्दी साहित्य दो रूपों में दिखाई देने लगता है - जारकर्म समर्थक द्विज लेखन और जारकर्म विरोधी दलित साहित्य।

कबीर पर डा. साहब के आलोचना कर्म के क्रम में कबीर पर पड़े सारे रहस्यों से पर्दा हट चुका है। कबीर को ले कर द्विजों द्वारा फैलाए गये प्रक्षिप्त भरभरा कर ढह गए हैं। कबीर घर-परिवारी हैं और घर-परिवार के समर्थन में उन की वाणी है। ऐसे में कबीर को स्त्री विरोधी बताने का झूठ हवा में उड़ गया है। ऐसे ही कबीर की वाणी में पुनर्जन्म और वर्ण - व्यवस्था को पूरी तरह नकारा गया है। यूं, कबीर के माध्यम से डा. धर्मवीर की आलोचना दृष्टि अपने वास्तविक रूप में सामने आयी है, जिस का गायन दलित कबीर के समय से करते आ रहे हैं। डा. धर्मवीर ने दलितों के सच्चे हितैषी को उन के बीच स्थापित ही नहीं किया, बल्कि धर्म के रूप में आजीवक को प्रतिष्ठित कर दिया है। आजीवक के रूप में कबीर गाते सुनते हैं :-

मन, तू पार उतर कहं जैहै?

आगे पंथी पंथ न कोई, कूच मुकाम न पैहै।।

नहिं तहं नीर, नाव नहिं खेवट, ना गुन खेंचनहारा।

धरनी गगन कल्प कछु नाहीं, ना कछु वार ना पारा।।

नहिं तन, नहिं मन, नाहिं अपनपौ, सुन्न में शुद्धि न पैहौ।

बलवाना हो पैठो घट में, वाहीं ठौरै होइहौ ।।

बार-हि-बार बिचार देख मन, अंत कहूं मत जैहौ।

कहै कबीर सब छोड़ कल्पना, ज्यों के त्यों ठहरै हौ।।(महान आजीवक :कबीर, रैदास और गोसाल, पृष्ठ 383)"

अपने पर्चे में दहिया जी ने डा. धर्मवीर के कबीर सम्बन्धी आलोचना कर्म पर बहुत ही सटीक और सधी हुयी बात कही है। कबीर पर डा. धर्मवीर द्वारा किये गये सम्पूर्ण अध्ययन और उस अध्ययन के माध्यम से डा. साहब द्वारा दलित चिंतन को आजीवक चिंतन तक पहुंचाने में किये गये। आंदोलन का संक्षिप्त और बेहतरीन खुलासा अपने पर्चे के द्वारा दहिया जी ने किया।

इस आनलाइन विचार गोष्ठी में अगले वक्ता के रूप में डॉ. रंजीत कुमार ने अपनी बात रखी। उन्होंने बताया कि, 'एक दलित चिंतक के नाते डा. धर्मवीर दलित समाज की स्त्रियों और पुरुषों की समस्याओं के समाधान खोजने के मार्ग पर बढ़ते हुए कबीर, रैदास और गोसाल तक पहुंचे हैं।'  रंजीत जी का कहना एकदम ठीक है।

रंजीत जी ने आगे कहा, 'कबीर पर डा. धर्मवीर के चिंतन के दो मूल उद्देश्य थे एक - कबीर की ऐतिहासिकता को स्थापित करना और दूसरा दलितों के लिए उन के अपने धर्म की तलाश करना।' बताया जाए डा. धर्मवीर अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल रहे हैं। वे जो चिंतन ले कर चले थे उसे उस के मूल तक पंहुचाया। इसी क्रम में डा. साहब प्रक्षिप्तों और किंवदंतियों का खात्मा कर ऐतिहासिक कबीर को सामने लाते हैं। कबीर की परम्परा, विचारधारा और धर्म की खोज कर डा. धर्मवीर ने दलित कौम की परम्परा, विचारधारा और धर्म की खोज की।

रंजीत कुमार ने अपने वक्तव्य में एक महत्वपूर्ण बात कही, 'वे (डा. धर्मवीर) कबीर के लिए डा. अम्बेडकर से भी असहमत हैं। वे डा. अम्बेडकर के बौद्ध बनने और बौद्ध धर्म को दलितों की मुक्ति का धर्म बताने से सहमत नहीं हैं। उन का मानना है कि बाबा साहेब ने दलितों को सही रास्ता नहीं दिखाया। जब दलितों का अपना धर्म पहले से ही था तो बाबा साहेब को दूसरा धर्म अपनाने की क्या जरूरत थी?' रंजीत कुमार की इन बातों पर दलितों को ध्यान देना चाहिए। रंजीत जी ने बहुत ही साहस और बेबाकी से दलित आंदोलन के इस सच्चाई को बयां किया है। दलित घर-गृहस्थी वाले हैं। जारकर्म की स्थिति में वे जारिणी को तलाक देते हैं ऐसे में वे संन्यास के मार्ग पर कैसे चल सकते हैं? दलित की संस्कृति कमा कर खाने की है फिर वे भीख मांगने वाली संस्कृति को कैसे अपना सकते हैं? दलित किसी वर्ण को नहीं जानते फिर वे वर्णवादी बुद्ध के आगे सिर कैसे झुका सकते हैं?

वक्ताओं के बाद गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे डा. भूरेलाल जी ने डा. धर्मवीर जी के 71वें जन्मदिन की बधाई देते हुए एवं डा. साहब को याद करते हुए अपना व्याख्यान में बताया कि, 'डा. धर्मवीर का कबीर सम्बन्धी आलोचना कर्म उन की पहली पुस्तक 'कबीर के आलोचक (1997)' से शुरू हो कर अंतिम पुस्तक 'महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल (2017)' तक पहुंचता है। डा. साहेब अपनी अंतिम पुस्तक में कबीर को सम्पूर्ण परम्परा के साथ ले आते हैं।' डा. भूरेलाल जी इसी कड़ी में आगे कहते हैं, 'मध्यकाल में कबीर के सामने कोई व्यक्तित्व ठहरा नहीं था लेकिन रामानंद को उन के ऊपर थोप दिया गया। जबकि इतिहासकार स्पष्ट कहते हैं कि रामानंद के बारे में इतिहास को जानकारी नहीं है।'

डा. धर्मवीर की कबीर सम्बन्धी किताबें द्विजों के प्रक्षिप्तों और किंवदंतियों को काटते हुए एक के बाद एक सामने आयी हैं। अंतिम पुस्तक में "आजीवक चिंतन" का सारा निचोड़ डा. साहब ने प्रस्तुत किया है जिस में मक्खलि गोसाल, रैदास और कबीर तीनों आजीवक महापुरुषों के इतिहास और उन के दर्शन को प्रस्तुत किया गया है। इस अंतिम किताब में कबीर का इतिहास, कबीर के बीजक का इतिहास और कबीर की मूल वाणियों को डा. धर्मवीर ने संकलित किया है।

डा. भूरेलाल जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि, 'डा. धर्मवीर कबीर का ही उद्धार नहीं करते हैं बल्कि कबीर के माध्यम से दलित यानी आजीवक कौम और आजीवक परम्परा का उद्धार करते हैं।' वे आगे कहते हैं, 'डा. धर्मवीर अपनी आलोचना से कबीर को वैष्णव फोल्डर से बाहर निकाल कर लाते हैं।' उन्होंने आगे बताया कि, 'कबीर की आलोचना में डा. धर्मवीर केवल ऎतिहासिक प्रक्रिया को ही नहीं अपनाते बल्कि वैज्ञानिक पद्धति को भी अपनाते हैं।'  भूरेलाल जी ने डा. धर्मवीर को भारतीय स्तर से ऊपर विश्व स्तर का आलोचक बताया। उन्होंने बताया कि डा. साहब की आलोचना पद्धति पाश्चात्य आलोचना पद्धति के बहुत निकट है जो प्रामाणिक तौर-तरीकों को अपनाती है।

डा. भूरेलाल जी ने अपने व्याख्यान में आगे बताया, 'डा. धर्मवीर की आलोचना पद्धति ऐतिहासिक और वैज्ञानिक के साथ साथ विध्वंसकारी भी है ठीक कबीर की तरह। कबीर ने भी अपने समय में झूठ का विध्वंस किया था। डा. धर्मवीर कहते हैं कि कबीर का गुरु मक्खी, मच्छर हो सकते हैं लेकिन ब्राह्मण रामानंद कबीर का गुरु नहीं हो सकते। इसी तरह कबीर ने खुद भी कहा है कि 'ब्राह्मण गुरु जगत का, साधु का गुरु नाहिं'।' गुरु के सम्बन्ध में स्पष्ट करते हुए वे आगे कहते हैं -'जरूरी नहीं कि किसी को गुरु बनाया जाए। हर स्थिति में गुरु की अनिवार्यता नहीं होती। बिना गुरु के भी चिंतन और दर्शन के क्षेत्र में योगदान किया जा सकता है। समाज से भी सीखा जा सकता है। कबीर के लिए समाज ही पूरी पाठशाला थी। उस पाठशाला से उन्होंने सीखा था।'

आगे उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण बात कही, 'उस समय जायसी, सूर, मीरा, तुलसी यदि अपने धर्म की साधना कर रहे थे तो कबीर-रैदास आदि संत भी अपने धर्म की साधना कर रहे थे, किसी दूसरे धर्म के लिए नहीं कर रहे थे इसलिए, डा. धर्मवीर की यह स्थापना अपनी जगह बिल्कुल सही है कि मध्यकाल में कबीर दलित धर्म के संस्थापक थे।' 

बिल्कुल कबीर अपने समय में आजीवक धर्म के संस्थापक थे ठीक उसी तरह आज आधुनिक समय में डा. धर्मवीर आजीवक धर्म की स्थापना करते हैं। मक्खलि गोसाल द्वारा प्राचीन काल में इसी आजीवक धर्म की नींव रखी गई थी। दलितों को डा. भूरेलाल जी की इस बात को ध्यान से समझनी चाहिए। कबीर के धार्मिक आंदोलन को दबाने के उद्देश्य से द्विज यह भ्रम फैलाते रहे हैं कि कबीर ने एक पंथ चलाया था। यह पंथ क्या होता है? कबीर भारत के एक पृथक और प्राचीन कौम के धार्मिक आंदोलन को ले कर आगे बढ़ थे। दलितों को अब ऐसे भ्रम जाल में नहीं फंसना चाहिए।

डा. भूरेलाल जी अपने वक्तव्य में कबीर के ईश्वर सम्बन्धी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि, 'निर्गुण की अवधारणा बहुत ही क्रांतिकारी अवधारणा है। कबीर स्वयं कहते हैं कि उन के 'राम' दशरथ सुत राम नहीं हैं। उसी तरह उन का निर्गुण ब्राह्म भी वेदांत का निर्गुण ब्राह्म नहीं है, यह बिल्कुल स्पष्ट है।' दलित किसी के बहकावे में न रहें। वे लम्बे समय तक हिन्दू भगवानों की प्रतिक्रिया में ईश्वर नाम से चिढ़े हुए थे। दलितों को यह समझना चाहिए कि हर स्वतंत्र कौम के पास अपना धर्म और ईश्वर होता ही है। धर्म कौम की सम्पूर्ण परम्परा और विचारधारा का प्रतीकात्मक नाम होता है तो ईश्वर परम्परा और विचारधारा के अनुरूप गढ़ा गया अमूर्त रूप। धर्म की स्थापना करने वाला हर महापुरुष धर्म और ईश्वर की बात साथ साथ करता है। कबीर अपने धर्म की बात करने के साथ ही अपने ईश्वर 'राम' की बात भी करते हैं।

अपने व्याख्यान के अंत में डा. भूरेलाल जी दलितों को संदेश देते हुए कहते हैं, 'डा. धर्मवीर ने कबीर का उद्धार करने के साथ कौम का उद्धार किया है। अब कबीर वैष्णव फोल्डर के भीतर नहीं जा सकते। आगे यह दलितों का कर्तव्य है कि वे अपनी परम्परा और धर्म का संरक्षण करें।' बिल्कुल सही बात है। मक्खलि गोसाल, कबीर - रैदास के धार्मिक आंदोलन के बावजूद कौम गुलामी में गिरती रही है तो इस का कारण यही है कि दलित अपने महापुरुषों के आंदोलन को संरक्षित करने में नाकाम रहे हैं। आधुनिक समय में डा. धर्मवीर के रूप में हम कबीर को ही सामने पाते हैं। अब हम अपने महापुरुष की उंगुली छोड़ने वाले नहीं।

इस गोष्ठी का संचालन सुभाष गौतम तथा समापन दिनेश पाल ने किया। बता दिया जाय, भारतीय आजीवक महासंघ ट्रस्ट की तरफ से डा. धर्मवीर जी की स्मृति में आयोजित यह दूसरा कार्यक्रम था। इस के पहले 09 मार्च, 2021 को डा. धर्मवीर जी की स्मृति में ट्रस्ट पहला आनलाइन कार्यक्रम आयोजित कर चुका है। जो 'दलित चिंतन और साहित्य आलोचना में डा. धर्मवीर का योगदान' विषय पर केंद्रित था। यहाँ यह भी बताते चलें कि ट्रस्ट की तरफ से एक स्वतंत्र मंच 'धर्मवीर साहित्य एवं संस्कृति मंच' का निर्माण किया गया है। इस विचार गोष्ठी के रूप में धर्मवीर साहित्य एवं संस्कृति मंच द्वारा आयोजित यह पहला आनलाइन कार्यक्रम था।      

अरुण आजीवक की रिपोर्ट

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना