वीरेंद्र यादव/ पटना/ माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, भोपाल की फाइनल परीक्षा में एक हिस्सा इंटरव्यू का भी था। इसे वाईवा भी कहते हैं। इंटरव्यू के दौरान एक प्रश्न पूछा गया था कि इंटरव्यू और प्रेस कॉन्फ्रेंस में क्या अंतर है। इसका सहज जवाब था कि इंटरव्यू के दौरान पत्रकार को तैयार होकर जाना पड़ता है और प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान सामने वाला व्यक्ति तैयार होकर आता है। खबरों की भाषा में ऐसा ही होता है।
लेकिन हाल के दिनों में एक नयी पद्धति भी आयी है। इंटरव्यू के लिए न नेता तैयार होता है और न पत्रकार तैयारी करता है। कदावर नेता है तो अपना संभावित उत्तर मीडिया हाउस को भेजता है और कहता है कि इन तथ्यों के आधार पर सवाल बना लीजिएगा। उसी सवाल के आधार पर बड़ा-बड़ा इंटरव्यू अखबारों एवं चैनलों में प्रकाशित या प्रसारित होता है।
हम आमतौर पर खबरों से दूर रहते हैं। न अखबार पढ़ते हैं, न टीवी सुनते हैं, न यूट्यूब देखते हैं। वजह यही है कि खबरों में रुचि नहीं है। लेकिन रोजी खबरों से जुड़ा हुआ है, इसलिए खबरों के साथ होना विवशता है। इधर हमने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अखबारों और टीवी पर इंटरव्यू देखा। इसे देखकर और सुनकर यह समझ में नहीं आया कि इन लोगों को प्रश्न पूछने के लिए बुलाया गया था या उत्तर सुनने के लिए। पत्रकार भी अपनी-अपनी दुकान के बड़े-बड़े ठेकेदार। प्रधानमंत्री चुनाव यात्रा के दौरान पत्रकारों को इंटरव्यू भी दे रहे हैं। प्रधानमंत्री के हवाले से छपे समाचार खबरनवीसी का तीसरा फार्मेट है। उत्तर भेज दिया और कहा गया कि इसी के आधार पर सवाल पूछना है।
प्रधानमंत्री का विशेष इंटरव्यू आप देखें या पढें, घुमा-फिराकर सबमें एक ही बात पढ़ने और सुनने को मिलेगी। फैक्ट यह है कि प्रधानमंत्री की खबरों का बाजार है, मीडिया घराने का कारोबार है, पत्रकारों का सरोकार है। उस दौर में आप जनता के सरोकार या अपने पाठकों से व्यापक हित से जुड़े सवाल नहीं पूछ सकते हैं। अब तो बिहार में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव भी अखबारों को इंटरव्यू ईमेल से देते हैं। सवाल कोई भी होगा, उत्तर वही देंगे, जितना हमें देना है।
हम खबरों की बात कर रहे थे। खबरों से दूर इसलिए रहते हैं कि किसी भी चैनल या अखबार के पास खबर नहीं है। चुनावी खबरों की अपनी त्रासदी है। बिहार के किसी भी अखबार को उठा लीजिए। किसी भी क्षेत्र का विश्लेषण पढ़ या देख लीजिए, पूरी खबर जाति के आसपास गढ़ी और बुनी जाती है। वह 10-12 जातियों से ज्यादा की बात नहीं होती है। यादव, मुसलमान, राजपूत, भूमिहार, बनिया, कोईरी, कुर्मी, ब्राह्मण, चमार, दुसाध तक आते-आते खबरें हांफने लगती हैं। जबकि किसी भी क्षेत्र में इन जातियों की आबादी मिलाकर 50-55 फीसदी से आगे नहीं बढ़ पाती है। जबकि गिनती से दूर रही 45-50 फीसदी वोट का हिसाब किसी के पास नहीं होता है। यही जातियां आमतौर पर आकलन को झूठला देती हैं।
प्रदेश में 20 ही जातियां होंगी, जिनकी आबादी 1 फीसदी या उससे अधिक है। लेकिन 190 से अधिक जातियों की आबादी एक फीसदी से कम यानी दशमलव में है। इसे हम आकांक्षाहीन यानी एम्बीशनलेस जाति कहते हैं। इन जातियों में विधायक या सांसद बनने की कोई लालसा नहीं है और न कोई पार्टी इन्हें टिकट देने की सोचती हैं। लेकिन ये जातियां वोट देने जाती हैं। इन जातियों का मतदान प्रतिशत राजपूत, यादव और भूमिहारों से भी ज्यादा होता है। उनके लिए वोट सत्ता प्राप्ति का माध्यम नहीं है। वे किसी पार्टी के मुखर समर्थक भी नहीं हैं। लेकिन वोट तो किसी के पक्ष में जाता ही होगा। ये निर्दलीय या नोटा के वोटर भी नहीं है। नरेंद्र मोदी या तेजस्वी यादव का इंटरव्यू से भी इन पर कोई फर्क नहीं पड़ता है, लेकिन चुनाव में हार-जीत का फर्क (मार्जिन) यही तय करते हैं।
ये खबरों के बाजार के लिए अछूत हैं। इनकी राय पूछने कोई नहीं जाता है। इनकी आवश्यकता किसी का एजेंडा नहीं है। मीडिया का बाजार के लिए बड़ी पार्टी या बड़े नेता की पठनीयता या श्रव्यता आर्थिक धंधे को ताकत देता है। इसलिए आकांक्षाहीन जातियां हाशिये पर धकेल दी जाती हैं। मीडिया को जितनी संवेदनशीलता प्रधानमंत्री या अन्य नेताओं को लेकर है, वैसी ही संवेदनशीलता आकांक्षाहीन जातियां के प्रति होनी चाहिए। यह खबर और पाठक के आपसी संबंधों को मजबूत बनाये रखने के लिए भी जरूरी है।