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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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निर्भीक पत्रकारिता का सर्वोच्च स्वर: बी बी सी

तनवीर जाफ़री/ इस समय विश्व का अधिकांश भाग हिंसा, संकट, सत्ता संघर्ष, साम्प्रदायिक व जातीय हिंसा तथा तानाशाही आदि के जाल में बुरी तरह उलझा हुआ है। परिणाम स्वरूप अनेक देशों में आम लोगों के जान माल पर घोर संकट आया हुआ है। मानवाधिकारों का घोर हनन हो रहा है। लाखों लोग विस्थापित होकर अपने घरों से बेघर होने के लिए मजबूर हैं। ऐसे कई देशों में बच्चों व महिलाओं की स्थिति ख़ास तौर पर अत्यंत दयनीय है। सीरिया, यमन व अफ़ग़ानिस्तान जैसे देश तो लगभग पूरी तरह तबाह हो चुके हैं। ऐसे में किस देश की आम जनता पर क्या गुज़र रही है इसकी सही जानकारी जुटा पाना भी एक बड़ी चुनौती बन गया है। ले देकर मीडिया ही एक ऐसा स्रोत है जिससे किसी भी घटना अथवा विषय की सही जानकारी हासिल होने की उम्मीद लगाई जा सकती है। परन्तु दुर्भाग्यवश संकटग्रस्त विभिन्न देशों का मीडिया भी अपनी निष्पक्षता व विश्वसनीयता खो चुका है या खोता जा रहा है। अनेक देशों का मीडिया या तो सत्ता के हाथों की कठपुतली बन गया है या सैन्य नियंत्रण का शिकार है अथवा तथाकथित राष्ट्रवाद का चोला ओढ़ कर पत्रकारिता के अपने वास्तविक दायित्व को भूल चुका है। विश्व के अनेक मीडिया संस्थान ऐसे भी हैं जो पत्रकारिता से अधिक व्यवसायिकता को महत्वपूर्ण मानते हुए सत्ता प्रतिष्ठान के विरुद्ध लिखने या बोलने का साहस ही नहीं जुटा पा रहे हैं। भले ही सत्ता द्वारा मानवाधिकारों का कितना ही हनन क्यों न किया जा रहा हो। अनेक मीडिया संस्थान ऐसे भी हैं जो सत्ता की चाटुकारिता की पराकाष्ठा तक पहुँच चुके हैं और उनके पास जनता से जुड़े वास्तविक मुद्दे उठाने का मानो वक़्त ही नहीं है। वे इसके बजाए धर्म, जाति, भाषा और राष्ट्रवाद व संस्कृति जैसे मुद्दे प्राथमिकता से उठाते हैं ताकि जनता का ध्यान  जनसरोकार से जुड़े मुद्दों से भटकाकर  भावनात्मक विषयों में उलझा कर रखा जाए। ज़ाहिर है ऐसे में दुनिया को अनेक संकटग्रस्त देशों व क्षेत्रों के आम लोगों की सही स्थिति व दशा का ज्ञान नहीं हो पाता।

विश्व में बढ़ते जा रही पूर्वाग्रही व पक्षपातपूर्ण पत्रकारिता का आलम यह है कि अनेक पक्ष के लोगों ने अपनी मनमानी "डफ़ली" बजाने के लिए अपने कई निजी टी वी चैनल शुरू कर दिए हैं तथा अपने "प्रवक्ता" रुपी कई अख़बार व पत्रिकाएं प्रकाशित कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त सत्ता का गुणगान करने व पूर्वाग्रही विचार रखने वाले अनेक कथित लेखकों को भी मैदान में उतारा गया है जो सत्ता के गुणगान करने तथा सत्ता के आलोचकों पर हमलावर होने जैसी अपनी "सरकारी ज़िम्मेदारी" निभा रहे हैं। इसी प्रकार मुख्य धारा के कई टी वी चैनल्स के अनेक एंकर टी वी पर युद्धोन्माद फैलाने व साम्प्रदायिकता परोसने के विशेषज्ञ बन गए हैं। झूठी ख़बरें तक प्रकाशित करना इनके लिए साधारण सी बात है। पत्रकारिता पर छाते जा रहे इस गंभीर संकट का एक दुष्प्रभाव यह भी पड़ रहा है कि ईमानदार, अच्छे, ज्ञानवान व पत्रकारिता के मापदंडों पर खरे उतरने वाले अनेक ऐसे पत्रकार जो अपने मीडिया संस्थान के स्वामी के साथ अपने ज़मीर का सौदा नहीं कर सके और पत्रकारिता को व्यवसायिकता पर तरजीह देने का साहस किया ऐसे अनेक पत्रकार बड़े बड़े चाटुकार व सत्ता की गोद में खेलने वाले मीडिया संस्थानों से नाता तोड़ कर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए हुए हैं और पत्रकारिता जैसे पवित्र व ज़िम्मेदाराना पेशे की अस्मिता की रक्षा करने में लगे हैं। हालांकि ऐसे पत्रकारों को इसका ख़मियाज़ा भी भुगतना पड़ता है। कहीं तो वह पक्ष पत्रकार की जान का दुश्मन बन जाता है जिसको यह महसूस होता है कि इसकी निष्पक्ष पत्रकारिता उसे बेनक़ाब कर रही है तो कभी संकटग्रस्त क्षेत्रों से सही ख़बर जुटाने के दौरान किसी पत्रकार को अपनी जान भी गंवानी पड़ती है।

मीडिया पर छाए अनिश्चितता के इस दौर में भी राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कुछ मीडिया संस्थान ऐसे भी हैं जो पत्रकारिता की अपनी ज़िम्मेदारियों को बख़ूबी निभा रहे हैं। यदि आज के दौर में इस तरह के ज़िम्मेदार मीडिया हॉउस न हों तो कोई भी ऐसा दूसरा स्रोत नहीं जो हमें संवेदनशील स्थानों की सही जानकरी दे सके। ऐसे ही एक कर्तव्यनिष्ठ मीडिया घराने का नाम है बी बी सी। 1922 में सर्वप्रथम ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कंपनी के नाम से स्थापित तथा अपनी स्थापना के मात्र 5 वर्षों बाद अर्थात 1927 में ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कार्पोरेशन के नाम से जाना जाने वाला मीडिया संस्थान अपनी स्थापना के समय से ही अपनी विश्वसनीयता, निर्भीकता तथा बेबाकी के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध रहा है। बी बी सी "सबसे तेज़ " की नीति पर चलने के बजाए 'सबसे विश्वसनीय' होने की नीति पर चलता रहा है। जनभागीदारी के आधार पर चलने वाला यह संस्थान हमेशा ही दबाव मुक्त रहा है। बेशक निष्पक्ष और बेलाग लपेट की पत्रकारिता करने की जितनी क़ुर्बानी बी बी सी को देनी पड़ी है उतनी किसी दूसरे मीडिया घराने के लोगों को नहीं देनी पड़ीं। आज भी बी बी सी सीरिया, अफ़ग़ानिस्तान, इराक़, फ़िलिस्तीन, पाकिस्तान, म्यांमार, यमन, कश्मीर तथा ब्लूचिस्तान जैसे संवेदनशील इलाक़ों की रिपोर्टिंग पूरी ईमानदारी व ज़िम्मेदारी के साथ करने का प्रयास कर रहा है। हालांकि बी बी सी को पत्रकारिता  के वास्तविक सिद्धांतों पर चलने का ख़मियाज़ा भी भुगतना पड़ रहा है। अकेले अफ़ग़ानिस्तान में ही 1990 से शुरू हुए गृह युद्ध में अब तक बीबीसी के पांच पत्रकारों की हत्या हो चुकी है। गत वर्ष कश्मीर में आतंकवादियों ने बी बी सी के ही शुजात बुख़ारी की हत्या कर दी थी। बी बी सी के कई पत्रकार ख़तरनाक जगहों से रिपोर्टिंग करते हुए भी अपनी जानें गँवा चुके हैं।

दरअसल जिस पक्ष को निष्पक्ष व ज़िम्मेदार पत्रकारिता नहीं भाती वही पक्ष बी बी सी का बैरी हो जाता है। उदाहरण के तौर पर पिछले दिनों अफ़ग़ानिस्तान पर एक विस्तृत रिपोर्टिंग करते हुए बी बी सी ने यह दावा  किया कि अफ़ग़ानिस्तान में पिछले महीने एक हज़ार तालिबानी लड़ाके  मारे गए।परन्तु तालिबान और अफ़ग़ान सरकार दोनों ने ही मारे गए लोगों के बीबीसी के आंकड़ों की वैधता पर सवाल उठाए। तालिबान ने कहा कि वो पिछले महीने एक हज़ार लड़ाकों के मारे जाने के बीबीसी के दावों को पूरी तरह ख़ारिज करता है और इसे  निराधार मानता है। जबकि अफ़ग़ानिस्तान के रक्षा मंत्रालय ने कहा है कि बी बी सी के  इस शोध की गंभीरतापूर्वक समीक्षा किए जाने की ज़रूरत है और गंभीर रिसर्च के साथ ज़मीनी हक़ीक़तों को रिपोर्ट में शामिल किया जाना चाहिए। जबकि बीबीसी का कहना है कि वह अपने पत्रकारिता के सिद्धांतों पर खड़ी है। इसी प्रकार सीरिया में एक दोहरे हवाई हमले को लेकर रूस को कटघरे में खड़ा करने की भूमिका बी बी सी ने बड़ी ही ज़िम्मेदारी से निभाई। इनदिनों कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति के बाद राज्य में पैदा हालात की रिपोर्टिंग भी बी बी सी द्वारा बड़े ही बेबाक तरीक़े से की जा रही है। हालाँकि अपनी नियमित प्रेस कांफ़्रेंस में भारत सरकार का पक्ष अपनी सुविधा व नीतियों के अनुरूप रखा जा रहा है परन्तु बी बी सी सरकारी पक्ष रखने के साथ साथ अपने सूत्रों से जुटाई गई आम जनता से जुड़ी वह ख़बरें भी प्रसारित कर रहा है जिसे सरकारी पक्ष प्रसारित  करना या कराना नहीं चाहता। कश्मीर संबंधी कई रिपोर्ट्स में सरकार व बी बी सी के दावों में परस्पर विरोधाभास भी दिखाई दिया है। 'सरकारी भाषा' बोलने वाले कई पत्रकार बी बी सी की इस ज़िम्मेदाराना पत्रकारिता को "भारत विरोधी पत्रकारिता" का नाम भी दे रहे हैं। मज़े की बात तो यह है कि यही बी बी सी जब ब्लोचिस्तान या पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर हो रहे ज़ुल्म के मुद्दे उठता है उस समय उन लोगों को बी बी सी की पत्रकारिता "भारत विरोधी" नहीं महसूस होती बल्कि "आदर्श पत्रकारिता" लगती है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि चाटुकार व दलाल मीडिया के वर्तमान दौर में निःसंदेह बी बी सी निष्पक्ष व निर्भीक पत्रकारिता का आज भी सर्वोच्च स्वर है।

तनवीर जाफ़री

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सम्पादक

डॉ. लीना