अबरार मुल्तानी/ मैं भी ऐसे दौर से गुजरा हूँ जब हर लिखी बात को सही मानता था। फिर धीरे धीरे पता चला कि न्यूज़ पेपर की हर ख़बर सत्य नहीं होती। फिर सोशल मीडिया के आने से ख़बरों के भी चरित्र होतें हैं यह पता चला और अखबारों की भी अपनी विचारधारा होती है यह भी मालूम हुआ। कई लोग अब ख़बरों पर भरोसा नहीं करते। खबरें उनके पक्ष में लिखी हो तो भी क्योंकि पक्षपात उजागर हो गया है या कर दिया गया है।
किसी ने अफवाह फैलाई कि न्यूज़ पेपर मत लीजिए इससे कोरोना फैलता है। अफवाह तो अफवाह है ,फैल गई आग की तरह। बहुत से लोगों ने पेपर लेना बंद कर दिया। न्यूज़ पेपरों ने बड़े बड़े एड दिए, अपील की लेकिन लोगों पर असर ना के बराबर हुआ। भरोसा कैसे करते क्योंकि भरोसा कई बार टूट जो चुका था। हॉकर्स को भी लोग पैसे नहीं दे रहे हैं अनिश्चितता की वजह से। बाज़ार खुल नहीं रहे इसलिए एड भी ना के बराबर हैं। नतीजा रेवेन्यू जनरेट नहीं हो रहा। प्रिंट मीडिया बुरे दौर में हैं। एक महीने तक तो सबको वेतन दिया जा सकता है लेकिन उसके बाद इससे जुड़े लोग अपनी नौकरियों को कैसे बचाएंगे?
मैं भावनात्मक रूप से प्रिंट मीडिया से लगाव रखता हूँ। क्योंकि, मैं बचपन से ही अखबारों को रोज़ पढ़ता आ रहा हूँ। इसलिए दुआ करता हूँ कि वह बुरे दौर से जल्द से जल्द निकले और अपनी विश्वसनियता पर फिर से गौर करे। विश्वसनियता ही वह एकमात्र उपाय है जिससे प्रिंट मीडिया अपने आप को इस संकट से बचा सकता है।
(अबरार मुल्तानी के फेसबुक वॉल से साभार)