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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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अगले वर्ष मीडिया शिक्षा सौ साल पूरे करने जा रहा

मीडिया की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करता जन मीडिया पत्रिका का अगस्त 19 अंक

संजय कुमार/ जन मीडिया का अगस्त अंक यानी 89 वीं में मीडिया शोध की तस्वीर हर अंक की तरह ही ख़ास है l इस अंक में, 20वी सदी में भारतीय मीडिया शिक्षा, पत्रकारिता के खिलाफ सरकारें कानूनी तौर तरीकों का इस्तेमाल करती हैं , गांधी की पत्रकारिता में विज्ञापन की रीति नीति, गांधी युगीन महिला पत्रकारिता, लोकतंत्र और प्रौद्योगिकिया विषय पर आलेख हैं।

अध्ययन के तहत डॉ देवव्रत सिंह और राजेश कुमार ने 20वीं सदी में भारतीय मीडिया शिक्षा विषय को उठाया है। 2020 में भारतीय मीडिया शिक्षा, सौ साल पूरे करने जा रहा है।  लेखक द्वय ने बताया है कि देश के विश्वविद्यालयों तथा संस्थानों में करीब 300 से ज्यादा मीडिया विभाग /केंद्र संचालित हैं, जो संतोषजनक तस्वीर पेश करते हैं । यह शोध आलेख भारतीय मीडिया शिक्षा के 20वीं सदी के विकास क्रम पर विस्तार से प्रकाश डालता है।  शोध में बताया गया है कि सन 1920 में पहली बार होमरूल की संस्थापक एनी बेसेंट के नेतृत्व में मद्रास स्थित नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ अद्यार में पत्रकारिता कोर्स की शुरुआत की गई थी। वर्ष 1938 में मीडिया शिक्षा का दूसरा प्रयास अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में  किया गया। 1950 में मीडिया शिक्षा के विस्तार की गति धीमी रही।  जबकि 1940 का दशक ऐतिहासिक था। कई मीडिया शिक्षा केन्द्र खुले। 1960 का दशक ठीक रहा। कई संस्थान अस्तित्व में आये। 1970 के दशक को लेखकों ने प्रगतिशील बताया है। 1980 में प्रेस इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया ने भारत में मीडिया शिक्षा रिपोर्ट पेश की। 1980 का दशक भी ठीक रहा। 1990 का दशक व्यापक बदलाव का रहा। निष्कर्ष में लेखक मानते है कि 20 वी सदी में भारत में मीडिया शिक्षा का विकास क्रम उतार चढ़ाव से भरा रहा है। जन्मजात पत्रकार बनाम प्रशिक्षित पत्रकार के बीच विमर्श को रेखांकित किया । हालांकि यह विमर्श और टकराव जारी है। जहां एक ओर कई संस्थाओं में निजी और सरकारी में जन्मजात यानी बिना मीडिया शिक्षा लेकर मीडिया संस्थानों में छात्रों को पढ़ाते है वहीं मीडिया संस्थानों से पढ़ाई कर कई लोग भी पढ़ा रहे हैं। अतिथि शिक्षक के तौर पर शिक्षा देने वालों में खींच तान भी होती है, लेकिन संस्थान पत्रकारों को नाराज नहीं करना चाहती, ऐसे में दोनों की सेवा जारी है।

संजय कुमार बलौदिया का आलेख पत्रकारिता के खिलाफ सरकारें कानूनी तौर तरीकों का इस्तेमाल करती हैं, रोचक और पोल खोल है।  बांग्लादेश, भारत, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका में पत्रकारों पर हो रहे हमले की घटनाओं की पड़ताल आंकड़ो और तथ्यों के आधार पर इसमें किया गया है।  

गांधी की पत्रकारिता में विज्ञापन की रीति नीति पर शोध डॉ कमल किशोर गोयनका ने की है। विज्ञापन को लेकर गांधी के नजरिये को लेखक ने विस्तार से रखा है। गांधी मानते थे कि विज्ञापनों के प्रकाशन से पत्रकारिता की पवित्रता नष्ट होती है और उद्देश्य को भी आघात लगता है। उन्होंने इंडियन ओपिनियन में, अपने विषय में  शीर्षक में लिखा, हमने यह भी निर्णय कर लिया है कि अपने आदर्शों पर चलते हुए अपने व्ययों की पूर्ति के लिए विज्ञापन नही ले सकते। हमारी समझ में विज्ञापनो की प्रणाली ही बुरी है। वहीं , गांधी ने जब नवजीवन, यंग इंडिया और हरिजन का संपादन किया तो हर बार समाचार पत्र में विज्ञापन के संबंध में अपनी नीति का स्पष्टीकरण देना पड़ा।

गांधी युगीन महिला पत्रकारिता विषय पर शोध आलेख समर विजय ने लिखा है। लेखक ने तथ्यों से बताने की कोशिश की है कि कुछ पत्र पत्रिकायें प्रथाओं को जायज बताते थे मसलन सती प्रथा। इसके बावजूद गांधी युगीन महिला पत्रकारिता का समग्रतः उद्देश्य महिला कल्याण और महिला उत्थान ही था।

पूंजीवाद और सूचना का युग नामक पुस्तक से केन हिर्ष्कोप का आलेख लोकतंत्र और नई प्रौद्योगिकियां है। लोकतंत्र के बीच नई प्रौद्योगिकियों को रेखांकित किया गया है। मसलन जन प्रौद्योगिकियां, ऑनलाइन जनतंत्र, सूचना ही शक्ति है। लोकतंत्र में नई प्रौद्योगिकी की जितनी अहमियत बनी, वहीं तंत्र में घबराहट भी दिखी । सूचनाओं का फैलना और विरोधी स्वर से तंत्र की सांसे भी फूली। यह पढ़ने लायक आलेख है।

वैसे जन मीडिया के अगस्त अंक के सारे शोध, आलेख  गंभीर और पढ़ने लायक है। साथ ही ये विमर्श भी दे जाती है। 

पत्रिका -जन मीडिया

अंक-89, अगस्त 2019

मूल्य -20 रुपये

संपादक -अनिल चमड़िया

पता -सी -2,पिपलवाला मोहल्ला, बादली एक्सटेंशन, दिल्ली 42

मो 9654325899

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सम्पादक

डॉ. लीना