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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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मीडिया के लिए ‘वॉचडॉग’ की भूमिका में सोसायटी

हिन्दी पत्रकारिता दिवस (30 मई )  विशेष

प्रो. मनोज कुमार/ पत्रकारिता के इतिहास में हमें पढ़ाया और बताया जाता है कि पत्रकारिता सोसायटी के लिए ‘वॉच डॉग’ की भूमिका में है लेकिन बदलते समय में अब सोसायटी पत्रकारिता के लिए ‘वॉच डॉग’ की भूमिका में आ गया है। पत्रकारिता के कार्य-व्यवहार को लेकर समाज के विभिन्न मंचों पर चर्चा हो रही है। उनके कार्यों की मीमांसा की जा रही है और जहां पत्रकारिता अपने दायित्व से थोड़ा भी आगे-पीछे होता है तो सोसायटी पत्रकारिता को चेताने का कार्य करता है। इस तरह सोसायटी पत्रकारिता के लिए एक नई भूमिका में है जिसे हम कह सकते हैं कि वह ‘वॉच डॉग’ की भूमिका का निर्वहन कर रहा है। मीडिया के विस्तार के साथ शिकायतों का अंबार बढ़ा है और उसकी निष्पक्षता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। मीडिया पर एकपक्षीय होने का आरोप भी लगने लगा है। ऐसे में सोसायटी स्वयं होकर मीडिया की निगरानी करने जुट गया है। सोसायटी की इस नयी भूमिका का स्वागत किया जाना चाहिए। सवाल यह भी है कि मीडिया अपने हिस्से का काम कर रही है किन्तु उस पर नियंत्रण किसी का नहीं है। नियंत्रण के अभाव में मीडिया अपने निहित उद्देश्यों से भटकने लगे तो कौन उन्हें सजग और सचेत करे? ऐसी स्थिति में मीडिया पर नकेल डालने की जिम्मेदारी स्वयं सोसायटी ने अपने कंधों पर ले ली है। मीडिया की तीसरी आंख से आम-ओ-खास भयभीत रहते हैं, उसे सोसायटी के एक जागरूक टीम ने आगाह कर दिया है कि वह सोसायटी की सुरक्षा और शांति के लिए अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करे किन्तु अपनी शक्ति का बेजा इस्तेमाल ना करे।

यह वही मीडिया है जो बरगद के रूप में अपनी जड़ें फैलाये हुए पत्रकारिता कहलाता था। टेलीविजन के आने के बाद टेलीविजन, रेडियो और अखबारों को मिलाकर स्वयंभू मीडिया कहलाने लगा। पत्रकारिता अपनी रफ्तार से कार्य कर रही है और मीडिया बेलाग होती जा रही थी। निश्चित रूप से अखबारों के मुकाबले टेलीविजन का असर ज्यादा होता है और यह लोगों को मोहित कर लेता है। अपनी ताकत दिखाने और टीआरपी जुगाड़ करने के फेर में मीडिया में कई बार नकली और मनगढ़ंत खबरों का प्रसारण भी हो जाता है। खबर सच्ची है या झूठी, यह जानने का कोई बैरामीटर आम आदमी के पास नहीं होता है और वह ऐसी ही खबरों को सच मान लेता है। इन कारणों से समाज में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास का भाव उत्पन्न होता है। मीडिया की साख गिरती है। यह वही समय है जब मीडिया नियंत्रण की चर्चा होने लगती है लेकिन स्व-अनुशासन की बात तो दूर की कौड़ी हो गई है। पूर्व निर्धारित मानदंडों को भी मीडिया अनदेखा कर खबरों का, रिपोटर््स का प्रसारण-प्रकाशन करती है। इसे एक तरह से आप मीडिया का संक्रमण काल भी कह सकते हैं। मीडिया की इस मनमानी के चलते बड़ी संख्या में लोग टेलीविजन से स्वयं को दूर कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि मीडिया उन्हें गलत खबरें दिखा और बता रहा है। इस स्थिति से उबरने के लिए मीडिया पर सोसायटी स्वयं होकर निगरानी करने लगा है। जैसे मीडिया के पास सोसायटी की निगरानी करने, अच्छा-बुरा दिखाने और लोकमानस के कुशल मंगल की कामना करने के अलावा कोई अन्य वैधानिक अधिकार नहीं है, ठीक वैसी ही स्थिति में सोसायटी की भी है। लेकिन सोसायटी जब मीडिया के अनियंत्रित व्यवहार को देखती है तो आगे बढक़र वह अपना विरोध दर्ज कराती है और इसके बाद भी मीडिया के कार्य-व्यवहार में सुधार नहीं दिखता तो मीडिया का बहिष्कार करना शुरू कर देती है। मीडिया के पास तो बहिष्कार का भी अधिकार नहीं है। 

सोसायटी के पास पराधीन भारत से लेकर स्वतंत्र भारत तक कभी चार पन्ने तो आज 12 और 20 पन्नों का अखबार आता है। सोसायटी का पहले भी भरोसा अखबारों पर था और आज भी उसका यकिन अखबारों पर ही है। आहिस्ता-आहिस्ता सोसायटी अखबारों की दुनिया में लौटने लगी है। सोसायटी का अखबारों पर विश्वास का एक बड़ा कारण है उसकी टाइमिंग को लेकर। 24 घंटे में अखबार का प्रकाशन सामान्य स्थिति में एक बार होता है। इसलिए अखबार के पास खबरों के लिए युद्ध की स्थिति नहीं होती है वहीं टेलीविजन के पास 24 घंटे ताजी और नई खबरें दिखाने का दबाव बना रहता है। ऐसे में खबरों का दोहराव और कई बार जबरिया खबर गढऩे का उपक्रम जारी रहता है। अखबार और टेलीविजन की भाषा को लेकर भी विरोधाभाष की स्थिति बनी रहती है। भाषा पर भी टेलीविजन का कोई नियंत्रण नहीं होता है जबकि अखबारों की भाषा संयत और सुसंस्कृत होता है। 50 वर्ष पार लोगों में ऐसे अनेक लोग मिल जाएंगे जिन्होंने भाषा की मर्यादा अखबार को पढ़ कर सीखा लेकिन आज के 25 वर्ष का युवा टेलीविजन को देखता है लेकिन उसकी भाषा में ना तो संयम है और ना ही सुसंस्कृत। यही कारण है कि आज का युवा अंग्रेजी-हिन्दी को मिलाकर काम चला रहा है। ऐेसे में टेलीविजन से ज्यादा भरोसा लोगों का अखबारों पर है।

मीडिया का एक अनिवार्य हिस्सा रेडियो है। जब हम टेलीविजन और अखबारों की तुलना रेडियो से करते हैं तो पाते हैं कि रेडियो ज्यादा विश्वसनीय, प्रभावी और लोकमंगल के अपने दायित्व की पूर्ति करता है। सूचना, शिक्षा और मनोरंजन के तीन निहित उद्देश्यों की पूर्ति रेडियो करता है। वर्तमान समय में रेडियो का भी विस्तार हुआ है और आकाशवाणी के साथ सामुदायिक रेडियो और एफएम रेडियो अस्तित्व में आ चुका है। विस्तार के पश्चात भी रेडियो के इन तीनों प्रभाग पूरी जिम्मेदारी के साथ कार्य कर रहे हैं। आकाशवाणी के बारे में सभी को ज्ञात है कि उसकी कार्य प्रणाली क्या है किन्तु सामुदायिक रेडियो को सोसायटी ने अभी पूरी तरह नहीं जाना है क्योंकि सामुदायिक रेडियो एक सीमित क्षेत्रफल में कार्य करता है लेकिन उसका संचार प्रभाव व्यापक है। लोक संस्कृति, साहित्य को संरक्षण देने के साथ वह विपदा के समय लोगों को आगाह करता है और बड़े खतरे से बचाता है। समुद्री इलाकों में अक्सर तूफान आते हैं और मौसम विभाग की मदद से अपने प्रसारण क्षेत्र में वह इस सूचना को प्रसारित कर जान-माल के नुकसान से बचाता है। ऐसी और भी कई विपदा के समय सामुदायिक रेडियो अपनी भूमिका का जिम्मेदारी से निर्वहन करता है। एक अन्य एफएम रेडियो बिजनेस मॉडल है। मूल रूप से यह मनोरंजन का कार्य करता है और साथ में समय-समय पर  सोसायटी की जरूरत के अनुरूप सूचना का प्रसारण करता है। इस तरह हम मीडिया के स्वरूप का आंकलन करते हैं और यह सुनिश्चत कर पाते हैं कि सोसायटी का नियंत्रण जरूरी है।

पत्रकारिता का संबंध सूचनाओं को संकलितऔर संपादित कर आम पाठकों तक पहुंचाने से है। लेकिन हर सूचना समाचार नहीं है। पत्रकार कुछ ही घटनाओं, समस्याओं और विचारों को समाचार के रूप में प्रस्तुत करते हैं। किसी घटना को समाचार बनने के लिए उसमें नवीनता, जनरुचि, निकटता, प्रभाव जैसे तत्त्वों का होना शरूरी है। समाचारों के संपादन में तथ्यपरकता, वस्तुपरकता, निष्पक्षता और संतुलन जैसे सिद्धांतों का ध्यान रखना पड़ता है। इन सिद्धांतों का ध्यान रखकर ही पत्रकारिता अपनी विश्वसनीयता अॢजत करती है। लेकिन पत्रकारिता का संबंध केवल समाचारों से ही नहीं है। उसमें सम्पादकीय, लेख, कार्टून और फोटो भी प्रकाशित होते हैं। पत्रकारिता के कई प्रकार हैं। उनमें खोजपरक पत्रकारिता, वॅाचडॉग पत्रकारिता और एडवोकेसी पत्रकारिता प्रमुख है। पत्रकारिता का हमारा पेशा हमसे असमान्य मेहनत की मांग करता है. इस पेशे में तमाम किस्म के मुद्दों पर गहरी समझ की दरकार होती है और साथ-साथ फौरन से पेशतर फैसले लेने की क्षमता. चूंकि पत्रकारों को समाज के ताकतवर तबकों के दबाव और रोष का भी लगभग सामना करना पड़ सकता है, इसलिए किसी खबर पर काम करने के सभी चरणों के दौरान आपमें ऐसी स्थितियों से निपटने का कौशल और रणनीति होना भी जरूरी है, कहानी के छपने से पहले और छपने के बाद भी। दुश्वारियों से भरे इस पेशे में आपको स्व-रक्षा कवच भी विकसित करने होंगे। इन कवचों को जंग लगने से बचाने और कारगर बनाए रखने के लिए समय-समय पर उनकी साफ-सफाई और देखरेख भी जरूरी है। अधिकांशत: मैं राजनेताओं द्वारा कही गई बातों को घास नहीं डालता, लेकिन पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट का हमारे पेशे को लेकर यह कथन मुझे बहुत माकूल लगता है।

उपलब्ध प्रतिष्ठित सम्पादक अज्ञेय के अपने निश्चित मानदंड थे, जिससे उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। अज्ञेय जी की संपादन नीति ही थी जिससे उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। उनके अपने निश्चित मानदंड थे जिन पर वे कार्य करते थे। उन्होंने सम्पादकों एवं पत्रकारों को भी मानदंडों पर चलने को प्रेरित किया। ‘आत्मपरक’ में अज्ञेय नीतिविहीन कार्य को ही उन्होंने पत्रकारों एवं सम्पादकों की घटती प्रतिष्ठा का कारण बताया था। उन्होंने कहा कि-‘‘अप्रतिष्ठा का प्रमुख कारण यह है कि उनके पास मानदंड नहीं है। वहीं हरिशचन्द्रकालीन सम्पादक-पत्रकार या उतनी दूर ना भी जावें तो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का समकालीन भी हमसे अच्छा था। उसके पास मानदंड थे, नैतिक आधार थे और स्पष्ट नैतिक उद्देश्य भी। उनमें से कोई ऐसे भी थे जिनके विचारों को हम दकियानूसी कहते, तो भी उनका सम्मान करने को हम बाध्य होते थे। क्योंकि स्पष्ट नैतिक आधार पाकर वे उन पर अमल भी करते थे- वे चरित्रवान थे।’’

अज्ञेय जी का मानना था कि पत्रकार अथवा सम्पादक को केवल विचार क्षेत्र में ही बल्कि कर्म के नैतिक आधार के मामले में भी अग्रणी रहना चाहिए। भारतीय लोगों पर उन व्यक्तियों का प्रभाव अधिक पड़ा है जिन्होंने जैसा कहा वैसा ही किया। ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की परम्परा पर चलने वाले लोगों को भारत में अपेक्षाकृत कम ही सम्मान मिल पाया है। संपादकों एवं पत्रकारों से कर्म क्षेत्र में अग्रणी रहने का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा कि- ‘आज विचार क्षेत्र में हम अग्रगामी भी कहला लें, तो कर्म के नैतिक आधारों की अनुपस्थिति में निजी रूप से हम चरित्रहीन ही हैं और सम्मान के पात्र नहीं हैं।’

अज्ञेय पत्रकारिता को विश्वविद्यालय से भी महत्वपूर्ण और ज्ञानपरक मानते थे। इसका एक उदाहरण है जब योगराज थानी पीएचडी करने में लगे हुए थे, तब अज्ञेय जी ने उनसे कहा कि-‘पत्रकारिता का क्षेत्र विश्वविद्यालय के क्षेत्र से बड़ा है, आप पीएचडी का मोह त्यागिए और इसी क्षेत्र में आगे बढि़ए।’

पराधीन भारत में अखबारों की भूमिका महती रही है। लेकिन ऋषि परम्परा के सम्पादकों को यह भान हो गया था कि आने वाले समय में अखबारों की आत्मा मर जाएगी। हालांकि तब इन सम्पादकों को यह ज्ञात नहीं था कि भविष्य में पत्रकारिता का स्वरूप मीडिया हो जाएगा। यदि ऐसा होता तो पत्रकारिता के युग पुरुष पराडक़रजी ने अखबारों के बारे में जो लिखा है, वह तो सत्य है लेकिन मीडिया के बारे में वे और जाने क्या भविष्य बांचते। फिलहाल अखबारों के बारे में पराडक़रजी की टिप्पणी आज भी सामयिक है।

1925 में वृन्दावन में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने जो भविष्यवाणी की थी, वह आज प्रत्यक्ष हो रही है। पराडक़र जी ने कहा था कि ‘स्वाधीनता के बाद समाचार पत्रों में विज्ञापन एवं पूंजी का प्रभाव बढ़ेगा। सम्पादकों की स्वतंत्रता सीमित हो जाएगी और मालिकों का वर्चस्व बढ़ेगा। हिन्दी पत्रों में तो यह सर्वाधिक होगा। पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना धनिकों या संगठित व्यापारिक समूहों के लिए ही संभव होगा।

पत्र की विषय वस्तु की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था कि पत्र सर्वांग सुन्दर होंगे, आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता और कल्पनाशीलता होगी। गम्भीर गद्यांश की झलक और मनोहारिणी शक्ति भी होगी। ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब होगा; पर समाचार पत्र प्राणहीन होंगे। समाचार पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त या मानवता के उपासक महाप्राण सम्पादकों की नीति न होगी। इन गुणों से सम्पन्न लेखक विकृत मस्तिष्क के समझे जायेंगे। सम्पादक की कुर्सी तक उनकी पहुंच भी न होगी।

वे कहते थे कि पत्रकारिता के दो ही मुख्य धर्म हैं। एक तो समाज का चित्र खींचना और दूसरा लोक शिक्षण के द्वारा उसे सही दिशा दिखाना। पत्रकार लोग सदाचार को प्रेरित कर कुरीतियों को दबाने का प्रयत्न करें।

वर्तमान परिवेश में पराडक़र जी की बातें सौ फीसदी सच हो रही है। मीडिया पूंजीपतियों के हाथों में खेल रही है और आम आदमी स्वयं को ठगा सा महसूस कर रहा है। मीडिया पर नियंत्रण के लिए कोई निश्चित कानून नहीं होने के कारण अनेक बार मीडिया मनमानी करता है। स्व-नियंत्रण की बात अनेक बार आयी लेकिन नतीजा हमेशा सिफर रहा। हालांकि वर्तमान दौर पूरी तरह से इलेक्ट्रॉनिक एवं इंटरनेट का है और मीडिया उस पर आश्रित हो गया है। एआई और चैट जीपीटी जैसे प्रोग्राम के सहारे आधी-अधूरी जानकारी के साथ मीडिया आगे बढ़ रहा है।

(लेखक शोध पत्रिका समागम के संपादक हैं और वर्तमान में माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल में एडजंक्ट प्रोफेसर हैं)

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सम्पादक

डॉ. लीना