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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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विमल थोराट और दो दलित स्त्रियों का चिंतन

कैलाश दहिया/ 'दलित वैचारिकी और हाशिए का समाज' विषय पर प्रगतिशील लेखक संघ, उत्तर प्रदेश ने 11 जनवरी, 2021 को फेसबुक के माध्यम से एक परिचर्चा का आयोजन किया था। इस का संचालन आधे-अधूरे दलित आर.डी. आनंद ने किया। इस बातचीत में जो लोग शामिल हुए उन का दलित वैचारिकी से दूर-दूर तक किसी तरह का कोई संबंध नहीं है। हां, इस बातचीत में दलित साहित्य आंदोलन में अपराधिन घोषित हो चुकी विमल थोराट और अनिता भारती ने भी भाग लिया। विमल थोराट को तो मलाल ही है कि इसे दलित क्यों कहा जा रहा है! इस ने कहा, 'आर्थिक स्थिति बदलने के बाद भी अगर मैं विमल थोराट प्रोफेसर बनी, प्रोफेसर के पद से रिटायर हुई लेकिन मैं दलित हूं। ये मेरा जो दलित होना मुझ से नहीं छूटता है।'(१) अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि बातचीत किस विषय पर और कैसी रही होगी। इस बातचीत में सीधे मुद्दों पर आया जाए और विमल थोराट ने महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर के प्रति जो अभद्रता बरती है, उस पर बात की जाए। जहां तक वैचारिकी की बात है, उस में द्विजों-सवर्णों समेत कथित उदारवादी, मार्क्सवादी, जनवादी, प्रगतिशील वगैरह सभी पिट चुके हैं, तब पिछड़ों पर अलग से बात करने की जरूरत नहीं है।

यह अच्छी बात है कि प्रोफेसर पद से रिटायर हो चुकी विमल थोराट ने अपने कु-कृत्य की गवाही खुद ही दी है। इस ने बताया, 'हम दलित महिलाएं (रजनी तिलक, विमल थोराट और अनिता भारती) उस समय मंच पर चढ़कर बोल रही थी और बहुत ज्यादा हमारा स्वर बहुत कठोर हो गया था।'(२) असल में, थोराट अभी भी पूरा सच नहीं बता रही है। द्विजों की गुलाम इन तीनों जारकर्म समर्थक स्त्रियों को स्वर कठोर नहीं बल्कि अभद्र हो गया था। ये हाथों में चप्पले लहरा रही थीं और ऊंची आवाज में गालियां बक रही थीं। वरिष्ठ साहित्यकार सूरजपाल चौहान जी ने इस घटनाक्रम की जानकारी देते हुए बताया है, 'इसी दौरान मेरे देखने में आया था कि इस झुंड में आए कुछ गैर-दलित युवक उन महिलाओं को भड़काने में लगे हुए थे तो कुछ पैरों की ठोकरों से कुर्सियों को इधर से उधर करने में लगे हुए थे। उनमें से कई लोगों के मुंह से शराब की बू का तेज भभका भी आ रहा था। जूते-चप्पल चलवाने के बाद मैंने उस गैर-दलित  युवक को कहते हुए सुना भी- "चलो-चलो बस्स, अब बहुत हो गया।" ऐसा कहते हुए वह सभी दलित महिलाओं और झुंड के लोगों को हाॅल से बाहर ले गया था। उसके व्यवहार से साफ पता चल रहा था कि इस तरह का उपद्रव करवाना प्री- प्लांड था।'(३) यहां बताया जा सकता है कि इन का नेता डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी बना हुआ था। फिर जब नेता ऐसा हो तो उस के पिछलग्गू कैसे होते हैं किसी को बताने- समझाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।

हाथों में चप्पले लिए विमल थोराट और दोनों बहनें चिल्ला रही थीं। ऐसे लग रहा था, बुधिया के जारकर्म को पकड़े जाने से तीनों बौखला गईं थी। जबकि इन्हें तो किसी ने कुछ भी नहीं कहा था। बौखलाहट किसी अन्य बात की तरफ इशारा कर रही थी। वैसे, किसी कार्टूनिस्ट को इन तीनों का हाथों में चप्पल लिए रेखाचित्र खींचना चाहिए।

विमल थोराट हर मंच से एक ही बात दोहराते देखी गई है, यह कहती है, 'हमें वेश्या तक कहा गया, हमें रंडी तक कहा गया।(हंसते हुए)'(४) बताइए, कितनी चालाकी से बुधिया को बचाया जा रहा है! क्या थोराट को वेश्या और रंडी का अंतर नहीं पता? हद है यह तो। बुधिया को कौन वेश्या कहेगा? परिस्थिति और मजबूरीवश कोई स्त्री वेश्यावृत्ति के धंधे में धकेल दी जाती है। वेश्या पैसे के बदले अपना शरीर बेचती है। यहां तक कि कोई वेश्या भी वेश्या नहीं होना चाहती। वेश्या किसी की हत्या नहीं करती और ना ही किसी को आत्महत्या करने पर मजबूर करती। क्या इसे पता नहीं कि बुद्ध ने आम्रपाली और ऐसी ही अन्य  वेश्याओं को अपनी शरण में लिया है। बावजूद इस के वेश्यावृत्ति का समर्थन नहीं किया जा सकता। वेश्यावृत्ति किसी सभ्य समाज के पतन होने की निशानी है। ‌वैसे, इस की हंसी किसी अन्य बात की तरफ इशारा करती है।

अब इस के कहे 'रंडी' शब्द की बात करते हैं। बेशक यह साहित्यिक शब्द तो है नहीं। साहित्य की भाषा में इसे जारिणी कहा जाता है। जारिणी क्या होती है? जारिणी उस स्त्री को कहते हैं जो पत्नी तो किसी की होती है और बच्चे किसी और से पैदा करती है। इस से सेक्स करने वालों की गिनती करना मुश्किल है। यह पति की कमाई पर गुलछर्रे उड़ाती है। अगर पति इस के जारकर्म पर रोक लगाना चाहे तो यह अपने जारों से मिल कर उसे मरवा देती है। कोई-कोई तो इस बात से डर कर घर छोड़ जंगल का रास्ता पकड़ लेता है। जारिणी के इस गैर मर्द से सेक्स को ही जारकर्म कहते हैं। महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर ने बुधिया के जारकर्म को ही पकड़ा है। इसी से विमल थोराट, रजनी तिलक और अनिता भारती बौखला रहीं थी और हाथों में जूते-चप्पल लहराते हुए जोर-जोर से गालियां बक रहीं थी।

विमल थोराट का यह कहना कि 'फोन पर रात को बारह बजे, हमें फोन कर के हमें, रंडी कहा गया।'(५) यह अक्सर ऐसे बोलती पाई जाती है, लेकिन यह बताती नहीं कि किस ने इसे रंडी कहा। यह ऐसा बोलने वाले के नाम का खुलासा क्यों नहीं करती? झूठ बोल कर सहानुभूति तो मिलने से रही। तो, अगली बार यह उस व्यक्ति का नाम अवश्य बताए जिस ने इसे ऐसे अपशब्द कहे थे। वैसे, हम किसी को फोन पर या मुंह पर या पीठ पीछे भी रंडी कहने की भर्त्सना करते हैं। लेकिन गली-मोहल्ले की स्त्रियों की जुबान कोई कैसे पकड़ सकता है? वे इस शब्द का प्रयोग गाली के तौर पर करती देखी जाती हैं। हरियाणा में तो यहां तक कहा जाता है 'रांड कुंणबे न खा कै मानगी।'

एक बात और जो बताने लायक है, वेश्या और वेश्यावृत्ति जारकर्म की व्यवस्था वाले समाज में पैदा होती है। बिना तलाक की व्यवस्था में जारकर्म सुचारू रूप से चलता रहता है। ऐसे में वेश्यावृत्ति तो बहुत छोटी बात ठहरती है। फिर, जार को किसी के बलात्कार से कहां फर्क पड़ता है। वह तो यहां तक कह उठता है 'दुनिया की हर खूबसूरत लड़की चाहती है कि उस के साथ रेप हो।' (६) ऐसों के उदाहरण गिनाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।

असल में हुआ क्या है, हुआ यह है कि आज से डेढ़ दशक पहले 12 सितंबर, 2005 को महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर की पुस्तक 'प्रेमचंद- सामंत का मुंशी' का लोकार्पण कार्यक्रम था। पुस्तक में प्रतिस्थापित किया गया है कि बुधिया का बलात्कार हुआ था। जिस से उसे गर्भ ठहर गया था। वास्तव में बुधिया जारकर्म में थी। बलात्कार की बात कह कर डॉ. साहब उसे बचा ही रहे थे। डॉ. साहब ने सदियों से सात तालों में दबा दिए गए दलित की गुलामी के रहस्य को उजागर कर दिया था। यह गुलामी बलात्कार और जारकर्म के माध्यम से दलित पर थोप दी गई थी। इस से पहले डॉ. साहब ने 'हिंदू विवाह की तानाशाही' साथ ही 'थेरीगाथा की स्त्रियां और डॉ. अंबेडकर' में स्त्री के जारकर्म के साथ-साथ इस के निकम्मेपन को भी उजागर किया था। इसी से रमणिका गुप्ता, प्रभा खेतान और मैत्रेयी पुष्पा जैसी द्विज स्त्रियां बौखलाई हुईं थी। तब रमणिका गुप्ता ने षड्यंत्र रच के अपनी चाकर विमल थोराट, रजनी तिलक और इस की बहन अनिता भारती को लोकार्पण कार्यक्रम में बाधा पहुंचाने के लिए उकसाया था। इन का जूते- चप्पल लहराना इसी षडयंत्र का नतीजा था। इस घटनाक्रम में इन तीनों स्त्रियों और इन के जारकर्म के समर्थन का चेहरा खुल कर सामने आ गया था।

अच्छी बात है कि  विमल थोराट ने अपनी अभद्रता को स्वीकार कर लिया है। अपनी बदतमीजी को छुपाने के लिए इस जैसों ने ब्राह्मण के सीखाए में पितृसत्ता के विरोध को तोते की तरह रट रखा है। फिर, यह पितृसत्ता के अंदर पितृसत्ता और ना जाने कैसी-कैसी पितृसत्ता का रोना ले कर बैठ जाती है। जबकि पितृसत्ता का सीधा सा अर्थ होता है संतान औरस पैदा होनी है। पितृसत्ता के विरोध का अर्थ होता है जारकर्म का समर्थन।

ऐसा नहीं है कि इन तीनों अभद्र स्त्रियों ने जूते- चप्पल प्रकरण को पहली बार अंजाम दिया है। बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर को भी वेश्याओं ने ऐसे ही कोसा था। इन जैसी गुलाम स्त्रियों और इन के आकाओं के चलते ही कबीर साहेब को काशी छोड़ना पड़ा था। सद्गुरु रैदास के छाती चीरकर जनेऊ दिखाने का अर्थ किसी को समझाने की जरूरत नहीं है। उधर, प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन तो कह चुके हैं कि यह जूते- चप्पल बंदूक की गोली भी हो सकती थी।

यह परिचर्चा 'दलित वैचारिकी' को ले कर थी। यह अच्छी बात है कि इस वैचारिकी के केंद्र में महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर थे। यह सही भी है, क्योंकि दलित वैचारिकी का अर्थ 'धर्मवीर चिंतन' ही होता है। और, जब धर्मवीर चिंतन पर बात होगी, तो उस में सामंत का मुंशी, बुधिया और प्रेमचंद की नीली आंखें पर बात होगी ही होगी। इसी बात से यह और अनिता भारती  बौखला जाती हैं, क्योंकि तब इन तीनों के कु-कृत्य को ले कर बात होनी ही होनी है। इसीलिए, यह कह रही थी, 'किसी एक वैचारिकी को लेकर हम बात नहीं करें तो ज्यादा बेहतर है।'(७)  इस ने आगे कहा, 'कुछ चुनिंदा या अंबेडकरवादी वैचारिकी से हट चुके हैं और कब से उस खेमें में जाकर जो हमारा शत्रु खेमा है, उसमें जाकर उसकी वैचारिकी को आत्मसात करके लिख रहे हैं।'(८) यहां इस के स्वर में छुपी हुई धमकी को साफ देखा जा सकता है। यह दलितों के लिखने पर रोक लगाना चाहती है। इसे ही फासिज्म कहते हैं। अब दलितों को इस से पूछ कर लिखना पड़ेगा! दूसरे, यह कह रही है कि किसी एक वैचारिकी को लेकर हम बात नहीं करें। खुद इस का जोर अंबेडकर वैचारिकी पर है, दूसरों को शिक्षा दी जा रही है! क्या अंबेडकरवाद किसी एक वैचारिकी से अलग श्रेणी में आता है? यह जिस अंबेडकर वैचारिकी की बात कर रही है वह तो बुद्ध के कदमों में दम तोड़ देती है। जिसे यह चाहिए वह इसे ओढ़े, बिछाए और इसे आत्मसात कर के लिखे, किस ने रोका है?

फिर अंबेडकरवाद क्या है? यह एक व्यक्ति की जिद ही तो है, जो अपने दादा-नाना तक की नहीं सुनते। इधर, डॉ. धर्मवीर अपनी संपूर्ण वैचारिकी अपने पूर्वजों से लेते हैं। जो 'अवण्णवाद' के साथ बढ़ती है। इस में पुनर्जन्म का खंडन और संन्यास से इंकार है, तो जारकर्म पर तलाक का प्रावधान है। यही आजीवक चिंतन है। इस के केंद्र में महान मक्खलि गोसाल, सद्गुरु रैदास और कबीर साहेब की वैचारिकी है, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं। फिर, इस ऐतिहासिक परंपरा में स्वामी अछूतानंद, बाबा मंगूराम, अय्यनकली जैसे सैंकड़ों महापुरुषों के संघर्ष की गाथा छुपी हुई है। डॉ. धर्मवीर अपनी इस महान परंपरा को सूत्रबद्ध कर देते हैं। इसे पता नहीं क्यों आजीवक चिंतन व्यक्ति विशेष की वैचारिकी दिखाई दे रही है?

इस ने छुपे शब्दों में 'पुरुष वीर्य' की बात कह कर पितृसत्ता का रोना रोया है। जाना जाए, यह पुरुष वीर्य क्या है? पुरुष वीर्य वह है जिस से संतान पैदा होती है। संतान किस पुरुष के वीर्य से पैदा होती है? मानव सभ्यता के विकास में यह पुरुष वैवाहिक संबंधों में पति कहलाता है। जिस स्त्री से पुरुष का विवाह होता है वह उस की पत्नी कही जाती है। पति पत्नी के सम्मिलन से ही संतान पैदा होती है। यह पति ही अपनी संतान का पिता होता है, इसे ही पितृसत्ता कहते हैं। अब यह और ऐसी ही स्त्रियां पितृसत्ता को आए दिन कोसती पाई जाती हैं। ये स्त्रियां क्या कहना चाहती हैं? ये चाहती हैं विवाह किसी से और संतान किसी दूसरे के वीर्य से पैदा करें। इसे ही जारकर्म कहा जाता है। दलित चिंतन जो आजीवक चिंतन में बदल चुका है, इस में जारकर्म पर तलाक की बात कही जा रही है। ऐसा नहीं है कि यह कोई नई बात है। दलितों में जारकर्म पर तलाक पारंपरिक रूप से चला आ रहा है। इस पर बात ना कर के यह और बाकी दलित लेखिकाएं पितृसत्ता का रोना ले कर बैठ जाती हैं, ताकि असली बात छुपी रहे। आजीवक चिंतन में मूल सवाल ही यह है कि संतान किस से पैदा हुई है, पति से या जार से? जार से संतान पैदा की है तो जार- जारिणी उसे मिल कर पालें। इसी बात पर ये औरतें रोना मचा देती हैं। इस रोने  का अर्थ समझाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।

विमल थोराट कह रही है कि 'पितृसत्ता का ये जो मार है वह हमारे ऊपर हमेशा रहती है। चाहें आप कहीं पर भी जाइए, चाहे आप कितनी भी बड़ी पोजीशन में आइए या कितनी ही आर्थिक रूप से संपन्न हो जाइए।'(९) बताइए, बड़ी पोजीशन और आर्थिक रूप से संपन्नता को इस ने जारकर्म की स्वतंत्रता से जोड़ दिया है! इस ने अपने पांव पर खड़ी स्त्री को जारकर्म की समर्थक के रूप में खड़ा कर दिया है। क्या दलित स्त्री को ऐसी स्वतंत्रता चाहिए? किसी के प्रोफेसर होने या रिटायर प्रोफेसर होने का अर्थ जारकर्म की स्वतंत्रता पाना होता है? पता नहीं दलितों में ऐसी सोच की स्त्रियां कहां से पैदा हो जाती हैं?

दलितों की मानसिक स्थिति कैसी है, इस बात का अंदाजा एक नाममात्र के दलित लेखक के कमेंट से लगाया जा सकता है। व्हाट्सएप से मिले मैसेज में इन्होंने लिखा है, 'हां 5 सितंबर, 2005 (यह 12 सितंबर, 2005 है) की घटना निश्चित ही दलित साहित्य आंदोलन की शर्मनाक घटना थी। मैंने उसकी निंदा तब भी की थी आज भी करता हूं। लेकिन इतिहास के काले पन्नों को हमेशा साथ लेकर ढोया नहीं जा सकता।' बताइए बात इतिहास की कर रहे हैं और कह रहे हैं 'इतिहास के काले पन्नों को साथ लेकर ढोया नहीं जा सकता।' इतिहास की रत्ती भर भी समझ नहीं बातें, बात ऐसी बना रहे हैं ना जाने जैसे कितने बड़े इतिहासकार हों! अगर इतिहास के काले पन्नों को नहीं ढोया जा सकता, तो दलित दलित का रोना क्यों लगा रखा है? ऐसे ही दलित इतिहास में काला पन्ना बनी तारीख 14 अक्टूबर, 1956 के बौद्ध धर्मांतरण को क्यों ढोया जा रहा है? दलित इतिहास में यह तारीख दलितों में विभाजन के लिए याद रखी जानी है।

इधर, महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर की हत्या का षडयंत्र रचा गया। उन पर जूते-चप्पल चलाए गए, ये कह रहे हैं कि इतिहास के काले पन्नों को हमेशा साथ लेकर नहीं ढोया जा सकता। अगर ऐसी ही बात है तो विमल थोराट क्यों रुदाली कर रही है, 'हम दलित महिलाएं उस समय मंच पर चढ़कर बोल रही थी और बहुत ज्यादा हमारा स्वर बहुत कठोर हो गया था।'(१०) इन नाम भर के दलित लेखक को खबर रहनी चाहिए कि 12 सितंबर, 2005 की घटना दलित साहित्य आंदोलन का केंद्र बिंदु है। इसी से हो कर यह आंदोलन आगे बढ़ना है। फिर, इन का इतिहास इतना ही है कि ये अपनी आंखों के सामने घटी घटना की तारीख ही भूल गए हैं! इन्हें याद रखना चाहिए कि जूता-चप्पल कांड को 12 सितंबर, 2005 को अंजाम दिया गया था, ना कि 5 सितंबर 2005 को। बताइए, ये इतिहास की बात करने चले हैं, कहावतें यूं ही नहीं बनतीं, ऐसों के लिए ही कहा गया होगा 'बाप ने मारी मेंढकी बेटा तीरंदाज।'       

                         II

आजीवक चिंतन में बदल चुके दलित विमर्श ने वर्णवाद को ध्वस्त कर दिया है। विमल थोराट जैसे वर्णवादियों के गुलाम हमें वर्णवादी संगठनों की धमकी देते रहते हैं। इस में कंवल भारती का नाम सब से ऊपर है। एक बात और बताने लायक है, महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर के चिंतन से थोराट इतनी बुरी तरह भयभीत है कि इस के दिमाग से डॉ. साहब निकल ही नहीं रहे हैं। दूसरों को टोका जा रहा है कि 'प्रेमचंद को सामंतवादी और नीली आंखों वाला कहा... एक उदाहरण देकर पूरी वैचारिकी को या पूरे दलित साहित्य को चिह्नित नहीं करें कि दलित साहित्य कुछ नहीं कर रहा है।'(११) इसके बाद घूम फिर कर यह डॉ. साहब को कोसने बैठ जाती है। क्या करे, डॉ. धर्मवीर का विरोध किए बगैर इसे और इस जैसों को कोई पूछने वाला नहीं है। सो, इस की मजबूरी बन गई है डॉ. साहब को कोसना। इसे ही अभिशप्त होना कहते हैं।

अच्छी बात है कि इस ने और इस के खेमे ने हमें अपना शत्रु माना है। आजीवकों का जार और जारकर्मियों से छत्तीस का आंकड़ा है। हमें ये फूटी आंख भी नहीं सुहाते। इस की इस बात के लिए प्रशंसा करनी होगी कि इस ने समझ लिया है कि आजीवक डॉ. धर्मवीर को आत्मसात कर लिख रहे हैं। इस से हो क्या रहा है? हो यह रहा है कि इस से द्विज परंपरा का बौद्ध धर्म ध्वस्त हो रहा है, अंबेडकरवाद जिस का पिछलग्गू है।

इसी परिचर्चा में एक पिछड़ी जाति के लेखक ने कहा, 'हम प्रेमचंद को सामंत का मुंशी तो कहें, हम 'प्रेमचंद की नीली आंखें' किताब लिखें, लेकिन जो वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक रहे हैं साहित्य में, संस्कृति में उन पर कभी कोई सवाल ना करें।'(१२) बताइए, किस ने इन्हें ऐसा करने से रोका है? खुद कुछ करेंगे-धरेंगे नहीं, इन्हें सब कुछ पका-पकाया चाहिए! जब कबीर के माध्यम से द्विज और इन की वर्ण व्यवस्था को धूल में मिला दिया गया है, तब पिछड़ों में कबीर को हड़पने की होड़ मची हुई है। लेकिन, ये खुद कुछ नहीं करेंगे। हां, किए कराए को खराब जरूर कर देंगे। इसे हो गांव-देहात में मोटी बुद्धि कहते हैं। पिछड़े आखिर कब तक पिछड़े रहेंगे? हर काम दलित से करवाना इन की सामंती मानसिकता को ही दर्शाता है।

कुछ दोस्तों को मेरे इस लेख की भाषा शायद पसंद ना आए, लेकिन बताया जा सकता है कि थोराट और इस जैसों के प्रति ऐसी ही भाषा का प्रयोग किया जाना है। यह गालियां दें और हम सुनते रहें, क्या आप इसे सही कहेंगे? फिर इस ने तो हमें शत्रु घोषित कर ही दिया है, तो युद्ध में तो तलवार हाथ में रहती है, चाहे वह कलमरूपी ही क्यों ना हो। इस से कोई कैसे बच सकता है? यूं इस के लिए यह लोकोक्ति सटीक बैठती है 'मेंढकी को हुआ जुकाम', 'बोली मुझको ताप चाहिए।' वैसे पूछना यह भी है कि अंबेडकरवादियों और नवबौद्धों की भाषा बिगड़ी क्यों रहती है? वैसे तो हमें इस बात पर हैरानी नहीं है, क्योंकि, खुद बुद्ध ने महान मक्खलि गोसाल को मुंह भर-भर कर गालियां दी और कोसा है। इस से यही परंपरा बननी थी।

                             III

विमल थोराट के बहाने हम दलितों की आधी दुनिया के लेखन यानी दलित स्त्री लेखन को भी परख सकते हैं। वैसे तो जारिणी रमणिका गुप्ता के निधन पर कोलकाता से प्रकाशित 'सदीनामा' पत्रिका के मई 2019 अंक में मेरे लेख 'आपहुदरी और इसके अय्यार इतिहास के हवाले में' इन के चेहरे दिखाए जा चुके हैं। उधर 'हंस' पत्रिका के जनवरी 2021 अंक में एक तथाकथित दलित लेखक की 'संक्रमण' शीर्षक से कहानी छपी है। कहानी क्या है एक जारिणी और जार की मनोदशा का विवरण है। इस कहानी पर दो दलित लेखिकाओं ने अपनी टिप्पणी दी है, जो इन के दिलो-दिमाग को समझने में खासी मदद करती है। आगे बढ़ने से पहले बताया जाए, यह दलित स्त्रियां हैं डॉ. सुमित्रा महरोल और डॉ. कौशल पंवार। दोनों दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में पढ़ाती हैं।

डॉ. सुमित्रा महरोल ने बिल्कुल सही पूछा है कि भारतीय संस्कारों(?) पगी श्वेता तनिक सी जान पहचान के बाद खुद ही समर्पण के लिए इतनी लालायित क्यों हो जाती है... खुद ही आमंत्रण देती है और फिर मिलिंद की सच्चाई पता होने पर पशोपेश में पड़ जाती है..।'(१३) अब जब यह जान ही रही हैं तो बताती क्यों नहीं कि यह जारकर्म की कहानी है। कोई स्त्री श्वेता की जगह खुद को रख कर देखे, क्या वह ऐसे जारकर्म में गिर सकती है? तब किस बात के लिए जारकर्म से भरी कहानी लिखने वाले लेखक को बधाई दी जा रही है?

ये लिखती हैं कि 'स्त्री मुद्दों को भी कहानी में उठाया गया है।'(१४) पूछा जा सकता है कि इस कहानी में इन्हें क्या स्त्री मुद्दा दिखाई दिया है? क्या द्विज स्त्री का दलित पुरुष से जारकर्म स्त्री मुद्दा है? दलित विमर्श में तो बुधिया का जारकर्म स्त्री मुद्दा है, हो सकता है द्विज स्त्री भी ऐसा ही होना चाहती हो। हो गया स्त्री विमर्श! कहानी की नायिका को अपने जारकर्म से कुछ भी लेना-देना नहीं बल्कि जिस के साथ जारकर्म को अंजाम दिया गया उस से किए अपने जातिगत व्यवहार का पछतावा है। बुधिया के पास तो यह मौका भी नहीं है। अब महरोल क्या कहेंगी? फिर, जातिवादियों से जिस सम्मान की खोज की जा रही है उस के लिए विदेश ही नहीं बल्कि अगर द्विज स्त्री-पुरुष चांद पर यहां तक कि सौरमंडल के बाहर भी चले जाएं तो भी ये ऐसे ही रहेंगे। क्या इन्हें बताना पड़ेगा कि शिक्षा से  'संकीर्ण दायरों' से बाहर निकलने में मदद मिलती तो ब्राह्मण इस देश में सबसे अधिक शिक्षित रहा है, जबकि इस की संकीर्णता हजारों सालों से ऐसी ही मिलती है।

इस कहानी पर डॉ. कौशल पंवार की टिप्पणी पर क्या कहा जाए, इन्होंने लिखा है, 'मेरा व्यक्तिगत मत भी दूर कर दिया कि केवल अछूत स्त्री ही नहीं बल्कि दलित पुरुष भी जातिवाद के इसी दंश से गुजरता है।'(१५) बताइए, यह कॉलेज में लेक्चरर  हैं, फिर भी अपढ़ की तरह बातें कर रही हैं। इन से पूछा जाए, दलित स्त्री से कब छुआछूत बरती गई है? बल्कि, बलात्कार और जारकर्म द्वारा उसे गर्भा किया गया है। फिर जारकर्म में तो सभी की जात टूटी पड़ी है। क्या इन्होंने वरिष्ठ लेखक सूरजपाल चौहान जी की आत्मकथा नहीं पढ़ी,  जिस में  लेखक के चाचा के गांव की ठकुराइन से जार संबंध थे‌। अगर इन की मानें तो  इस कहानी की पात्रा श्वेता अगर कथित दलित जार नायक से अपने जार संबंधों पर चुप रहती, तो क्या छुआछूत समाप्त हो जाती? इन के हिसाब से यह संबंध प्रेमपूर्ण कहलाता! बताइए इन्होंने जारकर्म से लथपथ इस कहानी को 'दलित इतिहास में एक मील का पत्थर' (१६) घोषित कर दिया! ये जिसे प्रेम कह रही हैं, ऐसे प्रेम की शिकार कौन भली लड़की होना चाहेगी?

तो, इन दलित स्त्रियों के माध्यम से आधे दलित साहित्य आंदोलन की खबर हो जाती है‌। विगत में दलित आंदोलन को क्यों पिटा, इस के बारे में अच्छे से पता चल रहा है। विमल थोराट और ऐसी  तथाकथित दलित लेखिकाओं की सरदारनी जारिणी रमणिका गुप्ता रही है। रही सही कसर 'संक्रमण' जैसी कहानी लिखने वाले और इसे 'युग प्रवर्तक के रूप में देख' ने वालों ने पूरी कर रखी है। दलितों का तो भगवान ही मालिक है, यह गुलाम नहीं होंगे तो कौन होगा।                             ####

संदर्भ :

१,२,४,५,७,८,९,१०,११,१२. 'दलित वैचारिकी और हाशिए का समाज' विषय पर आयोजित परिचर्चा,‌ आर. डी. आनंद की 11जनवरी, 2021की फेसबुक वॉल पर।

३. समकालीन हिंदी दलित साहित्य : एक विचार- विमर्श, सूरजपाल चौहान, वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली- 110002, प्रथम संस्करण : 2017, पृष्ठ-42

६. राजेन्द्र यादव के चिंतन में बच्चे वगैरह, डॉ. धर्मवीर, बहुरि नहिं आवना, के-6, यमुना अपार्टमेंट, होली चौक, नई दिल्ली-110062,

पृष्ठ -3

१३,१४. सुमित्रा महरोल की दिनांक 16 जनवरी, 2021की फेसबुक पोस्ट।

१५,१६. कौशल पंवार की दिनांक 10 जनवरी, 2021की फेसबुक पोस्ट।

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना