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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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व्यापक... व्यापमं....!!

तारकेश कुमार ओझा /  व्यापमं....। पहली बार जब यह शब्द सुना तो न मुझे इसका मतलब समझ में  आया और न मैने इसकी कोई  जरूरत ही समझी। लेकिन मुझे यह अंदाजा बखूबी लग गया कि इसका ताल्लुक जरूर किसी व्यापक दायरे वाली चीज से होगा। मौत पर मौतें होती रही, लेकिन तब भी मैं उदासीन बना रहा। क्योंकि एक तो कुटिल और जटिल मसलों पर माथापच्ची करना  मुझे अच्छा नहीं लगता।दूसरे मेरा दिमाग एक दूसरे महासस्पेंस में उलझा हुआ था। जो जेल में बंद प्रवचन देने वाले एक बाबा से जुड़ा है। क्या आश्चर्य कि उनके मामलों से जु़ड़े गवाहों पर एक के बाद एक जानलेवा हमले बिल्कुल फिल्मी अंदाज में हो रहे हैं। हमले का शिकार हुए कई तो इस नश्वर संसार को अलविदा भी कह चुके हैं। लेकिन व्यापमं मामले पर मेरा माथा तब ठनका जब इस घोटाले का पता लगाने गए एक हमपेशा पत्रकार की बेहद रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई। कर्तव्य पालन के दौरान बदसलूकी , हाथापाई या मारपीट तो पत्रकारों के साथ आम बात है। लेकिन सच्चाई का पता लगाने की कोशिश में मौत ऐसी कि किसी को कुछ समझ में ही नहीं आए तो हैरानी स्वाभाविक ही है।  तभी पता लगा कि इस घोटाले के चलते अब तक 50 के करीब जानें जा चुकी है।

यही नहीं पत्रकार की मौत के बाद भी अकाल मौतों का सिलसिला लगातार जारी रहा। सचमुच देश में घोटालों की श्रंखला में यह बड़ा अजीब घोटाला है। यह तो वही बात हुई कि समुद्र के किनारे पड़े नमक के ढेलों में शर्त लगी कि समुद्र की गहराई इतनी है। किसी ने कहा इतनी तो किसी ने गहराई इससे अधिक बताई। आखिरकार एक - एक कर समुद्र के ढेले गहराई नापने समुद्र में कूदते गए। दूसरे ढेले बाहर उनका इंतजार करते रहे। लेकिन गहराई बताने वापस कौन लौटे। वैसे ही एक महाघोटाला ऐसा कि जो भी इसका रहस्य पता करने की कोशिश करे वह शर्तिया अकाल मृत्यु का शिकार बने। इससे पहले तो ऐसा बचपन की सस्पेंस फिल्मों में ही देखा था। फिल्म की शुरूआत एक बड़े रहस्य से। पूरी फिल्म में रहस्य का पता लगाने की माथापच्ची। लेकिन इस क्रम में एक - एक कर मौत। जो रहस्य का पता लगाने को जितनी बेताबी दिखाए। उसकी लाश उतनी ही जल्दी मिले। बहरहाल एेसी फिल्मों के अंत तक तो रहस्य का शर्तिया पता लग जाता था। लेकिन  व्यापमं का रहस्य ....।

सच पूछा जाए तो इस घोटाले के पीछे भी एक अनार - सौ बीमार वाली कहावत चरितार्थ होती है। या यूं कहें कि यह आंकड़ा लाखों पर जाकर टिकता है। नौकरी जिंदगी से भी मूल्यवान हो चुकी है... जॉब एट एनी कॉस्ट। किशोवावस्था तक पहुंचते ही नई पीढ़ी के लिए एक अदद नौकरी जरूरी हो जाती है। अब एक नौकरी के लिए हजार - लाख उमड़ेंगे तो व्यापमं जैसे घोटाले तो होंगे ही। हालांकि दो दशक पहले तक भी स्थिति इतनी विकट नहीं थी।यह शायद उस च र्चित कथन का असर था जिसके तहत नौकरी को हीन और खेती को श्रेष्ठ करार दिया जाता था। मुट्ठी भर पढ़े लिखे लोग ही नौकरी पाने या लेने - देने के खेल को जानते - समझते थे। साधारण लोग दुनिया में आए हैं तो जीना ही पड़ेगा... जीवन है अगर जहर ... तो पीना ही पड़ेगा ... वाली  अपनी नियति को बखूबी समझते थे। बछड़े से बैल बने नहीं कि  निकले पड़े खेत जोतने।  खेलने - खाने की उम्र में शादी और बाल - बच्चों की त्रासदी झेलने वालों में यह कलमघसीट भी शामिल है। लेकिन विकट परिस्थितियों में भी तय कर लिया कि न तो कभी अपना शहर छोड़ेंगे न अपनों को। देर - सबेर मिनिमम रिक्वायरमेंट पूरा करने का रास्ता भी निकाल ही लिया। लेकिन आज की पीढ़ी इसे लेकर भारी दबाव में है। जैसे मध्य प्रदेश की मौजूदा सरकार। वहां के मुख्यमंत्री ने ठीक ही फरमाया है कि नौकरी लेने - देने में विरोधी या दूसरे दल वाले भी कहां किसी से कम है। बचपन में हमने एक ऐसे चेन स्मोकर मंत्री के बारे में सुना था जो सिगरेट के गत्ते पर लिख कर लड़कों को नौकरी देते थे । उनकी असीम कृपा से नौकरी पाने वाले कितने ही आज सेवा के अनेक साल गुजार चुके हैं। इसलिए अभी तो हमें व्यापमं की व्यापकता उजागर होने का इंतजार करना ही पड़ेगा। 

लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं

तारकेश कुमार ओझा, भगवानपुर, जनता विद्यालय के पास वार्ड नंबरः09 (नया) खड़गपुर ( प शिचम बंगाल) पिन ः721301 जिला प शिचम मेदिनीपुर संपर्कः 09434453934 
, 9635221463

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सम्पादक

डॉ. लीना