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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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बुढ़ौती में तीरथ...

काश पुरस्कार तब मिलता जब वे इसकी महत्ता को महसूस कर पाने में सक्षम होते

तारकेश कुमार ओझा/ कहते हैं कि अंग्रेजों ने जब रेलवे लाइनें बिछा कर उस पर ट्रेनें चलाई तो देश के लोग उसमें चढ़ने से यह सोच कर डरते थे कि मशीनी चीज का क्या भरोसा, कुछ दूर चले और  भहरा कर गिर पड़े। मेरे गांव में एेसे कई बुजुर्ग थे जिनके बारे में कहा जाता था कि उन्होंने जीवन में कभी ट्रेन में पैर नहीं रखा। नाती - पोते उन्हें यह कर चिढ़ाते थे कि फलां के यहां शादी पड़ी है। इस बार तो आपको ट्रेन में बैठना ही पड़ेगा। इस पर बेचारे बुजुर्ग रोने लगते। दलीलें देते कि अब तक यह गांव - कस्बा ही हमारी दुनिया थी... अब बुढ़ापे में यह फजीहत क्यों करा रहे हो...।  हां यह और बात है कि उन बुजुर्गों का जब संसार को अलविदा कहने का समय आया तो उनकी संतानों ने किसी तरह लाद - फांद कर उन्हें कुछेक तीर्थ करा देने की भरसक कोशिश की। अपने देश की प्रतिभाओं का भी यही हाल है।

राजनीति, क्रिकेट और फिल्म जगत को छोड़ दें तो दूसरे क्षेत्रों की असाधारण प्रतिभाएं इसी बुढ़ौती में तीरथ करने की विडंबना से ग्रस्त नजर आती है। बेचारे की जब तक हुनर सिर पर लेकर चलने की कुवत होती है, कोई पूछता नहीं। यहां तक कि कदम - कदम पर फजीहत और जिल्लतें झेलनी पड़ती है। लेकिन जब पता चले कि बेचारा काफी बुरी हालत में है... व्हील चेयर तक पहुंच चुका है या आइसीयू में भर्ती है और दुनिया से बस जाने ही  वाला है तो तुरत - फुरत में कुछ सम्मान वगैरह पकड़ा देने की समाज - सरकार में होड़ मच जाती है। राष्ट्रीय स्तर पर किसी बड़े पुरस्कार की घोषणा होते ही नजर के सामने आता है ... एक बेहद  निस्तेज थका हुआ चेहरा...। सहज ही मन में सवाल उठता है ... यह पहले क्यों नहीं हुआ। क्या अच्छा नहीं होता यह पुरस्कार उन्हें तब मिलता जब तक वे इसकी महत्ता को समझ - महसूस कर पाने में सक्षम थे। एक प्रख्यात गायक की जीवन संध्या में बैंक बैलेंस को लेकर अपने भतीजे के साथ विवाद हुआ। मामला अदालत तक गया। मसले का हल निकालने के लिए उस गायक ने किस - किस के पास मिन्नतें नहीं की। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। हां यह और बात है कि दिल पर भारी बोझ लिए उस शख्सियत ने जब दुनिया को अलविदा कहा तो उनकी शवयात्रा को शानदार बनाने में समाज ने कोई कसर बाकी नहीं रहने दी। एक और मुर्धन्य गायक को जब जीवन संध्या पर सरकार द्वारा पुरस्कार की घोषणा का पता चला तो वे बेहद उदास हो गए और हताशा में कहने लगे... क्यों करती है सरकार यह सब...मेरी दो तिहाई जिंदगी तो दो पैसे कमाने की कोशिश में बीत गई... अब इन पुरस्कारों का क्या मतलब। बुढ़ौती में तीरथ की विडंबना सिर्फ उच्च स्तर की प्रतिभाओं के मामले में ही नहीं है। छोटे शहरों या कस्बों में भी देखा जाता है कि आजीवन कड़ा संघर्ष करने वाली  प्रतिभाएं सामान्यतः उपेक्षित ही रहती है। समाज उनकी सुध तभी लेता है जब वे अंतिम पड़ाव पर होती है। वह भी तब जब उनकी सुध लेने या सहायता की कहीं से पहल हो। मदद का हाथ बढ़ाने  वालों को लगे कि इसमें उनका फायदा है। अन्यथा असंख्य समर्पित प्रतिभाओं को तो जीवन - संघ्या पर भी वह उचित सम्मान नहीं मिल पाता, जिसके वे हकदार होते हैं। 

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सम्पादक

डॉ. लीना