अमलेंदु कुमार अस्थाना //
हम नहीं लौट पाते,
जैसे शाम ढले पंछी लौटते हैं घोंसलों में,
अंधेरी रात जब दौड़ती है मुंह उठाए हमारी ओर
उनींदे से हम भागते हैं घर की ओर
और अंधेरा निगल लेता हमारी पलकों को झपकने से पहले
मटकती हुई रात, मचलते हुए ख्वाब निकल जाते हैं छूकर हमें और
सुबह जब हम अंधेरे की आगोश में होते हैं
अंजुरी भर प्रकाश पुंज लौट जाता है
हमारी चौखट से हमें दस्तक देकर।।
(अमलेंदु जी के फेसबुक वाल से साभार )