कैलाश दहिया/ दलित इतिहास में धर्मांतरण एक बड़ी घटना के रूप में दर्ज है। दिनांक 14 अक्टूबर, 1956 के दिन बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर अपने हजारों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म में धर्मांतरित हो गए थे, जिन में अधिकांश महार जाति के लोग ही थे। तभी से नवबौद्धों में यह दिन विशेष महत्व का हो गया है, लेकिन दलित इतिहास से यह दिन दलितों में विभाजन के रूप में याद रखा जाना है।
ऐसा नहीं है कि दलितों में यह धर्मांतरण पहली बार हुआ हो। इस से पहले तेरहवीं शताब्दी के आसपास कबीर साहेब के दादा या पडदादा ने इस्लाम में धर्मांतरण किया था। जिसे आगे चलकर कबीर साहेब ने सख्ती से ठुकरा दिया, और 'ना हिंदू ना मुसलमान' की गर्जना की। बावजूद इस के दलितों में विभाजन तो हो ही गया था। तब दलितों को अछूत कहा जाता था जो बीसवीं शताब्दी की शुरुआत तक कहा जा रहा था। बाद में हमारे जागरूक लोग दलित शब्द तक ही पहुंच पाए। बेशक आज दलित शब्द ताकत और एकजुटता का पर्यायवाची बन गया है, लेकिन अपने आप में यह हीनता को ही दर्शाने वाली पहचान है। इसी हीनता से बचने और पहचान के लिए बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर और कबीर साहेब के पूर्वज धर्मांतरण करते हैं। यूं देखा जाए, तो कबीर साहेब के दादा- पडदादा और बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर का चिंतन समान स्तर पर चल रहा था। तब कबीर साहेब की हुंकार का कुछ अर्थ होता है। ऐसे में महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर के चिंतन के बारे में आप सहज अंदाजा लगा सकते हैं।
चूंकि, कबीर साहेब के पूर्वजों द्वारा धर्मांतरण का कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है, बावजूद उस के कबीर अपने घर, परिवार, कुटुंब और अछूतों के धर्मांतरण के नतीजों को देख-समझ रहे थे। उन के रिश्ते-नाते अभी भी अछूतों से थे, और जो अछूतों से ही होने थे। यह जाति के रूप में नस्ल की एकरूपता का मामला बनता है। कोई मुगल-पठान तो उन का रिश्तेदार हो नहीं सकता था। इसी सच को नंगी आंखों से देखते हुए वे अपनी मूल पहचान के लिए जूझ रहे थे। इधर बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर इस बात को जानते थे। वे एक तरफ तो दलितों के लिए लड़ रहे थे, दूसरी तरफ अपने लेखन में दलितों को बौद्ध सिद्ध करने में जी-जान से जुटे थे। ध्यान रहे, महारों से एक अंतरंग मीटिंग में डॉ. अंबेडकर ने बीसवीं सवीं सदी के तीसरे दशक की शुरुआत में अपने बौद्ध होने का निर्णय सुना दिया था। यह वह समय था जब आदि हिंदू, आद धर्म, आदि द्रविड़, आदि मलयालम जैसी पहचानों के साथ दलित आंदोलन चरमोत्कर्ष था। जिस से वर्णवादी बुरी तरह थर्रा रहे थे।
धर्मांतरण का अर्थ होता है अपनी विचारधारा या विचार- प्रक्रिया से अलग हो जाना। इस अर्थ में दलित ने कभी भी वर्ण और इस से जुड़ी व्यवस्था को नहीं माना, बल्कि वह इस व्यवस्था के खिलाफ लड़ता रहा है। इस लड़ाई के अपने हथियार हैं, जो धर्मांतरण के साथ बेकार हो जाते हैं। धर्मांतरण का एक अर्थ यह भी होता है कि आप का कोई धर्म है और आप उसे छोड़कर दूसरे धर्म में जा रहे हैं। यह सच है कि दलितों का कोई पुराना धर्म अवश्य रहा है जिसे वे बिसरा बैठे थे। इस अर्थ में बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर को उस पुराने धर्म की खोज करनी चाहिए थी। लेकिन, वे उसे खोजने की बजाय अपने हिसाब से दलितों को बौद्ध बता कर धर्मांतरण कर रहे हैं! जिस के नतीजे खराब ही होने थे। दलितों का अपना पुराना धर्म होने का अर्थ है कि इन की अपनी मान्यताएं, परंपरा, रीति-रिवाज और चिंतन रहा है, जिसे ये समझ नहीं पा रहे थे। एक धर्म से दूसरे धर्म में धर्मांतरण का अर्थ है अपनी मान्यताओं' परंपराओं आदि को नष्ट करना और वैसा होने की कोशिश करना जैसा आप होते नहीं हैं। इस से किसी के भी जीवन में विकृति ही पैदा होनी है।
धर्मांतरण का अर्थ है अपनी पहचान खो देना और अपनी जड़ों से कट जाना। अब नवबौद्धों को ही देख लीजिए, यह कहते हैं इन का इतिहास डॉ. भीमराव अंबेडकर से शुरू होता है। कोई इन से पूछे, बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर कैसे पैदा हो गए? लेकिन, ऐसा मानने में ये भी गलत नहीं हैं क्योंकि डॉ. अम्बेडकर से पहले नवबौद्ध ढूंढें से भी नहीं मिलते। नवबौद्धों से जब पूछा जाता है कि डॉ. अंबेडकर के माता-पिता और दादा-नाना कौन थे और क्या वे बुद्ध और उनकी परंपरा को मानते थे? तब इस बात पर वे चुप्पी साध जाते हैं। अब इस सवाल से बचने के लिए ये सद्गुरु रैदास और कबीर साहेब को बुद्ध की परंपरा का सिद्ध करने की फेर में प्रक्षिप्त गढ़ने में लग चुके हैं। इन्हें एक काम दिया जा सकता है, ये जोतिबा फुले को बोधिसत्व बना लें, जो विधवा ब्राह्मणियों के लिए स्कूल खोल रहे थे और उन के नवजातों का पालन पोषण करने की कह रहे थे।
यूं, धर्मांतरण से नकारात्मकता पैदा हो जाती है। चूंकि आप वह तो होते नहीं जो धर्मांतरण से बनने की कोशिश करते हैं। फिर आप धर्मांतरण से जुड़ी हर बात को सही ठहराने की जिद तक उतर आते हैं। यह एक सामान्य नियम है। इस प्रवृत्ति को आप किसी भी धर्मांतरित व्यक्ति में आसानी से देख सकते हैं। इस चक्कर में ये नकारात्मकता से भर जाते हैं। देखा जाए तो, धर्मांतरण का अर्थ दूसरे के घर को अपना घर कहना है। कोई किरायेदार किसी के घर को अपना कैसा कह सकता है? एक प्रचलित कहावत है कि दूसरे के महल से अपनी झोपड़ी भली।
असल में, धर्मांतरण दबाव बनाने की प्रक्रिया है। गुलाम अपने मालिक से कहता है कि आप मेरी नहीं सुन रहे, इसलिए मैं धर्मांतरण कर लूंगा। इस का अर्थ होता है कि आप के खेत में काम न कर के पड़ोसी के खेत में काम करूंगा। करनी वहां भी गुलामी ही है। धर्मांतरण से अगर किसी की गुलामी कटती होती तो यह समस्या का सब से आसान तरीका होता। दुनिया में इतने धर्म नहीं खड़े होते। इसलिए धर्मांतरण का मतलब पीठ दिखाना भी होता है।
धर्मांतरण पहचान बनाने के उद्देश्य से किया जाता है, लेकिन होता इस का उल्टा है। पहचान बनने की बजाए पहचान ही खो जाती है। व्यक्ति अपनी जड़ों से कट जाता है। अगर बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर की जीवनी लुप्त हो जाए, तो पता भी नहीं चलेगा कि वे दलित थे। नवबौद्ध के रूप में ढूंढते रहिए उन का इतिहास। धर्मांतरित व्यक्ति धर्मांतरण को सही सिद्ध करने के लिए पूरी जान लगा देता है। अब नवबौद्धों को ही देख लीजिए, खुद को बुद्ध की क्षत्रिय परंपरा का सिद्ध करने के लिए ये कितने प्रक्षिप्त गढ़ने में लगे रहते हैं। पूछना यह भी है कि धर्मांतरण से क्या कोई ब्राह्मण बन सकता है? अगर नहीं, तो समझ जाइए धर्मांतरण असंभव अवधारणा है। इसी लिए दलित जिस भी धर्म में धर्मांतरण करता है वहां पहचान लिया जाता है, उस धर्म में इस की पहचान पराए व्यक्ति की ही होती है। वहां उसे तुरंत नया नाम मिल जाता है, जिस का अर्थ होता है दलित।
असल में, धर्मांतरण दलितों में विभाजन को बढ़ाने की प्रक्रिया है। यह जातियों के नाम पर पहले से ही बंटे दलितों में गहरी खाई पैदा कर देता है। धर्मांतरित होने वाले एक संप्रदाय या कल्ट के रूप में अपने ही लोगों से खुद को अलग कर लेते हैं। दरअसल धर्मांतरण एक अलग समाज बनाने की प्रक्रिया है। धर्मांतरित लोग अपने ही बहुसंख्यक लोगों से कटकर एक छोटा सा समाज बना लेते हैं और एक समय के बाद वे अपनी बहुसंख्या से पूरी तरह से कट जाते हैं। धर्मांतरण के रूप में दलितों में आपस में विवाह आदि के संबंध बंद हो जाते हैं। कुछ ही समय में दोनों का आप से संवाद भी खत्म हो जाता है। एक तरह से दलितों में यह विभाजन की खाई को बढ़ाता चला जाता है।
दलित धर्मांतरण से बचें। इस से आप भीतर तक टूट जाते हैं। आप अपनी चिंतन परंपरा से ही नहीं कटते बल्कि अपने पूर्वजों से भी कट जाते हैं। आप नवबौद्धों को ही देख लीजिए इन की क्या दशा हो गई है। डॉ. अंबेडकर और बुद्ध के बीच का सारा दलित इतिहास ही गायब हो गया है। आज नवबौद्ध इस तिकड़म में लगे हैं कि कैसे सद्गुरु रैदास और कबीर साहेब को बुद्ध का अनुयाई सिद्ध किया जाए। औरों की छोड़िए, खुद जोतिबा फुले तक इस में गायब हो जाते हैं। युद्ध मैदान में डटे रह कर लड़ा जाता है। धर्मांतरण का अर्थ है इतिहास और युद्ध से पीठ दिखाना।
एक अन्य महत्वपूर्ण बात जो बताई जा सकती है, वह यह कि धर्मांतरित व्यक्ति जिस धर्म में धर्मांतरण करता है वह उस धर्म के संस्थापक से छोटा ही रहना है। नवबौद्ध बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर को बोधिसत्व कहते देखे जा सकते हैं, जिस का मतलब होता है बुद्ध होने की प्रक्रिया, और बुद्ध कोई हो नहीं सकता। इस अर्थ में बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर बुद्ध से छोटे ही रहने हैं। नवबौद्धों को कोई भी 'नमो बुद्धाय' कहते देख-सुन सकता। ऐसे ही ये नवबौद्ध बुद्ध विहार बनाते हैं अंबेडकर विहार नहीं। बताइए, पैसा दलितों का मूर्ति बुद्ध की! क्या यह बेइमानी नहीं है? इधर, दलित परंपरा अर्थात आजीवक धर्म में कोई भी आजीवक अपने महापुरुषों की राह पर चल कर कबीर हो सकता है। अब डॉ. धर्मवीर को आज का कबीर ही तो कहा जा रहा है, बल्कि वे कबीर से भी आगे बढ़े दिखाई देते हैं। यह अपनी परंपरा की ताकत होती है।
दलित इसी लिए दलित हैं, क्योंकि ये धर्महीन हैं। पहचान धर्म से होती है। दलित आंदोलन का अर्थ ही है अपनी पहचान को पाना। इसी पहचान के लिए ही बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर बुद्ध के पास गए हैं। लेकिन, पहचान परंपरा और चिंतन में से आती है। फिर, परंपरा, रीति-रिवाज और मान्यताओं से ही पर्सनल कानूनों का उदय होता है। जिस पर किसी कौम का जीवन आधारित होता है। यह परंपरा, रीति-रिवाज और चिंतन ही धर्म में बदलते हैं। इसी परंपरा और चिंतन की कसौटी पर ही दलित आंदोलन को कसा जाना है। अब दलित परंपरा अर्थात आजीवक परंपरा में जारकर्म पर तलाक का प्रावधान रहा है। धर्मांतरण से दलितों का यह अधिकार खो गया। इस से दलित कहीं के नहीं रहे। अब ये क्या करें?
यूं, धर्मांतरण एक ऐसा प्रयोग था जो पहले भी किया गया था और जो पहले दिन से ही फेल था। हम देखते हैं कि धर्मांतरण के रूप मे दलित जीती हुई बाजी हार बैठे। धर्मांतरण पराजय की पराकाष्ठा के रूप में हमारे सामने है ही। बेशक धर्मांतरण का प्रयोग पहले दिन से ही फेल था, लेकिन बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर अगर कुछ समय और जीवित रहते तो अपने धर्मांतरण को रिजेक्ट कर देते और पुनः अपनी महान मोरल की दलित यानी आजीवक परंपरा में वापिस लौट आते। कबीर साहेब के महावाक्य 'अवधू भूले को घर लावे' का अर्थ भी यही होता है।