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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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आर्ट आफ टार्चिंग!

मीडिया के कलाकार हैं माहिर  

तारकेश कुमार ओझा/ बाजारवाद के मौजूदा दौर में आए तो मानसिक अत्याचार अथवा उत्पीड़न यानी टार्चिंग या फिर थोड़े ठेठ अंदाज में कहें तो किसी का खून पीना... भी एक कला का रूप ले चुकी है। आम - दमी के जीवन में इस कला में पारंगत कलाकार कदम - कदम पर खड़े नजर आते हैं। 

एक आम भारतीय की मजबूरी के तहत कस्बे से महानगर जाने के लिए मैं घर से निकलने की तैयारी में था। चाय पीते हुए आदतन मेरी नजरें टेलीविजन पर टिकी हुई थी। सोचा जमाने के लिहाज से हमेशा अपडेट रहना चाहिए। 

एक चैनल पर खबर चल रही थी... आइपीएल के लिए फलां क्रिकेटर इतने करोड़ में बिका...। चैनल पर हुंकार भरते उस खिलाड़ी की तस्वीर के पार्श्व में परिजनों का इंटरव्यू दिखाया जा रहा था। भावुक होते हुए परिजन कह रहे थे... हमें उम्मीद थी.. एक

दिन उसकी इतनी बोली जरूर लगेगी... इतने करोड़ की कीमत पर वह नीलाम होगा...।  

मैने मुंह बिचकाते हुए चैनल बदल दिया। 

दूसरे चैनल पर खबर चल रही थी ... बालीवुड का फलां शहंशाह मुंबई के समुद्री तट के किनारे इतने सौ करोड़ का नया बंगला बनवा रहा हैं। यह भी बताया जाता रहा कि जनाब के मुंबई में ही 8 और शानदार बंगले हैं। दुनिया के कई देशों में शहंशाह ने फ्लैट खरीद रखे हैं। 

मुझे लगा जैसे स्टायर लगा कर किसी ने मेरे शरीर से थोड़ा सा खून पी लिया। 

टेलीविजन बंद कर मै बड़े शहर की ओर निकल पड़ा। 

ट्रेन में बैठने से पहले  समय काटने की मजबूरी के चलते मैने अखबार खरीदा। अखबार खोलते ही नजरें रंगीन पन्नों पर टिक गई। मैं भीषण गर्मी से बेहाल हो रहा था। उधर पन्नों पर समुद्री लहरों के पास एक अभिनेत्री बिकनी पहने हुए दौड़ लगा रही थी। मुझे फिर मानसिक अत्याचार का अहसास हुआ। बेचैनी में पन्ने पलटते ही नजरें एक और ेसी ही खबर पर टिक गई। जिस पर लिखा था कि पेज थ्री कल्चर वाले एक प्रसिद्ध शख्सियत ने अपनी पांचवी पत्नी को तलाक दे दिया। खबर के साथ दोनों की मुस्कुराती हुई फोटो भी छपी थी। साथ में यह भी लिखा मिला कि दोनों ने यह फैसला आपसी सहमति से किया लेकिन दोनों आगे भी अच्छे दोस्त बने रहेंगे। 

मुझे फिर खून पीए जाने का अहसास हुआ। लगा जिंदगी की जद्दोजहद में जुटे लोगों तक सी खबरें पहुंचाने वाले जरूर आर्ट आफ टार्चिंग यानी खून पीने की कला में पीएचडी कर चुके होंगे। जो पहले से हैरान - परेशान लोगों के कुढ़ने का बंदोबस्त कर रहे हैं। 

कुछ दूर चल कर ट्रेन अचानक रुक गई। पता चला राजनैतिक विरोध - प्रदर्शन के तहत चक्का जाम किया जा रहा है। प्यास से व्याकुल हो कर पानी की तलाश में मैं प्लेटफार्म पर इधर - उधर भटकने लगा। लेकिन ज्यादातर नल सूखे पड़े थे। कुछेक से पानी निकला भी तो चाय की तरह गर्म। कुढ़ते हुए मैं मन ही मन व्यवस्था को अभी कोस ही रहा था कि सामने लगे होर्डिंग्स पर नजरें टिक गई। जिसमें समुद्र की उत्ताल तरंगों से कुछ युवक - युवतियां अठखेलियां कर रहे थे। विज्ञापन के बीच शीतल पेय से निकलने वाला झाग उसी समुद्र के जल में मिल रहा था। 

मुझे एक बार फिर मानसिक अत्याचार का बोध हुआ।                          

किसी तरह गंतव्य पर पहुंचा तो ट्रेन से उतर कर बस में चढ़ने की मजबूरी सामने थी। 

जैसा कि सभी जानते हैं कि महानगरों की बसें नर्क से कुछ कम अनुभव नहीं कराती। ठसाठस भरी बसों में यात्री बूचड़खाने के मवेशी की तरह ठूंसे हुए थे। रेल सिग्नल पर जब बस रुकती तो इधर के यात्री उधर और उधर के यात्री इधर होते हुए ... उफ्फ , आह आदि के साथ  अरे यार... आदमी हो या ... अरे भाई साहब जरा देखा कीजिए... जैसे वाक्य दोहराते हुए एक - दूसरे पर गिर - पड़ रहे थे। रेड सिग्नल पर बस के रुकने पर अगल - बगल से गुजरती बेशकीमती चमचमाती - कारें हमें अपने फटीचरपन और जीवन की व्यर्थता  का लगातार अहसास कराती जा रही थी।  

उधर बस से उतरते ही बड़े - बड़े होर्डिंग्स फिर मुंह चिढ़ाने लगे। जिस पर एक से बढ़ एक महंगी कारों की तस्वीरों  के पास किसी पर अभिनेता - अभिनेत्री तो किसी पर नामी - गिरामी क्रिकेट खिलाड़ी खड़े  मुस्कुरा रहे थे। सभी का साफ संदेश था... बेहद आसान किश्तों पर अब ले ही लीजिए... वगैरह - वगैरह। 

ेसे आक्रामक प्रचार से मेरा कुछ और खून सूख चुका था। 

जीवन की दुश्वारियों की सोचते हुए मैं नून - तेल की चिंता में मगन था। लेकिन खून पीने वाली अदृश्य शक्तियां लगातार सक्रिय थी।  सड़क के दोनों तरफ लगे कुछ होर्डिंग्स मनोरम और रमणीय स्थलों पर आकर्षक फ्लैट के चित्रों को रॆखांकित करते हुए उन्हें खरीदने की अपील कर रहे थे। 

 

मुझे फिर मानसिक अत्याचार का भान हुआ। लगा आर्ट आफ टार्चिंग के कलाकार वापस घर पहुंचते - पहुंचते मेरे शरीर का सारा खून पीकर ही दम लेंगे।

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सम्पादक

डॉ. लीना