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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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भीड़ में अकेले पुष्पेंद्र

मनोज कुमार/ कोई कहे पीपी सर, कोई कहे बाबा और जाने कितनों के लिए थे पीपी. एक व्यक्ति, अनेक संबोधन और सभी संबोधनों में प्यार और विश्वास. विद्यार्थियों के लिए वे संजीवनी थे तो मीडिया के वरिष्ठ और कनिष्ठ के लिए चलता-फिरता पीआर स्कूल. पहली बार जब उनसे 25 बरस पहले पहली बार पुष्पेन्द्रपाल सिंह उर्फ पीपी सिंह से मुलाकात हुई तो उनकी मेज पर कागज का ढेर था. यह सिलसिला मध्यप्रदेश माध्यम में आने के बाद भी बना रहा. अफसरों की तरह कभी मेज पर ना तो माखनलाल में बैठे और ना ही माध्यम में. हमेशा कागज के ढेर से घिरे रहे। बेतरतीब कागज के बीच रोज कोई ना कोई इस उम्मीद में अपना लिखा, छपा उन्हें देने आ जाता कि वे एक नजर देख लेंगे तो उनके काम को मुहर लग जाएगी. यह विश्वास एक रात में उन्होंने अर्जित नहीं किया था. इसके लिए उन्होंने खुद को सौंप दिया था समाज के हाथों में. आखिरी धडक़न तक पीपी शायद एकदम तन्हा रहे। कहने को तो उनके शार्गिदों और चाहने वालों की लम्बी फेहरिस्त थी लेकिन वे भीतर से एकदम अकेले थे। तिस पर मिजाज यह कि कभी अपने दर्द को चेहरे पर नहीं आने दिया. ऐसे बहुतेरे लोग थे जो अपने बच्चों के भविष्य के लिए, कहीं नौकरी की चाहत मेें तो कहीं एडमिशन के लिए उनके पास आते-जाते रहे हैं लेकिन खुद पीपी ने कभी अपने बच्चों का जिक्र किसी से नहीं किया. लोगों को भी पीपी से ही मतलब था. शायद यही कारण है कि पीपी के जाने की खबर आग की तरह फैली तो लोगों को यह पता ही नहीं था कि उनके परिवार में कौन-कौन हैं? पीपी की पूरी दुनिया उन्हीं के इर्द-गिर्द थी. 2023 में जब पीपी ने अंतिम सांसें ली तब योग-संयोग देखिये कि यह वही तारीख थी जब उनकी जीवनसंगिनी उनका साथ छोड़ गयी थीं. भारतीय संस्कृति और परम्परा में विवाह को सात जन्मों का बंधन कहते हैं और यह योग-संयोग इस बात की पुष्टि करता है.

पचास पार पुष्पेन्द्रपाल सिंह उर्फ पीपी सिंह से मेरी मुलाकात को 25 वर्ष से अधिक हो गए. तब माखनलाल पत्रकारिता संस्थान का कैम्पस सात नंबर पर लगता था. ठहाके के साथ हर बार मिलना और इससे भी बड़ी बात कि खुले दिल से दूसरे के काम की तारीफ करना. मुझे नहीं लगता कि वे कभी किसी की आलोचना करते या उनके काम में कमी निकालते दिखे. जिनसे उन्हें शिकायत भी होती, उनसे भी कुछ नहीं कहते. कभी हंस कर, कभी मुस्करा कर टाल जाते. जब कभी मैं शिकायत करता कि आपको पता है फिर कुछ बोलते क्यों नहीं तब वे हल्की मुस्कराहट के साथ कहते रात को गप्प करेंगे ना. मैं समझ जाता कि व्यक्तिगत रूप से कुछ कहना चाहते हैं. मेरी उनसे बात फोन पर अक्सर देर रात हुआ करती थी तब किसी और के फोन आने का अंदेशा कम होता था. बिना रूके कोई घंटा-डेढ़ घंटा हफ्ते-दस दिन में बात करते थे. मेरी शिकायत पर कहते कि आप सही हैं, कई बार कहा लेकिन वे अपनी आदत में सुधार नहीं ला सकते हैं तो क्या करें. जाने दो. आपका काम बढिय़ा है, करते रहें. कई बार अफसोस करते कि मैं आपकी कोई मदद नहीं कर पा रहा हूं. काम की व्यस्तता के चलते भी कुछ नहीं कर पा रहा हूं.

भोपाल में कोई भी आयोजन हो, पीपी की उपस्थिति ना हो, यह लगभग असंभव सा है. हर विषय पर पकड़ और पूरे अधिकार के साथ संवाद. नाट्य निर्देशक संजय मेहता की किताब के विमोचन में उन्हें अतिथि के रूप में आमंत्रित करने के लिए उनसे पूछा तो कहा कि कैसी बात करते हैं. आप जब कहें, मैं हाजिर हो जाऊंगा. बस, एक दिन पहले समय और स्थान बता देना. खासियत यह कि वे बिना तैयारी किये किसी प्रोग्राम में आते भी नहीं थे. संजय जी की किताब ‘मरघटा खुला है’ पहले पढ़ी और फिर विमोचन कार्यक्रम में बोलने आए. और बोले तो पूरे चौंसठ पेज बोल गए. शायद लेखक संजयजी को भी इतना याद नहीं होगा जितना पीपी याद कर आए थे. विमोचन के बाद मजाक में मैंने कहा-पीपी भाई, आप इतना बोल जाते हैं कि दूसरे अतिथियों के लिए बोलने को कुछ शेष नहीं रहता है. जिस बात का उन्हें जवाब नहीं देना होता है, उस बात को अपने ठहाकों से उड़ा दिया करते थे.

पब्लिक रिलेशन सोयासटी ने जो लोकप्रियता अर्जित की, वह पीपी के मेहनत के दम पर. लोगों को ना जाने कहां-कहां से जोड़ लाते. मेरा सोसायटी से कोई लेना-देना नहीं लेकिन कभी आग्रह तो कभी अधिकारपूर्वक मुझे जोड़े रखा. स्मारिका में लिखने की बात हो तो लिखने के लिए कहने के बजाय कहते, मनोज भाई, कब मेल कर रहे हैं. इसका मतलब है कि आपको लिखना है. हर मीटिंग के पहले उनका फोन आ जाता था, आज नाइन मसाला में मिलना है. मुझे और समागम को लेकर हमेशा उनका रूख सकरात्मक रहा. आज उनके जाने के बाद जाने कितनी यादें हिल्लोरे मार रही हैं लेकिन पीपी का साथ नहीं होना एक खालीपन का अहसास दिला रहा है. शायद मैं उन थोड़े लोगों में हूं जिनका पीपी के साथ उनके परिवार से परिचय था. उनके छोटे भाई केपी जब भास्कर, इंदौर में थे तो उनके घर भी पीपी के साथ जाना हुआ. लोगों को पीपी के ठहाके दिखते थे लेकिन उनका दर्द देखने की शायद किसी ने कोशिश नहीं की और उनकी आदत में था भी नहीं कि वे अपनी परेशानी बतायें. हां, हो जाएगा या देखते हैं, कहकर दूसरों का हौसला बढ़ाने वाले पीपी के पास दो-एक लोग ही थे. कभी सतही तौर पर मुझसे बातें कर लिया करते थे. 16-18 घंटे काम करने का उन्हें शौक नहीं था बल्कि खुद को काम में डूबा कर अपने अकेलापन को खत्म करने की कोशिश में जुटे रहते थे.  पीपी पर लिखने के लिए हजारों-हजार बातें हैं लेकिन क्या लिखूं और क्या छोड़ू, समझ से परे है. लेकिन एक बात तय है कि भीड़ में अकेले पीपी को जान पाना, समझ पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था.

(अनुभव साझा करने वाले वरिष्ठ पत्रकार एवं शोध पत्रिका ‘समागम’ के संपादक हैं)

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सम्पादक

डॉ. लीना