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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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एक बेहतरीन फोटो जर्नलिस्ट के साथ बेहतरीन इंसान भी

स्मृति शेष: सुबोध सागर  (26 अप्रैल 2025 को निधन)

कुमार कृष्णन/ सुबोध सागर एक नाम प्रेस फोटोग्राफी की दुनिया का।  छह दशक तक अखबारों और पत्र पत्रिका के लिए पूरे जुनून और समर्पण के साथ सभी तस्वीरें लीं, खबरों का कवरेज किया।  सुबोध सागर की खींची तस्बीरें के कायल बिहार के बड़े बड़े संपादक होते थे। कारण यह था कि वे फोटोग्राफर नही फोटो जर्नलिस्ट थे। उनमें मजबूत तकनीकी कौशल तो था ही,साथ ही दृश्य कहानी कहने की क्षमता भी थी। सबसे बड़ा गुण समय-सीमा के प्रति दृढ़ता था। तभी तो चाहे नवभारत टाईम्स के संपादक आलोक मेहता हों  या दिनमान के संपादक धनश्याम पंकज, आज के संपादक सत्य प्रकाश असीम सभी के प्रिय रहे। नई बात के संपादक राजेन्द्र सिंह के अत्यंत निकट थे। उनके कैमरे की तस्बीरें सच्चाई को व्यक्त करने के साथ साथ पत्रकारिता के उच्चतम पत्रकारिता मानकों पर भी खरी उतरतीं थीं।  कैमरा सिर्फ़ उनके लिए सिर्फ उपकरण था, उनका साथी होता था।  कंपोजिशन, एंगल, फ़ोकस, एक्सपोज़र में  महारत हासिल था। इस कारण वे लोकप्रियता के शिखर पर रहे। 1949 में मुंगेर में जन्में छायाकार सुबोध सागर अपने समय के मुंगेर प्रमंडल के एकलौते प्रेस छायाकार हुआ करते थे।फोटो पत्रकारिता से सुबोध सागर का जुड़ाव पटना से प्रकाशित समर क्षेत्र से हुआ।फोटोग्राफी में सिद्धहस्तता के साथ-साथ महत्वपूर्ण छायाचित्रों के संकलन में उनकी काफी दिलचस्पी रही।इसका कारण यह था कि जब पटना से नवभारत टाईम्स का प्रकाशन हुआ तो उसके लिए फोटोग्राफी करने लगे। उस समय आज के वर्तमान डिजिटल युग से फोटोग्राफी काफी जटिल हुआ करता था।लेकिन श्वेत श्याम चित्रों में ही उनके कैमरे का जादू बोलता था।तस्वीरों की जीवंतता को उन्होंने कायम रखा। धीरे-धीरे आज, नई बात, पाटलिपुत्र टाईम्स से जुड़े तथा उसके बाद वे हिन्दुस्तान के प्रकाशन के बाद से लगातार हिंदुस्तान अखबार से जुड़े रहे। पहले फिल्मवाले कैमरे का इस्तेमाल करते रहे, लेकिन ज्यों ही तकनीक में बदलाव आया, उन्होंने अपने को डिजिटल तकनीक से जोड़ लिया।फोटोग्राफी के लिए हर तरह की जोखिम उठाने को वे तैयार रहते थे।समाजसेवी राकेश कुमार कहते हैं कि- वे एक समर्पित प्रेस फोटो जर्नलिस्ट थे, उनका व्यक्तित्व शालीनता से लबरेज था।

दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार दिवाकर उन्हें याद करते हुए कहते हैं कि 1985 के बाद कभी ऐसा नहीं हुआ होगा, जब मैं मुंगेर गया होऊं और हम दोनों न मिले हों। अब ऐसा नहीं होगा।  वे निःस्वार्थ दोस्त का ऐसा कोई अन्य उदाहरण मैं नहीं दे सकता।सचमुच अद्भुत थे सुबोध जी। मुझसे करीब दस साल बड़े थे। उनसे मेरा परिचय भी फोटो पत्रकारिता के जरिये ही हुआ था। मेरा घर मुंगेर के वासुदेवपुर मुहल्ले में जबकि ससुराल गार्डेन बाजार मुहल्ले में। दोनों के बीच की दूरी दो-ढाई किलोमीटर की है। मुंगेर में मेरा घर जरूर था, पर वहां कभी रहा नहीं, तो परिवार से बाहर किसी से परिचय नहीं था।  अब सुबोध सागर। वह और भरत सागर ऐसे थे जो कम उम्र में मुंगेर छोड़कर बाहर निकल गए होते, तो पत्रकारिता में शीर्ष पर हो सकते थे। वैसे, दोनों के नाम में सागर होने से सब दिन सबको भ्रम होता रहा कि दोनों रिश्तेदार हैं, पर पत्रकारिता के अलावा दोनों में कोई रिश्ता नहीं था। भरत जी के शब्द बोलते थे, सुबोध जी के फोटो। शंकर जी और ये दोनों ऐसे थे कि खबरों-फोटो के लिए कोई भी जोखिम कभी भी उठाने को तैयार रहते थे। मुंगेर में 11 नवंबर, 1985 को तौफिर दियारा (लक्ष्मीपुर) में बिंद जाति के एक टोले पर हमला कर उनके घरों को जला दिया गया था।  तब मैं पटना में आज में था। फील्ड रिपोर्टिंग के लिए नहीं गया था, पर घायलों को पटना में पीएमसीएच में दाखिल कराया गया था, तो उनसे और उनके परिजनों से बातचीत के आधार पर इस हत्याकांड की रिपोर्टिंग मैंने आज में की थी। इस हत्याकांड में मुंगेर कोर्ट ने सजा सुनाई, तो मैं नवभारत टाइम्स, पटना में था। रिपोर्टिंग के लिए मुंगेर और फिर दियारा गया। सुबोध जी और शंकर जी भी साथ थे। भरत जी को मुंगेर में रहकर कुछ अतिरिक्त काम करने को कहा। उसके एक-दो दिनों बाद नभाटा, पटना में एक दिन चार पेजों पर मेरी बाइलाईन सामग्री थी। तीन तो इस प्रसंग में, एक लेख संपादकीय पेज के लिए दिया था, तो वह भी उसी दिन छपने के लिए दिल्ली से एप्रूव होकर आया था।इस हत्याकांड में रणवीर यादव को भी सजा हुई थी। वह विधायक थे। खगड़िया जेल में बंद थे। होली का समय था। मैं मुंगेर आया हुआ था। अचानक खयाल आया कि क्यों न खगड़िया जेल जाकर रणवीर यादव से मिला जाए। सुबोध जी से पूछा कि क्या वह चलेंगे। रिस्क वगैरह की बात हुई। पर हम दोनों निकल पड़े। उस वक्त मुंगेर से खगड़िया के लिए स्टीमर चलती थी। सुबह-सुबह निकले और 9-9ः30 बजे खगड़िया जेल पहुंच गए। गेट पर हम दोनों ने बिंदास कहा कि हमलोग नवभारत टाइम्स से आए हैं और रणवीर यादव से मिलना है। हमलोग उससे पहले रणवीर यादव से कभी नहीं मिले थे। पर उन विधायक जी की हनक ऐसी थी कि उन्हें सूचना पहुंचाई गई और हम दोनों गेट के अंदर। हमलोगों ने पूछा कि कहां मिलेंगे, तो संतरी ने इशारा किया कि जेलर के ऑफिस में जाइए। ऑफिस के बाहर अच्छे औरउनसें साफ-सुथरा कपड़े पहने एक सज्जन टूल पर बैठे थे।  हमने अपना काम बताया, तो उन्होंने उठकर कहा, अंदर जाइए। बाहर निकलते समय उस सज्जन ने बताया कि वही जेलर हैं। हमलोग अंदर गए, तो जेलर की कुर्सी पर झक सफेद कुरता-पायजामे में रणवीर यादव मौजूद थे। मैंने नोट बुक पर उनकी बातें नोट करनी शुरू कीं, सुबोध जी फोटो क्लिक करते रहे- रणवीर के पीछे गांधी जी की फोटो लगी थी। यह फोटो और रिपोर्ट नभाटा में पेज 1 एंकर छपी। शायद लगभग सभी संस्करणों में। आलोक मेहता जी अब भी बराबर इसकी याद करते हैं। बल्कि चार-पांच साल पहले उन्होंने इस बारे में लिखा भी था।

सुबोध जी, भरत जी और शंकर जी- तीनों ही निडर थे। बल्कि मुझसे कहीं ज्यादा। वली रहमानी साहब मुंगेर के ही थे। वह कांग्रेस से विधायक रह चुके थे और बाद में ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव भी बने। वह 1991 में मुंगेर में खानकाह रहमानी के सज्जादा नशीन बने। लगभग उसी के आसपास या उससे पहले मुंगेर के ही हवेली खड़गपुर में रात में उनकी कार पर हमला हुआ। मैं संयोगवश उस वक्त मुंगेर गया हुआ था और अपनी ससुराल में था। टीवी और सोशल मीडिया का जमाना तो था नहीं, पर सुबह तक यह खबर मुंगेर में फैल चुकी थी या कहिए, धीरे-धीरे फैल रही थी। भरत जी और सुबोध जी सुबह-सुबह मेरे पास। मैंने कहा, महाराज, आपलोग इसी शहर में रहते हैं, यहीं रहिए, मैं मिलकर आता हूं। भरत जी ने कहा, हमलोग क्यों नहीं, साथ चलेंगे, फटाफट तैयार होइए। आधा घंटा के अंदर हमलोग खानकाह पहुंच गए। 600-700 लोग तो होंगे ही। अधिकांश विद्यार्थी और युवा। आज की भाषा में कहें, तो इन सबके बीच हम तीन ही हिन्दू थे। अंदर खबर की गई, तो वली रहमानी साहब ने तुरंत बुलाया। हंसते-मुस्कुराते हुए ही बात हुई। पूरी घटना उन्होंने बताई लेकिन कोई उत्तेजना नहीं। बाद में, वली रहमानी साहब से मुंगेर, पटना, दिल्ली में भी कई बार मुलाकातें हुईं। कम ही लोग उनकी तरह जहीन होते हैं। वह भी अब नहीं हैं। वे कहते हैं -मैं आज जिस मुकाम पर हूं, पहुंच सका। मुझे दोस्तों ने ही सब दिन कंधे पर उठाए रखा। ये लोग न होते, तो मैं कुछ नहीं होता।

सूचना एवं जनसंपर्क के हजारीबाग प्रक्षेत्र के उपनिदेशक आनंद कहते हैं कि- वे सुबोध जी बेहतरीन फोटोग्राफर के साथ साथ अच्छे इंसान भी थे। वे पत्रकारों के संगठन श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के महासचिव भी थे ।

अपनी फोटोग्राफी के लिए पूर्वांचल के प्रसिद्ध छायाकार हरिकुंज द्वारा उन्हें सम्मानित भी किया गया है। इसके अतिरिक्त भागलपुर में शुभकरण चुड़ीवाला की स्मृति में आयोजित तिलकामांझी राष्ट्रीय सम्मान से प्रसिद्ध गांधीवादी प्रो राम जी सिंह द्वारा और आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र राष्ट्रीय सम्मान से परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया। पिछले कुछ दिनों से अस्वस्थ थे। 26 अप्रैल को इस दुनिया से रूखसत हुए। उनका निधन पत्रकारिता जगत के लिए पीड़ादायक है।

कुमार कृष्णन

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना