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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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प्लीज, उन्हें अपमानित मत कीजिए...

संदर्भ- विरोधस्वरूप पुरस्कार वापसी का 

संजीव परसाई। आजकल साहित्य और साहित्यकारों में हलचल मची हुई है। लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए किए गए अब तक के सभी प्रयासों में साहित्य और साहित्यकारों की भूमिका को कोई नकार नहीं सकता है। इसके साथ ही साहित्यकारों का आचार-व्यवहार लंबे समय से सरकार और आलोचकों के निशाने पर रहा है। पिछले दिनों लगातार घट रहीं असंवेदनशील घटनाओं के चलते साहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग संभवतः व्यथित होकर सीधे सीधे बगावत पर उतर आया। इस बगावत के सुरों के बीच इक्का दुक्का लोगों ने शुरूआती तौर पर साहित्य अकादमी के सम्मान की वापसी की शुरूआत की। अब इसकी सूची बढ़ती जा रही है। एक दूसरे की देखा-देखी साहित्यकार इस सम्मान को वापस कर सरकार को एक नसीहत भी देने की कोशिश कर रहे हैं।

इस संपूर्ण घटनाक्रम के दौरान कुछ ऐसा भी घट रहा है जो साहित्य के क्षेत्र में कभी भी नहीं हुआ। सरकार या सत्ताधारी पार्टी के नुमाइंदे विरोध करने वाले साहित्यकारों को खुल्लम खुल्ला कांग्रेस का पिटठू, कम्युनिस्ट या दरबारी कहने से गुरेज नहीं कर रहे हैं। उनके बयानों और प्रतिक्रियाओं से ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे कि वे इस अवसर के इंतजार में ही बैठे हों। साहित्यकारों के खिलाफ सोशल मीडिया पर भी अपमानजनक सामग्री डाली जा रही है।मूल मुद्दे से इतर साहित्यकारों का आगा-पीछा निशाने पर लिया जा रहा है। दूसरी ओर सरकार अपनी तयशुदा रणनीति के अनुसार सीधे सीधे न बोलकर अपने आधे-अधूरे बयानवीरों के सहारे मैदान में है। इन बयानों और अनधिकृत प्रतिक्रियाओं के चलते एक ऐसा वातावरण निर्मित करने की कोशिश की जा रही है जो न सिर्फ साहित्यकारों बल्कि साहित्य का भी विरोधी दिखाई देता है। ऐसे लोग जिनका साहित्य और गंभीरता से कोई लेना देना नहीं है, वे भी इन पर खुलकर टिप्पणियां कर रहे हैं। जिसके चलते समूचा साहित्य जगत निशाने पर आ गया है। शुरूआती विरोध में ही उन्होंने इन साहित्यकारों को सरकार विरोधी ठहराने में देरी नहीं की। साहित्य अकादमी ने भी इस मुददे को शुरूआती तौर पर जिस भददे तरीके से डील किया, उसकी जितनी भर्त्सना की जाए कम है। सरकार को अपना पक्ष जिस प्रकार से रखना चाहिए वह सरकार खुद भी नहीं कर रही है। सरकार के नुमाइंदे के रूप में वे लोग इस गंभीर मुददे पर अपने विचार परोस रहे हैं, जो आधे देश को पाकिस्तान जाने की सलाह दे चुके हैं। प्रधानमंत्री के साफ साफ कहने के बाद भी ऐसे लोग बाज नहीं आ रहे हैं। असल में किसी को भी इन साहित्यकारों से बात करने की फुरसत नहीं है। स्थिति के बिगड़ने से बदतर होने तक सरकार के नुमाइंदे इंतजार करते रहे। एक ओर समूचा तंत्र इन साहित्यकारों के विचारों को समझने के लिए मीडिया के आसरे नजर आ रहा है। दूसरी ओर मीडिया अपनी सीमाओं के चलते साहित्यकारों का पक्ष टुकड़ों में देश के सामने प्रस्तुत कर रहा है।

साहित्यकारों ने अपने इस्तीफे एक साथ नहीं दिए, इससे साफ है कि उन्होंने इसके लिए कोई रणनीति नहीं बनाई गई। जो हुआ और जो हो रहा है वह एक एक करके बढ़ते रही दिए गए गैर जिम्मेदार  बयान इसमें घी का काम करते रहे। साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने पर साहित्यकारों के प्रति नजरिया भिन्न हो सकता है। लेकिन इसके बाद भी यह उनका निजी मामला है। भारत जैसे देश में किसी को संवैधानिक दायरे में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का अधिकार तो है ही। हमने इसी देश में साहित्यकारों के पैर पखारे हैं, आज हम उनके प्रति जिस प्रकार का वातावरण बना रहे हैं, वह न तो इस देश के लिए सही है न ही साहित्य के लिए। हमें यह भी याद रखना चाहिए की हमारा लोकतंत्र जिन कन्धों पर चढ़कर यहाँ तक पहुंचा है उनमें एक कन्धा इन साहित्यकारों का भी था।

बदले दौर में साहित्यकारों को भी अब अपनी भूमिका पर पुनविर्चार करना चाहिए।  उन्हें पर टीवी चैनलों पर चर्चा करने के बजाए लोकतंत्र के लिए रचनात्मक भूमिका का निर्वाह करना चाहिए। वैसे कलम कभी इतनी कमजोर नहीं हो सकती कि उसे किसी के सहारे की जरूरत पड़े। प्लीज साहित्यकारों से असहमत होने का आपको हक़ है, उन्हें अपमानित मत कीजिए।

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सम्पादक

डॉ. लीना