30 मई हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर विशेष
मनोज कुमार/ कथाकार अशोक गुजराती की लिखी चार पंक्तियां सहज ही स्मरण हो आती हैं कि
राजा ने कहा रात है
मंत्री ने कहा रात है
सबने कहा रात है
यह सुबह सुबह की बात है
कथाकार की बातों पर यकीन करें तो मीडिया का जो चाल, चरित्र और चेहरा समाज के सामने आता है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है किन्तु क्या यही पूरा सच है? यदि हां में इसका जवाब है तो समाज की विभिन्न समस्याओं और उपलब्धियों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए मीडिया के साथ क्यों बात की जाती है? क्यों मीडिया को भागीदार बनाया जाता है? सच तो यही है कि मीडिया हमेशा से निरपेक्ष और स्वतंत्र रहा है. हां में हां मिलाना उसकी आदत में नहीं है और यदि ऐसा होता तो जिस तरह समाज के अन्य प्रोफेशन को विश्वसनीय नहीं माना जाता है और उन पर कोई चर्चा नहीं होती है, उसी तरह का व्यवहार मीडिया के साथ होता लेकिन सच यह है कि समाज का भरोसा मीडिया पर है और इसके लिए मीडिया की आलोचना और निंदा होती है ताकि वह अपना काम निष्पक्षता के साथ कर सके. मीडिया अपने रास्ते से डिगे नहीं, इस दृष्टि से मीडिया को सर्तक और सजग बनाने में समाज का बड़ा योगदान है. मीडिया भी इस बात को जानता है कि उसकी आलोचना उसके निरंतर करते काम को लेकर हो रही है और यही कारण है कि वह आलोचना से स्वयं को सुधारते हुए हर पल समाज के साथ खड़ा होता है. जिस समाज में मामूली सी आलोचना या कार्यवाही के बाद दूसरे प्रोफेशन काम बंद कर देते हैं, हड़ताल पर चले जाते हैं लेकिन मीडिया और दुगुनी ताकत से काम करते हुए समाज की शुचिता और प्रगति के लिए कार्य करता रहता है. पराधीन भारत में प्रकाशित प्रथम हिन्दी समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तंड’ ने जो परम्परा डाली है, आज करीब दो सौ साल बाद भी मीडिया विस्तार के बाद भी उसी पथ पर चल रहा है.
जब लोग मीडिया को चारण कहते हैं तो मैं मन ही मन दुखी हो जाता हूं और मुझे लगता है कि मैं ईश्वर से इन सबके लिए माफी मांगू कि इन्हें नहीं मालूम कि ये लोग क्या कह रहे हैं। मीडिया का यह हाल होता तो भारत में ना अखबारों का प्रकाशन होता और न पत्रिकाओं का, टेलीविजन के संसार की व्यापकता सिमट गई होती और रेडियो किसी कोने में बिसूर रही होती। सच तो यह है कि ‘उदन्त मार्तण्ड’ के प्रकाशन से लेकर आज तक के सभी प्रकाशन अपनी सामाजिक जवाबदारी निभाने में आगे रहे हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भारतीय संविधान में अधिकार दिया गया है किन्तु समय-समय पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले होते रहे हैं। 1975 का आपातकाल इसका सबसे बड़ा और काला उदाहरण है। इस कठिन समय में भी मीडिया झुका नहीं और पूरी ताकत से प्रतिरोध करता रहा. उस पीढ़ी के लोगों को इस बात का स्मरण होगा कि किस तरह कुछ अखबारों ने विरोध स्वरूप अखबार का पन्ना कोरा छोड़ दिया था. मीडिया का स्वभाव ही विरोध में खड़ा होना है और यही उसकी ताकत और पहचान है.
करीब करीब दो सौ साल पहले हिन्दी का प्रथम प्रकाशन साप्ताहिक ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन आरंभ हुआ था, तब किसी ने कल्पना भी नहीं कि थी कि कल की पत्रकारिता आज का मीडिया बनकर उद्योग का स्वरूप ग्रहण कर लेगा। आज भारत में मीडिया उद्योग बन चुका है। मीडिया का उद्योग बन जाने की चर्चा बेकार में नहीं है लेकिन इसके पीछे के कारणों को समझना जरूरी हो जाता है। मीडिया दरअसल पत्रकारिता नहीं है बल्कि एक व्यवस्था है। यह व्यवस्था प्रकाशन और प्रसारण को सहज सुलभ और प्रभावी बनाने के लिए उसके उपयोग में आने वाले यंत्रों की व्यवस्था करती है। इन यंत्रों की लागत बड़ी होती है सो लाभ-हानि के परिप्रेक्ष्य में मीडिया अपने लाभ की अपेक्षा रखती है। लिहाजा मीडिया का उद्योग बन जाना कोई हैरानी में नहीं डालता है लेकिन इसके उलट पत्रकारिता आज भी कोई उद्योग नहीं है क्योंकि पत्रकारिता का दायित्व केवल लेखन तक है। सत्ता, शासन और समाज के भीतर घटने वाली अच्छी या बुरी खबरों को आमजन तक पहुंचाने की है। पत्रकारिता अपने दायित्व का निर्वहन कर रही है और यही कारण है कि सत्ता और शासन हमेशा से पत्रकारिता से भयभीत भी रही है और उसे अपना साथी भी मानती है। यही कारण है कि भारत में प्रतिदिन औसतन सौ से ज्यादा स्थानों पर विविध विषयों को लेकर संवाद की श्रृंखला का आयोजन होता है और इन सभी आयोजन मीडिया के साथ होता है। क्योंकि सत्ता और शासन को इस बात का ज्ञान है कि मीडिया के माध्यम से ही समाज तक अपनी बात पहुंचायी जा सकती है। एक सवाल यह भी है कि मीडिया चारण है तो सत्ता और शासन बार बार और हर बार मीडिया से ही क्यों संवाद करता है? क्यों वह समाज के दूसरे प्रोफेशन से जुड़े लोगों से संवाद नहीं करता? यह इस बात का प्रमाण है कि मीडिया सशक्त है, प्रभावी है और अपनी बात रखने के लिए सत्ता और शासन के पास मीडिया से बेहतर कुछ भी नहीं। यह बात भी ठीक है कि मीडिया के विस्तार से कुछ गिरावट आयी है, मूल्यों का हस हुआ है लेकिन घटाघोप अंधेरा अभी नहीं छाया है बल्कि उदंत मार्तण्ड की रोशनी से हिन्दी पत्रकारिता आज भी रोशन है और आगे भी रहेगा। बस, आखिर में कहना चाहूंगा कि
तराशने वाले पत्थरों को भी तराश लेते हैं
कुछ लोग हैं जो हीरे को भी पत्थर करार देते हैं।
(तस्वीर साभार इन्टरनेट से)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं रिसर्च जर्नल ‘समागम’ के सम्पादक हैं। मोबा. 09300469918)