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‘नेट न्यूट्रीलिटी’ का अनसुलझा सवाल

मनोज कुमार / संचार माध्यमों के विस्तार के साथ ही इंटरनेट ने एक ऐसी दुनिया क्रियेट की जिसके चलते विश्व-ग्राम की अवधारणा की स्थापना हुई। बहुसंख्या में आज भी लोग इंटरनेट फ्रेंडली भले ही न हुए हों लेकिन ज्यादतर काम इंटरनेट के माध्यम से होने लगा है। बाजार ने जब देखा कि इंटरनेट के बिना अब समाज का काम नहीं चलना है तो उसने अपने पंजे फैलाना आरंभ कर दिया और अपनी मनमर्जी से इंटरनेट यूजर्स के लिए दरें तय कर दी। भारत में चूंकि इस तरह का कोई कानून नहीं है लेकिन केन्द्र सरकार की सख्ती से अभी यह पूरी तरह लागू नहीं हो पाया है। समाज का एक बड़ा वर्ग ‘नेट न्यूट्रीलिटी’ अर्थात नेट-निरपेक्षता का पक्षधर है अत: बाजार का फिलहाल कब्जा नहीं हो पाया है लेकिन उसने अपने नथुने दिखाना शुरू कर दिया है।

‘नेट न्यूट्रीलिटी’ देश के बहुसंख्यक लोगों के लिए यह शब्द एकदम नया, अबूझ और कुछ विदेशी रंग लिए हुए है। यह मसला पूरी तरह से इंटरनेट की आजादी और बिना किसी भेदभाव के स्वतंत्रता पूर्वक इंटरनेट का इस्तेमाल करने देने का मामला है। सामान्य भाषा में कहें तो कोई भी दूरसंचार कम्पनी या सरकार इंटरनेट के इस्तेमाल में भेदभाव नहीं कर सकती और न ही किसी खास वेबसाइट को फायदा और न ही किसी वेबसाइट को नुकसान पहुंचाने जैसा कदम उठा सकती है।  ‘नेट न्यूट्रलिटी’ शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले कोलम्बिया विश्वविद्यालय में प्रोफेसर टिम वू ने किया था। ‘नेट न्यूट्रलिटी’ को हम ‘नेट निरपेक्षता’, तटस्थ इंटरनेट या नेट का समान इस्तेमाल भी कह सकते हैं। 

नई तकनीकी ने दूरसंचार कम्पनियों के व्यवसाय को बहुत नुकसान पहुंचाया है। मसलन एसएमएस के जरिये संदेशों का आदान-प्रदान करने की सुविधा को व्हाट्सऐप, स्काइप, वाइबर, हाइक जैसे तमाम ऐप ने लगभग मुफ्त में देकर कम्पनियों की अकूत कमाई में सेंध लगा दी है। स्काइप के बाद व्हाट्सऐप और इसके जैसी कई इंटरनेट कॉलिंग सेवाओं से देश में और खासकर विदेशी फोन कॉलों पर काफी प्रभाव पड़ रहा है क्योंकि लम्बी दूरी की अंतरराष्ट्रीय फोनकॉल के लिहाज से इंटरनेट के जरिए फोन करना कहीं अधिक सस्ता पड़ता है। यही कारण है कि देश में एयरटेल की अगुआई में देश की तमाम दिग्गज दूरसंचार कम्पनियां खुले या छिपेतौर पर गोलबंद होकर व्हाट्सऐप, स्काइप, वाइबर,  हाइक जैसे ऐप के बढ़ते उपयोग को देखते हुए अब वॉयस ओवर इंटरनेट प्रोटोकॉल यानी वीओआईपी सेवाओं के लिए ग्राहकों से अलग से शुल्क वसूलना चाहती हैं। इसकी शुरुआत भी एयरटेल ने की और एक ही डाटा पैक से नेट सर्फ के लिए अलग शुल्क और वाइस कॉल के लिए अलग शुल्क और एयरटेल जीरो जैसी लुभावनी योजनाओं की घोषणा करके नेट निरपेक्षता पर विवाद खड़ा कर दिया। हालांकि जनता, सरकार और इस बदलाव की जद में आने वाली कम्पनियों के दबाव में फौरीतौर पर इन योजनाओं को वापस ले लिया गया लेकिन ‘नेट निरपेक्षता’ का जिन्न अभी बोतल में बंद नहीं हुआ है। इस मुद्दे से जुड़े अनेक सवाल खड़े हैं और बहस जारी है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बंदिश लगाने का अर्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करना है और इससे कई तरह की समस्याएं सामने आती है जिसमें सत्ता और प्रशासन का निरकुंश हो जाना सबसे पहले होता है. नेट निरपेक्षता को हमारे अपने मुल्क भारत के संदर्भ में देखें तो चिंता स्वाभाविक होने के साथ साथ बड़ी हो जाती है. भारत में साक्षरता का प्रतिशत वैसे भी बहुत उत्साहजनक नहीं है और इंटरनेट के उपयोग करने वालों का प्रतिशत भी बहुत संतोषजनक नहीं है. आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों की संख्या भी अधिक नहीं कही जा सकती है और जब इंटरनेट सेवाओं का अलग अलग प्रभार लेने की स्थिति बनेगी तो भारत में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या में गिरावट स्वाभाविक होगी। यह स्थिति भारत जैसे विकासशील राष्ट्र के लिए चिंताजनक है क्योंकि इस स्थिति में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अपरोक्ष रूप से कुठाराघात होगा.

देखा जाए तो जनसंचार के विविध माध्यमों की तरह इंटरनेट का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। लगभग तीन दशक पूर्व इंटरनेट का जन्म हुआ और इस तीन दशक में इंटरनेट ने पूरे विश्व में स्वयं को स्थापित कर लिया। इंटरनेट यूं तो जनसंचार का ही एक स्वरूप मान लिया गया है किन्तु वास्तविकता यह है कि इंटरनेट महज एक तकनीक है और इस तकनीक के सहारे जनसंचार को विस्तार मिला है। इंटरनेट के आ जाने के बाद सबसे ज्यादा नुकसान मुद्रित माध्यम को हुआ। भारत सहित पूरी दुनिया में समाचार पत्र और पत्रिकाएं डिजीटल की दुनिया में आ गए. भारत को छोडक़र अन्य देशों में तो कागज पर अखबारों का मुद्रण बंद हो गया है और आने वाले समय में अखबार तो बने रहेंगे लेकिन इसका स्वरूप डिजीटल होगा. रेडियो और टेलीविजन जैसे माध्यमों के लिए इंटरनेट एक बहुउपयोगी तकनीक साबित हुआ है. सूचनाओं एवं विचारों के विश्वव्यापी आदान-प्रदान के लिए सोशल मीडिया का सर्वोच्च साधन इंटरनेट बना हुआ है. इस स्थिति में नेट निरपेक्षता को समाप्त किया जाता है तो यह समूचे विश्व के लिए घाती कदम होगा.

तीस साल की अल्प अवधि में अपना साम्राज्य फैलाने वाले इंटरनेट पर बाजार की नजर पहले से थी लेकिन शायद वे थोड़ा और समय इंतजार करना चाहते थे. भारत में साजिशन इसे लागू करने की प्रक्रिया आरंभ की गई किन्तु लगातार विरोध के बाद कदम तो बाजार ने पीछे खींच लिया लेकिन अभी वापस लौटने के मूड में दिखायी नहीं देता है. वैसे इस मामले में अब तक सरकार का कहना है कि इंटरनेट तक पहुंच को लेकर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। उन्होंने इस मामले पर एक कमेटी भी बनाई है जो जल्दी ही इस मसले पर अपनी राय देगी। इस मुद्दे पर सबसे तीखी प्रतिक्रिया आम जनता या नेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों ने दी है। ट्राई को इस बारे में एक लाख से ज्यादा ईमेल भेजे गए हैं। सोशल मीडिया पर भी यह विषय छाया हुआ है। अब सारा दारोमदार सरकारी रपट, ट्राई की भूमिका और इंटरनेट यूजर्स की एकता पर टिका है क्योंकि मसला लाखों-करोड़ों के मुनाफे का है।

लेखक मनोज कुमार शोध पत्रिका समागम के संपादक हैं। 

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सम्पादक

डॉ. लीना