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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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हिंदी अखबारों की भ्रष्ट भाषा

डॉ. वेदप्रताप वैदिक/ आजकल मैं मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के कई शहरों और गांवों में घूम रहा हूं। जहां भी रहता हूं, सारे अखबार मंगवाता हूं। मराठी के अखबारों में बहुत कम ऐसे हैं, जो अपनी भाषा में अंग्रेजी का प्रयोग धड़ल्ले से करते हों। उनके वाक्यों में कहीं-कहीं अंग्रेजी के शब्द आते जरुर हैं लेकिन वे ऐसे शब्द हैं, जो या तो अत्यंत लोकप्रिय हो गए हैं या फिर उनका अनुवाद करना ही कठिन है लेकिन हिंदी के बड़े-बड़े अखबार, जो कृपा करके मेरे लेख भी छापते हैं, उनको पढ़ते हुए मैं हैरत में पड़ जाता हूं। उनकी कई खबरों में ऐसे वाक्य ढूंढना मुश्किल हो जाता है, जो आसानी से समझ में आ जाएं। इनमें अंग्रेजी के ऐसे शब्द चिपका दिए जाते हैं, जिनका अर्थ समझना ही आम पाठकों के लिए मुश्किल होता है। इसका अर्थ यह नहीं कि मेज पर बैठे पत्रकार अपनी भाषा को भ्रष्ट करने पर उतारु हैं। उनकी चाहत भी यही है कि सरल भाषा लिखी जाए लेकिन वे जल्दबाजी में उलटा काम कर बैठते हैं। कौन शब्दकोश देखे, कौन किसी वरिष्ठ से पूछे, कौन आपस में चर्चा करे। 

इसके अलावा अखबारों के संपादकों और मालिकों की ओर से भी कोई आपत्ति नहीं होती। अखबार बिक रहा है, इसी से वे संतुष्ट हैं। इन्हीं अखबारों के संपादकीयों और लेखों में सरल और शुद्ध हिंदी देखकर मेरा मन प्रसन्न हो जाता है। यदि ये लोग थोड़ा ध्यान दे दें तो हमारे हिंदी के अखबार काफी बेहतर हो सकते हैं। उनका प्रभाव भी बढ़ेगा और पाठक-संख्या भी। मैं पोंगापंथी शुद्धतावादी बिल्कुल नहीं हूं। हिंदी में हम अन्य देशी और विदेशी भाषाओं के जितने भी शब्द हजम कर सकें, जरुर करना चाहिए लेकिन हमारे अखबारों और टीवी चैनल तो अंग्रेजी शब्दों की बदहजमी से परेशान है। 

मैंने अब से पचास साल पहले जब अफगान विदेश नीति पर अपनी पीएच.डी. का शोधग्रंथ हिंदी में लिखा था तब कई जर्मन, फ्रांसीसी, फारसी और रुसी शब्दों का हिंदीकरण कर दिया था। इसी प्रकार नवभारत टाइम्स और ‘पीटीआई-भाषा’ के संपादक रहते हुए मैंने असंख्य देशी और विदेशी भाषाओं के शब्दों का हिंदीकरण किया, जिसे सैकड़ों हिंदी अखबारों ने सहर्ष अपनाया। अंग्रेजी के भ्रष्ट उच्चारणों से कई देशी और विदेशी नामों को पहली बार मुक्ति मिली। हिंदी पत्रकारिता का रुप ही बदल गया। हिंदी संस्कृत की बेटी है और उर्दू समेत सभी भारतीय भाषाओं की बहन है। उसके शब्द-सामर्थ्य का क्या कहना ? उसके सामने बेचारी अटपटे व्याकरण और ऊटपटांग उच्चारण वाली अंग्रेजी कैसे टिक सकती है ? संस्कृत की एक धातु में हजारों नए शब्द बनते हैं और उसकी धातुएं 2000 हैं। पत्रकार भाई लोग अपनी इस छिपी हुई ताकत को समझें और थोड़ी मेहनत करें तो हिंदी को भ्रष्ट होने से बचा सकते हैं।

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना