मीडिया को हताहतों की संख्या को सुर्खियों में तब्दील करने में मजा तो खूब आता है लेकिन मौत के कारोबार की खबर नहीं होती
पलाश विश्वास / मुंबई हो या राजधानी नयी दिल्ली, वहां वर्षा हो तो मीडिया पर मूसलाधार बारिश शुरु हो जाती है। मेघ बरसे मूसलाधार और बरस गये सोनिया के द्वार। आंगन पानी पानी पानी। यही राष्ट्रीय संकट है। कोलकाता के सबसे बड़े, सबसे लोकप्रिय अखबार को देखने पर तो यही अहसास हुआ। उत्तराखंड की हवाई पत्रकारिता खूब हो गयी।
पांच हजार से ज्यादा लोग अभी लापता हैं। जो न जीवित हैं और न मृत। हिमालयी जनता की हाल हकीकत के आंकड़े न भारत सरकार के पास हैं और न उत्तराखंड सरकार के पास। आपदा का सिलसिला जारी है। अबभी बादल फट रहे हैं। देश भर में राहत व सहायता अभियान का सिलसिला चल पड़ा है। पर हिमालय की सेहत को लेकर सही मायने में बहस शुरु ही नहीं हुई।
मीडिया को हताहतों की संख्या को सुर्खियों में तब्दील करने में मजा तो खूब आता है लेकिन मौत के कारोबार की खबर नहीं होती। टनों कागज रंग दिये गये, विशेषांक निकले, लेकिन असली मुद्दे अब भी असंबोधित हैं।
हिमालयी आपदा और सोनिया आंगन में बरसात का तौल बराबर है। सोनिया का आंगन राजनीतिक मुद्दा बन सकता है, बना हुआ है, हिमालय न राजनीति का मसला है न अर्थशास्त्र का और न ही पर्यावरण का।
हिमालय और हिमालयी जनता की सबसे बड़ी त्रासदी है कि धर्म ही उसका आधार है। भूत भविष्य और वर्तमान है। पहाड़ों का टूटना जारी है। रुक रुककर मूसलाधार बारिश हो रही है। आपदा के शिकार गांवों के पुनर्वास का जुबानी आश्वासन के सिवाय हिमालय को कोई राहत वास्तव में अभी मिली नहीं है। जो पैसा भारी पैमाने पर जमा हो रहा है उत्तराखंड आपदा के नाम, दान देने वालों को भले ही उससे आयकर छूट मिल जाये, इस बात की कोई गारंटी नही है कि वह पीड़ितों तक पहुंचेगा भी!
जो लोग बीच बरसात बेघर बेगांव खुले आसमान के नीचे अंधेरे में बाल बच्चों समेत जीने की सजा भुगत रहे हैं, उन्हें इस आपदा का बाद कड़ाके की सर्दियां भी बितानी हैं। फिर ग्लेशियरों का पिघलना जारी है। झीलों, बांधों और परियोजनाओं के विस्फोट न जाने कब कहां हों, उसकी भी फिक्र करनी है। सालाना बाढ़ भूस्खलन और मध्ये मध्ये भूकंप की त्रासदियों के बीच सकारात्मक यही है कि अपनों को खोने के दर्द के शिकार पूरे देशभर के लोगों को हिमालयी आपदा का स्पर्श मिल गया है। शोकसंतप्त मैदानों को फिर भी पहाड़ों से निकलने वाली नदियों के गर्भ में रक्त का सैलाब नजर नहीं आता।
मीडिया महाआपदा की भविष्यवाणी और विशेषज्ञों के सुवचन छापकर सनसनी और टीआरपी बढ़ाने के सिवाय पर्यावरण चेतना में कोई योगदान करेगी, इसकी हम उम्मीद नहीं कर सकते।