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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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सोशल मीडिया- एक अंतर्दृष्टिविहीन अभिव्यक्ति

अनिकेत प्रियदर्शी । हमें वह परिवर्तन खुद बनना चाहिये जिसे हम संसार मे देखना चाहते हैं । आज अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर सोशल मीडिया और पत्र पत्रिकाओं मे जिस तरह से अमर्यादित भाषा का प्रयोग चल पडा है वो हमारे देश की भाषाई संस्कार पर एक बडा प्रश्नचिन्ह लगा रहा है। आये दिन सोशल मीडिया मे कार्टून या व्यंगात्मक चित्र के रूप मे ऐसे भद्दे-भद्दे दृश्य देखने को मिलते है जो हमे यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या वैचारिक-स्वतन्त्रता को इस तरह से व्यक्त करके हम अपनी आजादी का गलत प्रयोग तो नही करने लगे है! विवेक , बुद्धि की पूर्णता है । जीवन के सभी कर्तव्यों में वह हमारा पथ-प्रदर्शक है । हमे विवेकपूर्ण तरीका अपना कर अपनी बातो को रखने का प्रयास करना चाहिए..पर हम ये क्या कर रहे है?

अभी कुछ ही दिन पहले की बात है देश के एक सर्वोच्च हिन्दी दैनिक के संपादकीय पृष्ठ पर देश के प्रधानमंत्री और कई बडे राजनेताओं के खिलाफ निहायत गंदी भाषा का प्रयोग किया गया था, यह अपने आप मे बडे शर्म की बात है। आज मीडिया मे काम करने वाले ज्यादतर लोग मीडिया की पढाई करके ही आते है...मीडिया की पढाई के दौरान कई सारे मीडिया ऐथिक्स(नियम और कानून) भी पढने को मिलते है...और उसके बाद भी इस तरह से किसी की बात को अखबार मे छाप देना ...आखिर ये किस बात की ओर हमारा ध्यान ले जाती है? आज मीडिया का ग्लैमर लोगों के सर चढ बोल रहा है...पर इसका मतलब यह तो नही हो सकता है कि हम अपने दायरे से बाहर निकल कर मीडिया को बाजारू बना दे।

विचार संसार मे सबसे घातक हथियार हैं और यह किसी से नही छुपा है कि किस तरह से विचार संसार को बदलते हैं । पर कभी भी विचारो की अभिव्यक्ति निकृष्ट तरीके से कर के कोई संसार नही बदला जा सकता है। फेसबुक पर आज हर दिन लाखों ऐसे पोस्ट देखने को मिल जाते है जिसमे राजनेताओं को बडे ही आपत्तिजनक तरीके से पेश किया जाता है चाहे वो किसी भी दल के हों। ये कहीं से भी किसी समस्या का समाधान नही माना जायेगा। आपको लोकतंत्र मे अपनी बात रखने का पूरा अधिकार है....पर बात को सबसे सभ्य तरीके से रखने का गुण तो आपमे होना ही चाहिए..। अब ऐसे मे इस तरह से अभिव्यक्ति की आजादी को तो यही कहा जा सकता है कि अंतर्दृष्टि के बिना ही काम करने से अधिक भयानक दूसरी चीज नहीं है ।

प्रत्येक व्यक्ति के लिये उसके विचार ही सारे तालो की चाबी हैं । पर विचारो को व्यक्त करने का एक सभ्य तरीका ही लोकतंत्र को आधार प्रदान करता है। अब अगर हम उसे अश्लील या उटपटांग ढंग से व्यक्त करने को सही मानने लगेंगे तो एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब हर बात पर गाली-गलौज ही बहस का एकमात्र तरीका रह जाये। आज मीडिया से जुडे हर व्यक्ति की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इस असभ्य माहौल का बहिष्कार करे क्योंकि मनुष्य की वास्तविक पूँजी धन नहीं , विचार हैं । विचार को अगर अभिव्यक्त करना है तो इसके लिए हमे भाषा का मापदंड सर्वोत्तम रखना होगा। आज कही न कही हम सभी एक प्रकार की पशुता का शिकार होते जा जा रहे है... पर एक बात हमे यह जान लेनी चाहिए कि मानव तभी तक श्रेष्ठ है , जब तक उसे मनुष्यत्व का दर्जा प्राप्त है । बतौर पशु , मानव किसी भी पशु से अधिक हीन है।

आज श्रृजन के नाम पर सोशल मीडिया और पत्र पत्रिकाओं में अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की बली चढा देना कही से भी उचित नही कहा जायेगा। आज हमे शिक्षा के साथ यह भी सिखना होगा कि हम मात्र एक व्यक्ति नहीं है, संपूर्ण राष्ट्र की थाती हैं। हमसे कुछ भी गलत हो जाएगा तो हमारे और हमारे परिवार की ही नहीं बल्कि पूरे समाज और पूरे देश की दुनिया में बदनामी होगी। हमे यह भावना पैदा करनी होगी कि हम कुछ ऐसा करे जिससे कि देश का नाम रोशन हो। अभिव्यक्ति की आजादी एक बहुत बडी जिम्मेदारी होती है और उसे व्यक्त करने पूरी सावधानी बरती जानी चाहिये। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर आक्रामकता सिर्फ एक मुखौटा है जिसके पीछे मनुष्य अपनी कमजोरियों को, अपने से और संसार से छिपाकर चलता है। आज के समय मे भाषाई स्तर पर त्वरित और कठोर प्रतिक्रिया देकर हम अपनी मनुष्यता को खोते जा रहे है।

अंत मे यही कहूंगा कि भाई मेरे आदर्श के दीपक को पीछे मत रखो, दीपक को पीछे रखने वाले , एक दिन अपनी ही छाया के कारण , अपने पथ को , अंधकारमय बना लेते हैं। 
                                                                                                           
  
 
 
 

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सम्पादक

डॉ. लीना