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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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सवाल चौथे स्तंभ की विश्वसनीयता का

खुलेआम दो अलग-अलग मीडिया घराने क्या समाचार पत्र समूह के स्वामी तो क्या टेलीविज़न के संचालक- एक-दूसरे को अपमानित करने, नीचा दिखाने तथा एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने में लगे हुए हैं

निर्मल रानी । भारतीय लोकतंत्र में चौथे स्तंभ का दर्जा प्राप्त मीडिया के विषय में वैसे तो शायर ने कहा है कि 'न स्याही के हैं दुश्मन न सफेदी के हैं दोस्त। 'हमको आईना दिखाना है दिखा देते हैं”। परंतु बदलते समय के साथ-साथ समाज में धन की लालच की पराकाष्ठा के चलते शायद अब मीडिया को दूसरों को आईना दिखाने के बजाए स्वयं अपना मुंह आईने में देखने की ज़रूरत दरपेश है।

मीडिया के विषय पर आयोजित होने वाले बड़े-बड़े सेमीनार अथवा इससे संबंधित वार्ताओं में अक्सर बड़े-बड़े लच्छेदार भाषण मीडिया के दिग्गजों द्वारा सुनाए जाते हैं। क्या किसी समाचार पत्र का मालिक तो क्या उसका मुख्य संपादक,संपादक अथवा समूह संपादक सभी अपने-अपने मीडिया हाऊस की गुणवत्ता, उसी निष्पक्षता तथा निडर होने का बखान करते सुने जाते हैं। इतना ही नहीं बल्कि आजकल तो इन्हीं मीडिया घरानों के बीच तलवारें खिंची भी देखी जा रही हैं। खुलेआम दो अलग-अलग मीडिया घराने क्या समाचार पत्र समूह के स्वामी तो क्या टेलीविज़न के संचालक दोनों ही एक-दूसरे को अपमानित करने, नीचा दिखाने तथा एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने में लगे हुए हैं। जबकि हकीकत तो यह है कि ऐसे दोनों ही घराने चोर-चोर मौसेरे भाई ही हैं। क्या किसी गंभीर मीडिया हाऊस को यह शोभा देता है कि वह एक-दूसरे पर लांछन लगाने के लिए अपने समाचार पत्रों या चैनल का प्रयोग करे? क्या देश के पाठक अथवा श्रोता अब इसी काम के लिए रह गए हैं कि वे मीडिया घरानों की आपसी लड़ाई को बैठकर निहारें? बजाए इसके कि देश-प्रदेश तथा उनके अपने क्षेत्र के वर्तमान हालात के बारे में उन्हें कोई ज्ञानवर्धक व ताज़ातरीन जानकारी दी जाए?

अभी कुछ ही समय पूर्व हुए लोकसभा के आम चुनावों में मीडिया का दागदार चेहरा सामने आया। कुछ चैनल तथा समाचार पत्रों को छोड़कर शेष सभी एकतरफा समाचार वाचन व प्रकाशन करने लगे। और ऐसे कई मीडिया घराने आज तक पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग करते आ रहे हैं। ज़ाहिर है टीवी चैनल अथवा कोई समाचार पत्र-पत्रिका जहां इनसे जनता निष्पक्ष समाचारों के प्रकाशन व प्रसारण की उम्मीद करती है वहीं यही मीडिया एक व्यवसाय भी है। किसी भी मीडिया घराने को अपने सुचारू संचालन हेतु पैसों की भी आवश्यकता होती है। और यह पैसा पत्र-पत्रिकाओं तथा चैनल्स के मार्किटिंग विभाग द्वारा विज्ञापन के रूप में इकट्ठा किया जाता है। जिस टीवी चैनल की अधिक टीआरपी होती है अथवा जिन समाचार पत्रों-पत्रिकाओं की प्रसार संख्या अधिक से अधिकतम होती है उन्हें अच्छी दर पर पर्याप्त विज्ञापन प्राप्त होता है। परंतु मीडिया घरानों के व्यवसायी प्रवृति के कई लालची मालिकों द्वारा केवल प्राप्त होने वाले विज्ञापनों पर ही संतोष नहीं किया जाता बल्कि इनकी लालच इस कदर बढ़ जाती है कि यह मीडिया के मौलिक सिद्धांतों को त्यागने से भी नहीं हिचकिचाते और दुनिया की आंख में अपनी कथित “निष्पक्षता”  की धूल झोंकते हुए पूरी तरह पक्षपातपूर्ण समाचार देने लग जाते हैं। खासतौर पर चुनावों के दौरान यह दृश्य सबसे अधिक देखने को मिलता है। और अगर निष्पक्षता का ढोंग रचने वाले इस मीडिया ने किसी ऐसे राजनैतिक दल के पक्ष में अपने घुटने टेके हैं जो बाद में सत्ता में आ गया हो फिर तो उस मीडिया घराने की और भी पौबारह हो जाती है। यानी एक तो अब उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता दूसरे उसे विज्ञापन के रूप में धनवर्षा की भी कोई कमी नहीं रहती। और संभवत: इस प्रकार की प्रवृति के मीडिया घराने के मालिक निष्पक्षता से अधिक अपने कारोबारी मुना$फे की ओर ही ज़्यादा ध्यान देते हैं।

इन दिनों महाराष्ट्र तथा हरियाणा राज्य विधानसभा चुनावों से रूबरू हैं। यहां कई ऐसे नेता चुनाव लड़ रहे हैं जिनके लिए चुनावों की हार-जीत उनके अपने राजनैतिक अस्तित्व से जुड़ चुकी है। हरियाणा में तो कई ऐसे नेता इन चुनावों में या तो उम्मीदवार हैं या पूरी तरह सक्रिय हैं जो स्वयं अखबारों के मालिक भी हैं। ऑन रिकॉर्ड यदि आप इनसे बात करें तो यह पेड न्यूज़ के बहुत बड़े दुश्मन नज़र आएंगे और अपने अखबार को भी यह लोग निष्पक्ष बताते सुने जाएंगे। परंतु सच्चाई इससे कोसों दूर हैं। हरियाणा में प्रसार संख्या के आधार पर सबसे बड़ा अखबार समझे जाने वाला समाचार पत्र उन नेतारूपी समाचार पत्र स्वामियों को भी नहीं बख्श रहा है जो समाचार पत्र समूह के मालिक होने के अतिरिक्त चुनाव मैदान में भी अपना भाग्य आज़मा रहे हैं। अथवा चुनाव में अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। इस बार तो पेड न्यूज़ के व्यवसाय ने हद ही खत्म कर दी है। कुछ समय पहले तक तो पढ़े-लिखे लोग पेड न्यूज़ की शैली देखकर समझ जाया करते थे कि अमुक प्रकाशित सामग्री पेड न्यूज़ है। क्योंकि ऐसे प्रकाशित समाचारों के अंत में उक्त समाचार के विज्ञापन होने का संकेत बारीक शब्दों में प्रकाशित कर दिया जाता था। पंरतु जैसे-जैसे पेड न्यूज़ को लेकर विरोध शुरु हुआ तथा देश के तमाम बुद्धिजीवियों ने यहां तक कि प्रेस काऊंसिल ऑफ इंडिया ने इस विषय पर संज्ञान लिया वैसे-वैसे पेड न्यूज़ प्रकाशित करने की शैली भी बदल गई। इन दिनों ऐसे अ$खबार सीधे तौर पर किसी संपन्न प्रत्याशी के चुनाव तक के पूरे पैकेज की बात करते हैं। इसी में विज्ञापन तथा समाचार दोनों शामिल हैं। अब पेड न्यूज़ रूपी समाचारों के अंत में उस सामग्री के विज्ञापन होने का कोई संकेत प्रकाशित नहीं किया जाता। यानी महज़ अपनी लालच के चलते मीडिया घराने के लालची मालिक पाठकों के विश्वास को ठेस पहुंचा रहे हैं। साथ-साथ समाचार पत्रों-पत्रिकाओं के प्रति आम इंसान की बनी सकारात्मक सोच के साथ धोखा कर रहे हैं।

ऐसे मीडिया समूह के मालिकों से तथा उन नेताओं से क्या उम्मीद की जा सकती है जो समाचार पत्रों को पैसे देकर अखबारों के माध्यम से अपनी झूठी वाहवाही प्रकाशित करवा रहे हों? हालांकि ऐसा नहीं है कि प्रत्येक प्रत्याशी प्रत्येक समाचार पत्र को पैसे देकर अपनी खबरें प्रकाशित करवाना चाहता हो। दरअसल यह सारा खेल प्रसार संख्या पर आधारित है। जिस समाचार पत्र की जितनी अधिक प्रसार संख्या है उसके अनुसार उसका पैकेज उतना ही कीमती है। परंतु अधिक प्रसार सं या वाले कई अखबार ऐसे भी हैं जो पेड न्यूज़ जैसे अपवित्र व अनैतिक गोरखधंधे में नहीं पड़ते। हालांकि प्रत्याशियों द्वारा उन्हें खरीदने की कोशिश भी की जाती है। परंतु नैतिकता व सिद्धांत की राह पर चलने वाले तथा मीडिया के प्रति बने जनता के भ्रम की लाज रखने वाले समाचार पत्र ऐसे प्रत्याशियों के झांसे में नहीं आते। निश्चित रूप से ऐसे निष्पक्ष व ईमानदार मीडिया हाऊस पर गर्व किया जाना चाहिए। यहां यह कहना भी प्रासंगिक है कि जो समाचार पत्र पेड न्यूज़ का शिकार नहीं हैं तथा पेड न्यूज़ जैसी भ्रष्ट व पक्षपातपूर्ण व बिकाऊ व्यवस्था को अनैतिक मानते हुए इसका विरोध करते हैं उन्हें इन्हीं चुनावों के दौरान ऐसे प्रत्याशियों तथा समाचार पत्रों को भी प्रमाण सहित बेनक़ाब करना चाहिए जो पैसे देकर समाचार पत्रों में अपने झूठे कसीदे प्रकाशित करवाते हों।

ऐसा करने से जनता को उस तथाकथित बड़े व अधिक प्रसार सं या वाले समाचार पत्र का वास्तविक व घिनौना चेहरा भी दिखाई देगा। इसके अतिरिक्त पाठकों का भी यह फर्ज है कि वे ऐसे बिकाऊ समाचार पत्रों में प्रतिदिन प्रकाशित होने वाली उम्मीदवारों की पक्षपातपूर्ण सामग्री के स्थान तथा विषय सामग्री को देखकर स्वयं यह अंदाज़ा लगाने की कोशिश किया करें कि अमुक प्रकाशित सामग्री पेड न्यूज़ ही है। आमतौर पर पेड न्यूज़ के रूप में प्रकाशित होने वाली सामग्री भले ही समाचारों के रूप व समाचार शैली में क्यों न लिखी जाती हो परंतु इस प्रकार का पूरा का पूरा समाचार संबंधी आलेख उस प्रत्याशी के कार्यालय द्वारा ही तैयार किया जाता है जिसने पैसे देकर समाचार पत्र में अपना स्थान चुनाव की तिथि तक के लिए पैकेज के रूप में सुरक्षित करा लिया हो। बहरहाल अनैतिकता का यह खेल कब समाप्त होगा, समाप्त होगा भी या नहीं इसके विषय में तो कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस घिनौने व शर्मनाक खेल में लोकतंत्र के चार स्तंभों में से दो स्तंभ आपस में एक-दूसरे से मिलकर यह खेल खेलते हैं। परंतु इतना ज़रूर है कि पूरी तरह से अनैतिक समझे जाने वाले पेड न्यूज़ जैसे कारोबार में शामिल समाचार पत्र व टीवी चैनल मालिकों के चलते चौथे स्तंभ की विश्वसनीयता पर प्रश्रचिन्ह अवश्य लग गया है।

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना