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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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विरोध के बाद मिली आधी तनख्वाह

शुक्रवार और बिंदिया के कर्मियों का भविष्य अब भी अधर में

स्वतंत्र मिश्रा/ मित्रों आप सबका बहुत बहुत आभार। ।

कल की मेरी और बहुत सारे लोगों की लिखी पोस्ट और आप लोगों के मिले समर्थन का असर जानिये। फिलहाल कल शुक्रवार और बिंदिया के कुछ लोगों की जून की तनख्वाह का 50 फीसदी मिल गया है और कुछ फ्रीलान्स पत्रकारों के चेक भी बने हैं. हमलोग अभी भी इस सुविधा से महदूद हैं. प्रबंधन कह रहा है की हमारे पास पैसा नहीं है और हम इसी तरह आपलोगों का बकाया दे पाएंगे। प्रबंधन यह भी कह रहा है की जिनको नौकरी से निकला गया है उनका हिसाब बाद में होगा। मई का 60 फीसदी जून में और 40 फीसदी अगस्त में मिला था तो हिसाब लगाया जाए तो जो लोग 7 साल से काम कर रहे हैं उनके 6-6 लाख बकाये हैं. मतलब वे हमें अगले साल के सितम्बर तक भी पैसा नहीं दे पाएंगे. कंपनी 31 सितम्बर से 18 सेक्टर का ऑफिस बंद कर रही है. वह चाह रही है ऑफिस बंद करने या फिर धीरे धीरे लोग अपनी रोजी रोटी खोजेंगे और व्यस्त हो जायेंगे। लोग अपनी किस्मत को कोसेंगे और कंपनी हमारा पैसा मारकर न्यारी वारी होती रहेगी। हम इनके झांसे में में नहीं आने वाले। 15 सितम्बर का मतलब 15 सितम्बर ही होता है. हम पर इस मुकर्रर तारीख के बाद कोई नैतिक बोझ भी नहीं रह जायेगा और हम कानूनी कारवाही करने को बाध्य होंगे। हमें कुछ ट्रेड यूनियन और पत्रकार एसोसिएशन भी मदद करने की बात कर रहे हैं. कुछ हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध वकील भी हमें समर्थन देने की बात कर रहे हैं।

आपने हमारी लड़ाई को समर्थन देने की बात की. ज़रुरत पड़ी तो हम आपसे फिर अपील करेंगे। आपका समर्थन रहा तो हम अपनी वाजिब लड़ाई में कामयाब होंगे। बाकी तो बहुत सारे लोग पुरस्कार लेने, झटकने, बधाई देने में और खा-पीकर मर-खप जाने में ही अपनी जिंदगी को सफल मानते हैं. धयान रखियेगा कि आपको ये पुरस्कार भी यही कहकर दिए जाते हैं कि आपने जोखिम भरी स्टोरी लिखी, या जीवन का यथार्थ लिखा, वगैरह वगैरह। आप ओजस्वी हैं, प्रतिभाशाली हैं लेकिन इसका महत्व तभी तक है जब आप आपने आसपास की दिक्कतों को महसूस करें और उसपर ईमानदार ढंग से किसी न किसी तरह प्रतिक्रिया करें। कृपा करें और इसे कोई व्यक्तिगत टिप्पणी की तरह न लें. अरे सब कीजिये लेकिन आदमी होने को भी तो प्रमाणित करते रहिये। अन्यथा हरिशंकर परसाई की एक बात मैं हमेशा याद रखता हूँ..... केचुएं ने अपने हज़ारों साल के इतिहास में यही सीखा की रीढ़ का न होना ही अच्छा है........

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सम्पादक

डॉ. लीना