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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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राजदेव की हत्या पर विपक्षी दल और मीडिया संस्थानों का शोक कितना सच्चा और कितना बनावटी

हेमंत कुमार/ जो ताकते पूरे देश को एक रंग में रंगने की साजिश कर रही हैं,वे बिहार और बिहारियों से खौफ खाती हैं. उनके आंसू घड़ियाली है.

सीवान में 'हिन्दुस्तान' अखबार के ब्यूरो चीफ राजदेव रंजन की हत्या के चौबीस घंटे बाद भी पुलिस के हाथ ऐसा कुछ भी नहीं लगा है जिससे इस हत्याकांड के पीछे की वजह के बारे में कुछ संकेत मिल सके.हां, एक बात तो साफ है कि हमलावरों का मकसद राजदेव को डराना,धमकाना या घायल करना नहीं था.वे उन्हें मौत की नींद सुलाना चाहते थे.इसीलिए बेहद नजदीक से पांच गोलियां उनके माथे में उतार दी.ताकि जिंदा रहने की कोई गुंजाइश न बच सके. राजदेव की हत्या बेहद दुखद और निंदनीय है.इस घटना से मीडिया जगत आहत है. विपक्षी दल भाजपा हमलावर है. और सरकार बचाव की मुद्रा में है. हर बार की तरह सरकार कह रही है कि हत्यारे बख्शे नहीं जायेंगे.भाजपा की ओर से बिहार में 'जंगलराज-2' और 'महाजंगलराज' के रटे-रटाये आरोप लगाये जा रहे हैं. पत्रकार बिरादरी का छोटा हिस्सा न्यूज रूम से निकलकर सड़क पर विरोध दर्ज करा रहा है.

राजदेव की हत्या की खबर को अलग-अलग अखबारों और टीवी चैनलों में अलग-अलग ढ़ंग से जगह मिली है. किसी ने बेहद छोटी तो किसी ने थोड़ी बड़ी खबर दी है. हां, हिन्दुस्तान अखबार ने पहले और दूसरे पन्ने पर 'ब्लैक एंड ह्वाइट' में केवल राजदेव हत्याकांड से जुड़ी खबरे छापी है. किसी अखबार के लिए अपने रिपोर्टर की हत्या का शोक मनाने और विरोध जताने का शायद यही बेहतर तरीका हो सकता है.

पर,सवाल उठता है कि राजदेव की हत्या पर विपक्षी दल भाजपा और मीडिया संस्थानों का शोक कितना सच्चा अौर कितना बनावटी है? यह सवाल पूछने की खास वजह है. वह यह है कि बिहार में राजदेव की हत्या से ठीक 24 घंटा पहले झारखंड के चतरा जिले में पत्रकार इंद्रदेव यादव उर्फ अखिलेश सिंह की गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी. यह खबर बिहार के अखबारों में छपी नहीं या ऐसे जगह छपी जो दिखी नहीं. गौर करने वाली बात है कि बिहार में छपने वाले तमाम अखबार झारखंड में भी छपते हैं. नेशनल न्यूज चैनलों में तो इसे नोटिस तक नहीं किया गया.कुछेक लोकल चैनलों पर खबर इसलिए दिख गयी क्योंकि उप चुनाव के सिलसिले में झारखंड की यात्रा पर निकले राजद प्रमुख लालू प्रसाद ने इंद्रदेव हत्याकांड पर अपनी प्रतिक्रया दी थी. अन्यथा झारखंड में पत्रकार की हत्या की खबर दफन हो जाती.न्यूज ब्रॉडकास्ट एसोसिएशन के एन के सिंह दिल्ली में राजदेव हत्याकांड पर तल्ख टिप्पणी करते एक चैनल पर दिख गये,लेकिन उनकी जुबान पर झारखंड या इंद्रदेव का नाम नहीं आया.

ऐसे में राजदेव की हत्या को बिहार में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की हत्या बताने वालों की मंशा सवालों के घेरे में है.वही मीडिया संस्थान,वही विपक्ष झारखंड की घटना पर मौन क्यों साधे है. दरअसल ये न तो राजदेव के हमदर्द हैं , न लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के हिमायती हैं. इनका अपना एजेंडा है.भाजपा को नीतीश सरकार से लड़ने का बहाना चाहिए.विपक्षी दल के नाते यह उसका लोकतांत्रिक हक है.लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि पड़ोसी राज्य में उसी की सरकार चल रही है. राजदेव हत्याकांड पर 'शोकाकुल' दिख रहे मीडिया संस्थानों के लिए यह घटना उनके पाप छिपाने का जरिया भर है. अगर पत्रकारिता आज सबसे अधिक असुरक्षित (कैरियर और सोशल सिक्युरिटी के लिहाज से) पेशा है,तो इसका दोषी मीडिया संस्थानों को ही माना जा रहा है. किसी पत्रकार के मरने-जीने से इनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

2005 में जाइए,जवाब मिलने लगेंगे.

राजदेव की हत्या को लेकर कई अनसुलझे सवाल हैं,जिसका जवाब पुलिस ही नहीं हिन्दुस्तान अखबार के रहनुमाओं को भी देना चाहिए. इन सवालों का सिरा राजदेव पर अक्तूबर,2005 में हुए हमले से जुड़ा है. ये सवाल हिन्दुस्तान में 14 मई ,2016 को छपी दुर्गाकांत ठाकुर की रिपोर्ट से उपजे हैं. उस रिपोर्ट के मुताबिक जब राजदेव पर हमला हुआ था ,तब दुर्गाकांत दफ्तर में ही थे.राजदेव को बचाने के क्रम में वह बेहोश हो गये थे. होश में आने पर उन्होंने ही पुलिस को सूचना दी थी.पुलिस आयी ,लेकिन उस घातक हमले की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करायी गयी.लेकिन थानेदार ने दो पुलिसवालों को दफ्तर की सुरक्षा में तैनात कर दिया. राजदेव सीवान के निवासी थे.चप्पे-चप्पे से वाकिफ निडर और व्यापक पहचान वाले थे. अगर उन्होंने किसी कारणवश तब रिपोर्ट नहीं लिखवायी ,लेकिन अखबार प्रबंधन को तो जानकारी दी होगी या प्रबंधन ने जानकारी ली होगी.क्या थी वह बात जिसकी वजह से रिपोर्ट दर्ज कराने से पीछे हट गये थे राजदेव. उन दिनों तो सीवान में शहाबुद्दीन का जलवा भी ठंडा पड़ चुका था.पुलिस दबाव से बाहर आ चुकी थी. राजदेव ने अपने सहकर्मियों से भी तो चर्चा की होगी. किसी धमकी और उसकी वजह बतायी होगी! हत्याकांड से परदा हटाने के लिए 2005 के हमले का कारण जानना जरूरी लग रहा है. जवाब प्रबंधन और तब के सहकर्मियों से मिल सकता है। 

(हेमंत कुमार के फेसबुक वाल से साभार) 

 

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सम्पादक

डॉ. लीना