अरुण खोटे । "मीडिया में दलित" के होने से फर्क तभी पड़ सकता है जब मीडिया में दलित मुद्दों के लिये स्पेस हो। क्योंकि मीडिया पूर्णरूप से निजी और ब्राह्मणवादी मानसिकता वाले पारम्परिक उद्योगपति वर्ग के हाथो में है। इसलिये मीडिया के सामने यह लेकर आने की जरुरत है कि आज दलित वर्ग भी बाजार में योगदान कर रहा है।
समाचार पत्र /पत्रिकाओ के ग्राहक और टीवी दर्शक के रूप में दलितो का सीधे योगदान है और उनमें प्रकाशित / प्रसारित विज्ञापन आदि उपभोक्ता वस्तुओं के ग्राहक के रूप में दलित प्रायोजक और विज्ञापनदाता को लाभ दे रहे हैं। और इसी आधार पर दलितो के मुद्दे पर मीडिया में "स्पेस " का दावा किया जा सकता है। क्योंकि दलितो का एक छोटा सा 3 % से 4 % वर्ग मध्य या निम्न मध्य वर्ग के रूप में पैदा हो चूका है। शहरों ने अपने दायरे में गांवों को व्यापक तरीके से प्रभावित किया है। और उसका एक बड़ा हिस्सा बाज़ारवाद कि चपेट में आ चूका है। दलितो का एक छोटा सा हिस्सा इसमें शामिल है जो बाजार में योगदान कर रहा है।
आज मीडिया लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कि भूमिका से बहुत दूर जा चूका है, समाचार जगत एक इंडस्ट्री में बदल चूका है और समाचार एक "उत्पाद" का स्वरूप ग्रहण कर चुके हैं। जिसके चलते उससे उसकी सामाजिक सरोकारिता की भूमिका पर सवाल करना या आपेक्षा करना कितना तार्किक हो सकता है ? मैं ऐसे तमाम दिल्ली से लेकर लखनऊ तक के दलित पत्रकारो को जानता हुँ जो अपनी पहचान को छिपाकर सामान्य विषयो पर पत्रकारिता कर रहे हैं। यह सभी जानते हैं कि इनकी जाति खुलते ही या फिर दलित मुद्दे को उठाते ही येनकेन प्रकारेण इन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जायगा। और जो जाति की पहचान के साथ काम कर रहे हैं उनके लिये चुप रहना उनकी मज़बूरी है। इसलिये वह दलित मुद्दों के अलावा अन्य विषयों पर पूरी बेबाकी से पत्रकारिता करते हैं। लेकिन तादाद में इनकी संख्या इतनी कम है कि इसे प्रतिशत में आंकना अन्याय होगा। ऐसा भी होता देखा जाता है कि अंततः समाचार समूह के भेदभावपूर्ण रवैये के चलते दलित वर्ग के पत्रकार अन्य क्षेत्रो में स्थानांतरित हो जाते हैं।
बाज़ारवाद का एक दूसरा पक्ष यह भी है कि यह लाभ हानि कि परिभाषा समझाता है और अगर दलितो को मीडिया में स्पेस और प्रतिनिधित्व चाहिये तो बाज़ार से उसकी ही भाषा में संवाद करना पड़ेगा। जरुरत इस बात कि है कि शोधो और अध्ययन के माधयम से बाज़ार में उप्भोक्ता के रूप में दलितो के योगदान और समाचारो पत्र / पत्रिकाओ के ग्राहक के रूप में और TV के दर्शक के रूप में दलितो के योगदान को चिन्हित करने कि आवशयकता है। और मेडिया इंडस्ट्री को चुनौती दे कर दलितो के मुद्दे पर स्पेस और उनके प्रतिनिधित्व का दावा किया जा सकता है।
न्यूज़रूम में दलितो की भागीदारी और समाचारो के सभी वर्गों मैं दलितो से जुड़े विषयो कि सुनिश्चतता के लिए सरकार के द्वारा अफर्मेटिव एक्शन लिये जेन कि व्यापक आवशयकता है। अमेरिका में काले लोगों के प्रतिनिधित्व को न्यूज़ रूम में सुनिश्चित करने के लिए उठाये गये इस प्रकार के कदमो के नतीज़े काफी हद तक सकारात्मक रहे हैं। सरकारी विज्ञापन पाने वाले और सरकार द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम वाले संचार माध्यमो को दलितों के प्रतिनिधित्व और स्पेस के लिये बाध्य किया जा सकता है।
आज लगभग सभी मीडिया समूह के पास अपने खुद के मीडिया प्रशिक्षण संस्थान हैं जहाँ दलित वर्ग के लिये कुछ स्थान आरक्षित किये जाने की अति आवशयकता है। डॉ अम्बेडकर दलितो के अपने मीडिया के प्रबल समर्थक थे और अपने समय में उन्होंने सफल प्रयास भी किये। आज़ादी के बाद भी महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में कुछ सफल प्रयास हुऐ है। कुछ एक प्रयास अभी हाल फिलहाल में भी हो रहे हैं जो काफी हद तक उम्मीद पैदा करते हैँ। हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी उन्हें प्रोत्साहन और सहयोग देने की है। उनके अनुभवों को भी शामिल किया जाता तो और बेहतर रहता।
वैसे समय आ गया है जब सरकार लोकसभा - राज्यसभा चैनल कि तर्ज़ पर दलितों और अन्य दबे कुचले वर्ग पर केंद्रित एक नये और स्वतन्त्र "सामाजिक चैनल और सामाजिक समाचार पत्र" की शुरुवात करे जो इन वर्गों के मुददो पर एक साकारत्मक बहस के माध्यम से अन्य समाजो को दलितों और अन्य उपेक्षित वर्गों के प्रति जवाबदेह और संवेदनशील बनाने कि भूमिका अदा करे। जहाँ तक दलितो के अपने मीडिया को लेकर अबतक जीतने भी प्रयास हो रहे हैं या अतीत में हुये हैं अधिकतर के असफल होने के पीछे महत्वपूर्ण कारण पाठकवर्ग के चयन और प्रकाशित सामग्री में जुड़ाव की कमी बड़ा कारण नज़र आता है।(अरुण खोटे के फेसबुक से )।
अरुण खोटे---Former Cheif Executive, Peoples Media Advocacy & Resource Centre-PMARC at Human Rights Campaign