तेजी ईशा। क्या हमारे आसपास हो रहे बदलावों में मीडिया की भी कोई भूमिका होती है ? हर रोज़ जो टीवी सीरियल,न्यूज़, फ़िल्में, सोशल मीडिया के अलग अलग माध्यम हम इस्तेमाल करते हैं उनका हमारेसमाज पर प्रभाव पड़ता है ? इन सवालों के जवाब प्रथम दृष्टया ना होते हैं। अक्सर कहा जाता है की मीडिया समाज का आईना है, इसमें वही दिखता है जो समाज में घट रहाहोता है। लेकिन थोड़ी सी ही पड़ताल हमें दिखाती है कि ये पूरा सच नहीं है। जो मीडिया हमें दिखाता है उसका भी उतना ही प्रभाव हमपर पड़ता है। सामाजिक परिवेश में धार्मिक सहिष्णुता पर इसका असर देखा जा सकता है। कई ऐसे रीति रिवाज़ोंसे आज हम परिचित होते हैं जिनका कल तक नाम भी नहीं सुना था। नव वर्ष मार्च के महीने में भारत के अलग अलग प्रान्तों में किस तरह मनाया जाता है, या फिर और आसानी से देखना हो तो टीवी सीरियल से घरों में घुस आये करवाचौथ के त्यौहार में ये आसानी से दिख जायेगा। कल तक जहाँ ये त्यौहार पंजाब, हरियाणा, दिल्ली के कुछ इलाकों में सीमित था, अब कई घरों में मनाया जाने लगा है ।
ऐसे ही बरसों पहले गाँव के लोग साथ मिल कर एक समुदाय के लिए कुछ बनाते थे। सांझा चूल्हा होता था जिसपर कई परिवारों का भोजन बनता था या एक संयुक्त परिवार का खाना पकता था वो धीरे से गायब हो गया था। बरसों पहले जब दशरथ मांझी बिहार के गया जिले में पहाड़काट कर सड़क बनाने निकले तो उनका साथ देने के लिए कोई नहीं था। उन्होंने अकेले ही सड़क बनाई। लगभग ऐसा ही करने जब एलेग्जेंडर पाम निकले तो वो क्राउड फंडिंग के जरिये चालीस लाख की रकम भी जुटा पाए, अपने साथ काम करने वाले मजदूरों के लिए कई बार भोजनपानी की व्यवस्था भी लोग मिल जुल कर उनके लिए करते रहे। इस तरह करीब सौ किलोमीटर लम्बी सड़क वो सोशल मीडिया और मेन स्ट्रीम मीडिया के मदद से बना पाए।
हस्त शिल्प और कला लगभग खो से गए थे। बरसों के विदेशी शासन ने भारत के हस्त शिल्प उद्योग और कलाको लगभग ख़त्म कर डाला था। कलाकार बहुत थोड़े से बचे थे और उनके पास इतने साधन नहींथे की वो अपनी कला का प्रचार कर सकें। अचानक एक दिन टीवी न्यूज़ में प्रधानमंत्री किसी राजनैयिक को मधुबनी पेंटिंग उपहार में देते दिख जाते हैं और इस तरह एक कला का प्रचार हो जाता है। क्या मीडिया के योगदान के बिना छाऊ नृत्य, राई नृत्य, की कल्पना कर सकते हैं ? ‘चिकनी चमेली’ के बिना महाराष्ट्रा की ‘लावणी’ किसे याद रह जाती ? तीजनबाई की आवाज और जोश लोग भूल नहीं जाते ? सारे लोग बारात में भांगड़ा भी नहीं करते शायद!
सच की आवाज को दबा देना किसी ज़माने में बहुत आसान था। मंसूर के टुकड़े टुकड़े करने के साथ ही कोई अनलहक कहने वाला भी नहीं बचता था। आज गोलियों की आवाज पर कोई एक ट्विटर पर ट्वीट कर देता है, अचानक वहां कई कैमरे पहुँच जाते हैं और दुनियाँ जान जाती है कि अल क़ायदाका मुखिया निपटा दिया गया। चार्ली हेब्दो के कार्टून गोलियों से मिटते ही नहीं। आतंक से जारी जंग में हम एक मोर्चा और फ़तह कर आये हैं। क्या मीडिया के बिना ये संभव होता ?
एक दुसरे तक अपनी बात पहुँचाने का माध्यम धीरे धीरे और विस्तार ले रहा है। पहले जहाँ ख़बरें एकतरफ़ा होती थीं अब बात चीत दोनों ओर से होती है। प्रिंट, रेडियो और फिल्मों के ज़माने तक पाठक, श्रोता और दर्शक तक तो आवाज पहुँच जाती थी मगर उनकी आवाज़ मीडिया के दूसरी तरफ बैठे पत्रकारों, कलाकारों और निर्माताओं/निर्देशकों तक या तो नहीं पहुँचती थी या देर से पहुँचती थी। टीवी और सोशल मीडिया के उद्भव के साथ ही हम यहाँ भी बदलाव देख रहे हैं। दोनों तरफ से होती बात चीत ने अब समाज में परिवर्तन लाने की और ज्यादा ताकत मीडिया को दे दी है।
समय आ गया है कि हम इसी नजरिये से मीडिया के सामाजिक बदलाव में भूमिका पर एक नजर डालें। एक दिन अचानक आ खड़े हुए सोशल मीडिया ने सिर्फ समाज पर ही नहीं सोचने और दुनियां को देखने –दिखने के प्रचलित मीडिया के तरीकों पर भी एक प्रश्न चिह्न लगा दिया है | सामाजिक बदलाव में सोशल मीडिया की भूमिका पर भी नज़र डालें।