संजय कुमार/ आरक्षण एक संवैधानिक व्यवस्था है जो देश और समाज में हासिये पर सदियों से रहे अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ी जाति यानी बुहजन को मुख्यधारा में लाने की पहल है। इस पहल को दिव्ज समाज ने आज तक स्वीकार नहीं किया है। वह इसे समाज में खटास उत्पन्न का दोषी मानता है और आरक्षण के लिए जातिगत आधार को खरिज कर, आर्थिक आधार को लागू करने की वकालत करता रहता है।
आरक्षण से दलितों की दूसरी पीढी उच्च संस्थानों में आने लगी है तो कुतर्क किया जा रहा है कि ये गरीब दलितों का आरक्षण हड़प रहे हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती बल्कि योग्यता और अयोग्ता का सवाल भी खड़ा कर आरक्षण व्यवस्था को सवालों के घेरे में लेने की साजिश रची जा रही है।
ऐसे में आरक्षण के सवाल पर भारतीय मीडिया बहुजन के साथ खड़ा नहीं दिखता है।देखा जाये तो यह आरक्षण के समर्थन में कम बल्कि विरोध में ज्यादा खड़ा रहता है। मंडल कमीशन के लागू होने के दौरान इसका चरित्र सब के सामने उजागर हो चुका है।
भारतीय प्रारूप संविधान कि धारा 10 में अनुसूचित जाति, जनजाति को नौकरियो में आरक्षण का प्रावधान है। तो वहीं, धारा 10 संशोधन में पिछडों को शामिल किया गया है। बहुजन के लिए आरक्षण एक संवैधानिक व्यवस्था है ताकि समाज में जो गैरबराबरी है उसे पाटा जाये लेकिन, आरक्षण के विरोधी इसे स्वीकार नहीं करते हैं और समय समय पर आरक्षण के खिलाफ आंदोलनया खिलाफत करते रहते हैं।
इसमें मीडिया की भूमिका चाहे वह प्रिंट हो या इलैक्ट्रोनिक उनके साथ खड़ा रहता है।आरक्षण का विरोध करने वाले के साथ मीडिया का खड़ा होना उसके चरित्र को उजागर करता दिखता है वहीं आरक्षण के समर्थन में खड़े रहने वाले के पक्ष में मीडिया तब तक खड़ा नहीं होता जब तक कोई बड़ी घटना न हो जाये। यह भारतीय मीडिया का दिव्ज प्रेम सावित करता है। भारतीय संविधान ने आरक्षण को लेकर जो हक बहुजन को दिया है उसे नकारा नहीं जा सकता है।
देखा जाये तो शुरू से ही मीडिया का साथ बहुजन को नहीं मिला है तमाम व्यवस्था के बीच अभी भी सरकारी सेवा में बहुजन, दिव्जों की तुलना में आधे भी नहीं है। खास कर शीर्ष पद पर तो बराबरी बिलकुल नहीं है। जब जब आरक्षण का सवाल सामने आता है। आर्थिक आरक्षण का हवाला दिया जाने लगता है। संगठन, इस दिशा में सक्रिय हो जाते है। वहीं, कुछ दिव्ज जातियां अपने को आरक्षण पाने के लिए बहुजन में शामिल करने को लेकर गाहे-बगाहे आंदोलन कर दबाव की राजनीति करती हैं।
प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया उनका साथ भी देती है, उनके आंदोलन एवं मांग की खबरों से मीडिया पट जाती है। इसकी वजह साफ है।प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया पर दिव्जों का काबिज होना।2006 में भारतीय मीडिया के राष्ट्रीय सर्वे में साफ हो चुका है कि मीडिया के र्शीष पदों पर दिव्जों का कब्जा है। बहुजन की भागीदारी मीडिया में नहीं के बराबर है। जो भी हैं वे र्शीष पद यानी फैसले लेने वाले पद पर नहीं है।
ऐसे में तस्वीर साफ है कि प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया पर काबिज दिव्ज आपकी बातों की वकालत क्यों करें ? वकालत वह अपनी कौमकी करती है। अगर जगह दी भी तो अंदर के पेज में ऐसी जगह लगा देंगे कि ढूंढते रह जायेंगे। यहीं हाल इलैक्ट्रोनिक मीडिया की है। प्राइम टाइम में नहीं दिखा कर औड टाइम में दिखा देंगे।
देखा जाये तो पूरे मसले को प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया चीजों को भ्रम की स्थिति में पहुँचाने की पूरजोर कोशिश करती है आरक्षण के विराध में पहलूओं को खोज कर उस पर गलथोथरी करती हैं और अंत में आर्थिक पक्ष को रख बहस को संवेदनशील बनाते हुए जहर उगलने लगती है। जबकि, आरक्षण के संवैधानिक पक्ष पर चुप्पी साध लेती है।
बराबरी एवं गैर बराबरी तथासदियों से हासिये पर रहे बहुजनों की स्थिति उन्हें नहीं दिखती है इस बात पर बात नहीं होती कि आरक्षण का प्रावधान आर्थिक लाभ पहुंचाना नहीं है बल्कि मसला बराबरी में लाते हुए मुख्यधारा से जोड़ना है। आरक्षण का विरोध करने के पीछे मीडिया का चेहरा साफ है। आरक्षण की जरूरतों पर बात नहीं होती है।
बल्कि मिल रहे आरक्षण पर सवाल खड़े किये जाते हैं कि अगर कोई बुहजन संपन्न है तो उसे इसका लाभ न दिया जाये। उपर से राजनीति का भी सहारा उसे मिल जाता है। आरक्षण का वकालत नहीं करने वाले प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया को उस समयबल मिल जाता है जब कोई बहुजन नेता किसी समारोह में आर्थिक आरक्षण के प्रावधानों का समर्थन कर देता है।यहाँ नाम देने की जरूरत नहीं कई बहुजन नेताओं का बयान या संबोधन प्रिंटऔर इलैक्ट्रोनिक मीडिया पर आ चुका है। मीडिया ने उसे हाथों-हाथ लेते हुए स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसी खबरों को लीड बनाया जाता है वहीं, आरक्षण की वकालत में लीड क्या, खबर न्यूज रूम तक जा ही नहीं पाती है।
बहुजनों को आरक्षण क्यों के, प्रावधानों में सकारात्मक प़क्ष की जगह नकारात्मक पहलू देखने को मिलता है। इन सबके पीछे मीडिया का बहुजन के खिलाफ बने मांइड सेट है। तभी तो सूचना के अधिकार से बहुजन आरक्षण के खुलासे ये मुंह छुपातें हैं।आंकड़े बताते हैं कि अभी बहुजन बहुत पीछे हैं। आरटीआई से चैंकाने वाली जानकारी मिली है। केन्द्रीय मंत्रालयों में अवरसचिव से लेकर सचिव स्तर तक सिर्फ 5.40 फीसदी पिछड़ा और 8.63 फीसदी अनुसूचित जाति वर्ग के लोग ही पहुंच पाए हैं। जबकि सामान्य वर्ग से करीब 82 फीसदी लोग कार्यरत हैं।आरटीआई कार्यकर्ता महेन्द्र प्रताप सिंह ने कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) में सामान्य, पिछड़ा, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति वर्ग के ग्रुप ‘ए’ अधिकारियों की संख्याकी जानकारी मांगी थी। सितंबर 2016 में डीओपीटी ने केन्द्रीय मंत्रालय के अवर सचिव, उप निदेशक, निदेशक, संयुक्त सचिव, अतिरिक्त सचिव और सचिव या इसके समकक्ष पदों की सूची आरटीआई के जवाब में दी।
आरटीआई दस्तावेजों के मुताबिक ओबीसी वर्ग का एक भी अधिकारी केन्द्रीय मंत्रालयों के सबसे बड़े पद सचिव व अतिरिक्त सचिव नहीं है। जबकि सचिव पद पर सामान्य वर्ग के 110 और एससी वर्ग के सिर्फ दो अधिकारी ही कार्यरत हैं। वहीं अतिरिक्त सचिव पद पर 106 अधिकारी सामान्य, पांच-पांच अधिकारी एससी और एसटी वर्ग के अधिकारी हैं। उधर, अवर सचिव स्तर के पदों पर 184 अधिकारी सामान्य वर्ग, सिर्फ अधिकारी ओबीसी वर्ग, 22 अधिकारी एससी वर्ग और 19 अधिकारी एसटी वर्ग के अधिकारी कार्यरत हैं। (संदर्भ- http://hindi.siasat.com/news/rti RTI से ख़ुलासा, सिर्फ 13 फीसदी दलित-पिछड़े केन्द्रीय मंत्रालयों में उच्च पदों पर January 22, 2017 Election 2017, India, Uttar Pradesh) ।
आरक्षण के सच को मुख्य मीडिया सामने नहीं लाती है। जो भी सच है वह सोशल या वेब मीडिया पर देखा जा सकता है। सूचना के अधिकारी से आरक्षण की जो तस्वीर सामने आयी है वह एक आइना है। आरक्षण का विरोध करने वालों को दिखता है लेकिन वे देखना नहीं चाहते। जब सवाल उठने लगते हैं तो विरोध शुरू हो जाता है। आर्थिक आधार सहित कई तरह के आरोप-प्रत्यारोप मीडिया के माध्यम से आने लगते हैं उपर से राजनीतिक हवा भी साथ दे जाती है।
ऐसे में सरकार को सामने आ कर कहना पड़ता है कि आरक्षण के प्रावधानों के साथ कोई छेड़ छाड़ नहीं होगा,आरक्षण बहुजनों को अधिकार। देखा जाये तो मीडिया गैरबराबरी के फासले को मिटाने के लिए कोई पहल करती नहीं दिखाती है। जिस तरह से अमेरिकन मीडिया में अस्वेतों को प्रवेश देने केलिए विशेष अभियान चलाया गया और आज वहंा की तस्वीर बदल चुकी है। लेकिन भारत में यह पहल क्यों नहीं दिखती ? जरूरत है एक बड़े बदलाव की, जो समाज को बराबर करें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है सामाजिक मुद्दों पर लिखते है)