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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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दलाली व चाटुकारिता के बाद अब चोरी का भी तडक़ा?

भारतीय मीडिया को तरह-तरह के नामों से नवाज़ा जा रहा 

तनवीर जाफरी/ निश्चित रूप से दुनिया के अधिकांश देश ऐसे हैं जो न केवल दिन-प्रतिदिन तरक्की कर रहे हैं बल्कि ऐसे देशों का सामाजिक ढांचा भी परिवर्तित होता जा रहा है। दुनिया के अनेक देश रूढ़ीवाद से मुक्ति पाने की कोशिश में हैं। समाज से बुराईयों को अलविदा कहने के प्रयास किए जा रहे हैं। अशिक्षा तथा अंधविश्वास से दुनिया पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रही है। सारी दुनिया इस समय मान-सम्मान  व प्रतिष्ठा अर्जित करने के पीछे दौड़ रही है। ज़ाहिर है इस दौड़ में दुनिया के अनेक देशों को सफलता भी हासिल हो रही है। परंतु यदि हम अपने देश की हकीकत को निष्पक्ष रूप से देखने की कोशिश करें तो भले ही हमारा देश प्रथम दृष्टया देखने में तो अन्य देशों की तुलना में विकास और प्रगति की राह पर आगे बढ़ता हुआ ज़रूर दिखाई देगा। परंतु दरअसल हमारे समाज ने अपने ऊपर दोहरेपन का एक ऐसा आवरण डाल रखा है जिससे हम भीतर से तो कुछ और होते हैं परंतु दिखाई कुछ और देना चाहते हैं। हमारे देश के लोकतंत्र के चारों स्तंभों का इस समय लगभग यही हाल हो चुका है। देशवासी पहले न्यायपालिका पर थोड़ा-बहुत विश्वास भी रखते थे परंतु पिछले दिनों जिस प्रकार उच्चतम न्यायालय की सर्वोच्च पीठ के चार सबसे वरिष्ठ न्यायधीश उच्चतम न्यायालय के मु य न्यायधीश के तथाकथित पक्षपातपूर्ण व कथित पूर्वाग्रही फैसलों से दु:खी होकर स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार मीडिया के माध्यम से देशवासियों को संबोधित करते हुए अपनी बेबसी का इज़हार कर रहे थे उससे साफ ज़ाहिर हुआ कि भारतीय लोकतंत्र के चारों स्तंभ इस समय भीषण संक्रमणकालीन दौर से गुज़र रहे हैं।

इस समय भारतीय मीडिया को गोदी मीडिया, बिकाऊ मीडिया, दलाल मीडिया और भक्त मीडिया जैसे तरह-तरह के नामों से नवाज़ा जा रहा है। मीडिया को इस प्रकार के ‘विशेषणों’ से और कोई नहीं बल्कि मीडिया का ही एक ऐसा छोटा सा वर्ग ’सुशोभित’ कर रहा है जो मीडिया की चौथे स्तंभ के रूप में बनी लाज को बचाए रखने का ख्वाहिशमंद है। परंतु ऐसे में बुनियादी सवाल यह है कि जो व्यक्ति अपनी अंतर्रात्मा से ही चोर-उचक्का, बिकाऊ, दलाल या अपराधी प्रवृति का है, फिर आखिर ऐसे व्यक्ति को किसी वैचारिक उपदेशों या नियमों अथवा कानूनों या मीडिया की संहिता से कैसे बांधा जा सकता है? और खुदा न खास्ता यदि किसी मीडिया घराने के संपादक महोदय या मीडिया समूह के स्वामी ही चौथे स्तंभ की मर्यादाओं को ताक पर रखकर इस पावन पेशे को ‘धनार्जन का धंधा’ समझकर अपना रहे हों, इस पेशे को अय्याशी, ऐशपरस्ती, देश-विदेश में वीवीआईपी के साथ घूमने-फिरने का साधन, पत्रकारिता के माध्यम से अपने ऊंचे रुसूख का व्यवसायिक दुरुपयोग करने तथा पेशे का आर्थिक लाभ उठाने की जुगत में ही लगे रहते हों फिर ऐसे स्वामी के अधीनस्थ स्टाफ से आखिर क्या उम्मीद लगाई जा सकती है?

पिछले दिनों बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी एक सरकारी दौरे पर लंदन गई थीं। उनके साथ बंगाल के वरिष्ठ पत्रकारों का एक समूह भी साथ गया था। इन पत्रकारों में कई मीडिया समूहों के स्वामी तथा मुख्य संपादक व संपादक स्तर के वरिष्ठ पत्रकार भी शामिल थे। इन महानुभाव ‘पत्थरकारों’ ने न केवल अपने राज्य की मुख्यमंत्री व समूचे राज्य की बल्कि पूरे देश की खासतौर पर पत्रकार बिरादरी व पेशे की ऐसी नाक कटाई जिसकी दूसरी मिसाल अब तक सुनने को नहीं मिली। खबरों के मुताबिक लंदन के एक आलीशान पांच सितारा होटल में रात्रिभोज के समय जिस क्राकरी का प्रयोग किया गया था उसमें कथित रूप से चांदी के चम्मच, छुरी व कांटे उपलब्ध कराए गए थे। बताया जाता है कि रात्रिभोज समाप्त होने के बाद पत्रकारों की उस टोली में डिनर पर बैठे सबसे वरिष्ठ मुख्यसंपादक स्तर के एक पत्रकार ने सर्वप्रथम चांदी के उन चम्मच, कांटे व छुरी को छुपा कर अपने कोट की जेब में रख लिया। उसे ऐसा करते देख शेष पत्रकारों को भी ‘प्रेरणा’ हासिल हुई और उनमें से भी कई ‘पत्थरकारों’ को चांदी की वह कटलरी टेबल पर रखी हुई अच्छी नहीं लगी और उन सभी ने भी एक-एक कर उसे अपनी जेबों में छुपा लिया। परंतु अक्ल के अंधे इन ज़मीरफरोश ‘पत्थरकारों’ को इतने आलीशन होटल में चारों ओर लगे हुए वह कैमरे नहीं दिखाई दिए जो उनकी ‘क्रांतिकारी पत्थरकारिता’ का राक्षसी रूप देख रहे थे।

इस घटना के बारे में यह भी बताया जाता है कि इनमें एक चोर तो इतना ढीठ था कि उसने अपने चोरी किए गए चम्मचों व कांटों को किसी दूसरे साथी पत्रकार के बैग में डाल दिया। और जब उसकी तलाशी लेने का समय आया तो वह अपनी ‘पारसाई’ पर अकडक़र बोला कि मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। चाहे मेरी तलाशी क्यों न ले लो। उसकी इस ढिठाई पर उसे फिर याद दिलाया गया कि उसकी चोरी करने से लेकर अपने साथी के बैग में चोरी का सामान डालने तक की सारी करतूतें सीसीटीवी कैमरे में कैद हो चुकी हैं। यह जताने पर वह महाशय अपनी कारगुज़ारी पर शर्मसार हुए। यह भी बताया जा रहा है कि वहां के होटल स्टाफ ने नरमी बरतते हुए पुलिस, कचहरी के चक्कर में इन्हें उलझाने के बजाए पचास पाऊंड का जुर्माना लगा दिया। इस घटनाक्रम से देश व इस जि़म्मेदार पावन पेशे को कितनी ठेस पहुंची है क्या इसका अंदाज़ा इस प्रकार के चोर-उचक्के किस्म के पत्रकार लगा सकते हैं? शायद नहीं। क्योंकि इनकी नज़रों में किसी पेशे, उनके अपने परिवार व खानदान यहां तक कि उनके प्रदेश व देश की मान-प्रतिष्ठा से अधिक चमक उन चोरी के चांदी के चम्मचों में नज़र आती है। अन्यथा चांदी तो क्या सोने या हीरे की भी कोई वस्तु यदि किसी दूसरे व्यक्ति या संस्थान की अमानत है तो कम से कम अच्छी नीयत व अच्छे संस्कारों वाला कोई भी व्यक्ति तो उस ओर अपनी नज़रें उठाकर भी देखना नहीं चाहेगा।

यह परिस्थितियां हमें बार-बार यही सोचने के लिए मजबूर करती हैं कि आखिर ऐसे समय में जबकि हम दुनिया में भारत की छवि एक ‘विश्वगुरु’ रह चुके राष्ट्र के रूप में प्रचारित करते रहते हों, हम बार-बार अपनी पीठ इस प्रकार की बातें कहकर थपथपाते रहते हों कि यह संस्कारों, विचारवानों,त्यागी-तपस्वी,ऋषियों-मुनियों,संतों-फकीरों तथा आविष्कारकों का देश है और इसी बीच में हमें ऐसी खबरें मिलने लग जाएं कि इसी कथित विश्वगुरु राष्ट्र में छुआछूत अब भी यहां की सबसे बड़ी समस्या है, धर्म-जाति के झगड़ों में आए दिन हत्याएं होती रहती हैं, कृषि प्रधान देश कहे जाने के बावजूद सबसे अधिक किसान इसी देश में आत्महत्या करते हों,कोई दिन ऐसा नहीं होता जिस दिन देश के विभिन्न हिस्सों से बलात्कार यहां तक कि मासूम व नाबालिग बच्चों से बलात्कार की खबरें न आती हों, जहां के राजनेता वैचारिक राजनीति नहीं बल्कि अपने उज्जवल राजनैतिक भविष्य अर्थात् सत्ता को लेकर अधिक चिंतित रहते हों,जहां कि न्यायपालिका, कार्यपालिका सबकुछ विवादित व संदिग्ध होती जा रही हो, जहां निष्पक्षता का परचम बुलंद रखने वाला देश के लोकतंत्र का स्वयंभू चौथा स्तंभ दलाली, चाटुकारिता तथा व्यवसायीकरण का शिकार होने के बाद अब  वह विदेश की धरती पर अपने अति विशिष्ट मेहमान के साथ जाकर चोरी जैसी कारगुज़ारियों को अंजाम देने लग जाए फिर आखिर संपूर्ण राष्ट्र के चरित्र के उत्थान की बात हम कैसे सोच सकते हैं?

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना