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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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दर्शकों होशियार, ख़बरदार, चैनलों से सावधान

आपने कब देखा है कि टीवी का एंकर ग़रीबी, बेरोज़गार, कम मज़दूरी, स्थायी नौकरी को लेकर उत्तेजित है ?

रवीश कुमार/ दो साल से टीवी पर होने वाली तमाम बहसों की एक सूची बनाइये। हर तीसरी बहस आपको ऐसे मुद्दे के आसपास मिलेगी जिसकी अंतिम मंज़िल ध्रुवीकरण होती है। ऐतिहासिक पुरुषों से लेकर किताबों, बयानों, खान-पान, राष्ट्रवाद, आतंकवाद। आप पायेंगे कि जब भी दुनिया में या भारत में आर्थिक मसले हावी होते हैं ऐसे मुद्दे आ जाते हैं जो कहीं के भी हों और कैसे भी हों आपको हिन्दू मुसलमान के खाँचे में बाँटते हैं। जो इसकी पुष्टि करने की पुरज़ोर कोशिश करते हैं कि जो मुसलमान हैं वो ऐसे होते हैं। ऐसे ही रहेंगे। जो हिन्दू हैं उन्हें ऐसे ही होना होगा।दूरी पाटने की जगह दोनों समुदायों से एक खलनायक निकाला जाता है। उसका चित्रण इसी मक़सद से किया जाता है। हर बहस बहुसंख्यक को एकजुट बने रहने के लिए प्रेरित करती है। अल्पसंख्यक में बेचैनी पैदा करती है। दोनों तरफ की सांप्रदायिकता को खुराक मिल जाती है। इस दावे के साथ बहस होती है कि सामान्य जन के लिए भी मुश्किल होता है कि वो कैसे इस धारणा के पार जाकर मसलों को देखें। जहाँ तथ्य और तर्क नाम भर होते हैं, धारणायें जज होती हैं।

आमतौर पर पहले यह काम सरकार करती थी। राजनीतिक पार्टी करती थी। अब यह काम चैनल कर रहे हैं। कोई नेता बयान देता है या कई बार बयान नहीं देता है इस पर बहस होती रहती है। यह सही है कि अब हम एक दूसरे के बारे में जानकारी कम रखते हैं। धारणा ज़्यादा पालते हैं। हमारी जीवनशैली ऐसी है कि अपने यार दोस्तों और रिश्तेदारों से मिलने का वक्त नहीं। दूरियाँ बढ़ी हैं। हम लोगों के बारे में कम जानते हैं या वही जानते रहते हैं जो जान चुके थे। धर्म और जाति को लेकर पूर्वाग्रह एक तथ्य है। हम तो संस्कृतियों के नाम पर भी पूर्वाग्रह पालते हैं। चैनल इन्हीं पूर्वाग्रहों को पोसकर बड़ा कर रहा है। अभी आप नशे में हैं इसलिए नहीं समझेंगे।

आपने कब देखा है कि टीवी का एंकर ग़रीबी, बेरोज़गार, कम मज़दूरी, स्थायी नौकरी को लेकर उत्तेजित है। सरकारी बैंकों में जमासात लाख करोड़ कर्ज लेकर उद्योगपति भाग गए। किसान पचास हज़ार का कर्ज़ न चुकाने पर आत्महत्या कर रहा है। क्या चैनल चिल्ला रहे हैं ? तमाम सरकारी पद खाली हैं। केंद्र सरकार में सात लाख पद ख़ाली हैं। भर्ती नहीं हो रही है। वहाँ लोग ठेके पर रखे जा रहे हैं। शिक्षक आए दिन लाठी खाते रहते हैं। वो शिक्षक भी लाठी खाने के बाद हिन्दू मुसलमान की बहसों में खो जाते हैं। वो भी एंकरों से ख़ास अलग नहीं हैं। लेकिन कभी किसी एंकर को या चैनल को कहते सुना है कि इनकी नौकरी स्थायी करो। टीचर नहीं होंगे तो पाँच सितंबर की नौटंकियों से बदलाव नहीं आएगा। कहाँ सरकारी स्कूल बेहतर हुए है?  सारी कमाई फीस, टैक्स, किश्त में जा रही है। हाथ में धेला नहीं बच रहा। रेल लेट चलती है, पहले से चलती आ रही है मगर पहले से तो हिन्दू मुसलमान भी होता रहा है, क्यों नहीं टीवी चिल्लाता है।

हमारे देश के छात्रों को भी हिन्दू मुसलमान की बहस में मुक्ति का मार्ग दिखता है। पर्याप्त कालेज नहीं हैं। नब्बे फीसदी से कम वाले नकारा साबित हो रहे हैं। उन्हें मजबूर किया जा रहा है कि वे नोएडा ग्रेटर नोएडा और गुड़गाँव के रद्दी प्राइवेट कालेजों में लाखों की फीस देकर पढ़ने जाए। उसी स्तर के सरकारी कालेजों को उनकी पहुँच से बाहर किया जा रहा है। ललना और बबुआ लोग खरहा टाइप हेयर स्टाइल बनाकर मदहोशी में हैं। युवा किसी घटिया सीरीयल का बाई प्रोडक्ट लगता है। उनको ये सब नहीं समझ आ रहा है। वो मैगज़ीन की कवर स्टोरी देखकर सपने पाल रहे हैं। कालेज फेस्ट में किसी की धुन चुराकर गिटार बजा रहे हैं। जो अच्छे युवा है वो भ्रमित हैं कि किस दल के पास जाए। सब एक से हैं। कौन सा चैनल देखें तब। सब एक जैसे हैं।

एक एक कर कालेजों की फीस बढ़ रही है। कहा जा रहा है कि क़र्ज़ मिलेगा। छात्रों की संपन्न जमात देश के साधारण हैसियत वाले छात्रों के ख़िलाफ़ रहती है। वो कभी भी इस मुद्दे पर नहीं पूछेगा कि ऐसा क्या है कि सरकार एक अच्छा और सस्ता विश्विद्यालय नहीं बना सकती। जब नौकरी नहीं है, नौकरी में अच्छी सैलरी नहीं है तब गुणवत्ता के नाम पर लाखों की फीस वाली पढ़ाई का क्या मतलब? अमरीका में बर्नी सैंडर्स ने यही सवाल उठाया तो मीडिया ने ब्लाक कर दिया। मज़ाक़ उड़ाया। वहाँ भी हिन्दू मुसलमान जैसे ध्रुवीकरण के दूसरे मसले चुनावों में हावी हैं। मूल सवाल पर न तो अवाम का ध्यान जाता है न छात्रों का। आप सोशल मीडिया पर किसी का भी स्टेटस देखिये। कितना स्टेटस हिन्दू मुसलमान वाले विषयों के आस पास है और कितना इस पर कि प्रोविडेंट फंड की ब्याज दर एक फीसदी कम होने से क्या असर होगा। पेंशन नहीं होगा तो क्या होगा। पेंशन पर टैक्स क्यों हैं।

हम जानबूझ कर इस बदहवासी को गले लगा रहे हैं। चैनल हमें रोज़ एक ही माला पहना रहे हैं। कुछ वक़्ता हैं जो धार्मिक मसलों पर दौड़े चले जाते हैं। मना करने के लोभ को क़ाबू नहीं कर पाते। वे जाते हैं सही बात कहने के लिए मगर जब मक़सद ही ग़लत बात को साबित करना है तो एक मिनट की सही बात से क्या हो जाएगा। इन विशेषज्ञों को चैन नहीं है। ये भी इस प्रोजेक्ट में चैनलों का साथ दे रहे हैं।देश की हर शाम हिन्दू बनाम मुसलमान के नाम बीत रही है। लानत है चिरकुटों।

अगर हिन्दू मुसलमान का मसला इतना ही ज़रूरी है तो क्यों नहीं रहनुमाओं से कह दिया जाए। कब तक मूर्ति, किताब, स्मारक, जयंती के ज़रिये हम ये काम आधे अधूरे मन से करेंगे। क्यों न सारा काम रोक कर जी भर हिन्दू मुसलमान कर लिया जाए। चैनलों पर चला जाए। जी भर कर एक दूसरे को गरिया जाए। मुसलमान को धकेल कर और मुसलमान बनाया जाए, हिन्दू को धकेल कर और हिन्दू बनाया जाए। दोनों तरफ के लोग एक जैसे हो जाएं। एक को आतंक परस्त बताया जाए और दूसरे को वतन परस्त। चुनाव लड़ा जाए और चुनाव जीता जाए। हमारी रोटी,नौकरी,सुरक्षा, अस्पताल की चिन्ता न करें।आप हिन्दू मुसलमान करें। हम भी मुसलमान करेंगे।

दर्शकों, मेरी बात मान लो। सांप्रदायिक और दंगाई होने के लिए टीवी मत देखो। आप सनकी हो जाएँगे। एक दूसरे पर शक करने लगेंगे। इस खेल में नेता नहीं मरता। वो सीढ़ी चढ़ता है। गुजरात दंगों में सज़ायाफ़्ता हिन्दू मुस्लिम दंगाइयों की हालत देखिये। मरने वाले साधारण होते हैं। मारने वाले साधारण होते हैं। उनकी बस्तियों में पानी नहीं आता है, इस पर नौबजिया एंकर नहीं चिल्लाएगा। हिन्दू मुस्लिम मसलों पर चिल्लाएगा ताकि उनकी बस्तियों में ख़ून ख़राबा हो जाए। इसलिए चैनल का कनेक्शन कटवा दो। तीन सौ रुपये बचेंगे। नफरत करने के लिए इतना भी क्यों ख़र्च करना। कह दो चैनल वालों से कि हम तो पहले से ही नफ़रत करते हैं, आपको तीन सौ रूपये देकर नफ़रत क्यों करें!

वतन को प्यार करते हैं तो वतन के लोगों से प्यार करो। इसके बुनियादी मसलों पर बहस करो। टीवी सिर्फ वतन के नाम पर ऐसा ग्लैमर पैदा कर रहा है जहाँ सबकुछ चमकता है मगर लोगों के बीच जाकर देखिये कितना कुछ खोखला है। खोखले तो आप भी हैं। हम भी हैं। इसीलिए चैनलों के खोखले एंकर आपको खाली बर्तन समझ बजा रहे हैं। ज़रा सा दिमाग़ लगाएँगे तो आप यह खेल समझ जायेंगे। नहीं समझ आता है तो एक सवाल देता हूँ उससे मदद मिलेगी।

सेना के शहीद का अंतिम संस्कार, राजकीय सम्मान के साथ, मंत्री मौजूद, राष्ट्रवाद के क़सीदे, चैनल पर सीधा प्रसारण।

सेना के जवान की सैलरी पंद्रह हज़ार। बच्चा उसी सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए मजबूर जिसका शिक्षक अपनी सैलरी और स्थायी नौकरी के लिए लाठी खा रहा है, कैंटीन के सस्ते सामान से घर में कुछ बदलाव, पत्नी का उदास चेहरा, टीवी चैनल चुप। कोई अपने जवान की सैलरी टैक्सी ड्राईवर से भी कम होने पर हंगामा नहीं करेगा।

क्या आप समझ पा रहे हैं कि चैनल सत्ता और सत्ताधारी पार्टी के महासचिव हो गए हैं?  इस टीवी से सावधान हो जाइये। वरना आप हैवान हो जाएँगे। वर्ना ये मत कहना किसी टीवी वाले ने समय रहते नहीं बताया।

(रवीश कुमार जी के ब्लॉग कस्बा से साभार)

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सम्पादक

डॉ. लीना