सोशल मीडिया की टाइम लाइन पर आते ही हर ख़बर दलों में बंट जाती है
रवीश कुमार/ आलोचना ज़रूरी है पर उससे भी ज़रूरी है आलोचना का माहौल। अगर हम आलोचना करने के क्रम में माहौल की रचना और रक्षा नहीं करेंगे तो आलोचना का अवसर गंवा देंगे। आलोचना बेमानी हो जाएगी। दुनिया के बाकी देशों की तरह भारतीय राजनीति या सार्वजनिक स्पेस में बड़ी संख्या में लोगों की भागीदारी बढ़ी है। मतदान के प्रतिशत के रूप में नहीं बल्कि जनमत के निर्माण में। धीरे-धीरे इस पब्लिक स्पेस को राजनीतिक दलों और मीडिया घरानों ने हड़प लिया है। पब्लिक को दिन रात फोलोअर यानी अनुचर में बदलने की प्रक्रिया जा रही है। सोशल मीडिया फॉलो, ब्लॉक और अनफॉलो से लैस है। किसी के प्रति आपकी सहमति मांग करती है कि इसे शेयर या री-ट्वीट के ज़रिये दूसरों के सामने कहने का साहस करें। यह प्रक्रिया आपको निष्ठावान बनाती है। अपनी और उसकी नज़र में। हो सकता है कि साझा करने के बाद लेनी की देनी पड़ जाए और टिड्डी दल की तरह सोशल मीडिया की कृत्रिम और वास्तिवक सेना हमला कर दे। लेकिन यहां आपकी व्यक्तिगत निष्ठा तभी तक मायने रखती है जबतक आप उसके लिए प्रतिबद्ध हैं और उसका लगातार प्रदर्शन करते रहें। फैन या प्रशंसक होना एक पहचान और लाइसेंस है, अपनी प्रतिबद्धता साबित किये बग़ैर किसी के प्रति भक्ति को उचित ठहराने के लिए। इन सब दीवारों के बीच आलोचना के लिए जो जगह बचती है वो बहुत कम है।
शुरू में लगा था कि सोशल मीडिया हर इनका पर हर उनका का सवाल उठाकर लोकतांत्रिकता का विस्तार कर रहा है। किसी को पता ही नहीं चला कि कब यह अपनी करतूत को ढांकने का पर्दा बन गया। बीजेपी पर लगने वाला कोई भी आरोप निरपेक्ष नहीं है। वो हमेशा कांग्रेस के सापेक्ष है। कांग्रेस पर लगने वाला हर आरोप बीजेपी के सापेक्ष है। नतीजा कोई भी आरोप उस रस्सी में बदल जाता है जिसे दोनों तरफ से लोग खींच रहे होते हैं। एक ज़रा सी ढील होने पर रस्सी तो बच जाती है, आरोप लगाने वाला कोई खेमा ढिमला कर गिर जाता है। सोशल मीडिया की टाइम लाइन पर आते ही हर ख़बर दलों में बंट जाती है। जो बंटने लायक नहीं होती वो बिना नोटिस के वहीं दम तोड़ देती है। ख़बर अब ख़ुराक़ है। सूचना नहीं है। चारे की तरह ख़बर को फेंका जाता है और विरोधी या सत्ता पक्ष के टिड्डी दल ले उड़ते हैं।
आलोचना का माहौल संकुचित हो रहा है। यह लोकतंत्र के ख़िलाफ़ है। आपके द्वारा शेयर की हुई कोई भी ख़बर आपको उस दल के ख़िलाफ़ या समर्थन में खड़ा करवा रही है, जिसमें दल विशेष की आलोचना या तारीफ होगी। क्या पाठक अब दलों के प्रति अपनी निष्ठा के हिसाब से ख़बरों को पढ़ेंगे या उस ख़बर का साझा करना क्या उस दल का हो जाना है। ये पाठक हैं या कार्यकर्ता या पाठक को कार्यकर्ता में बदला जा रहा है। कई साइट पर देख रहा हूं कि किसी दल के समर्थकों की सक्रियता के हिसाब से ख़बरों को प्राथमिकता दी जाती है। होता यह है कि उस दल के समर्थकों के साझा करने से साइट को हिट्स मिलने लगते हैं। दो मिनट में पता चल जाता है कि अमुक ख़बर को अमुक दल वाले अमुक दल के ख़िलाफ़ इस्तमाल कर रहे हैं और ख़ूब साझा कर रहे हैं। कई बार अपने लेखों का ऐसा हश्र होते देख सहम जाता हूं। क्या मैंने इसलिए लिखा था कि कोई इसे किसी के ख़िलाफ़ उठाए।
दूसरी तरफ ठेके पर रखे गए सोशल सेनानियों के अलावा समर्थकों का चरित्र भी बदल चुका है। उनका काम भी दिन रात अपने नेता या पार्टी के हक में ख़बरों को आगे फैलाना है। ये वो लोग हैं जो पत्रकारों को लगातार संदिग्ध करने में लगे रहते हैं। ऐसा नहीं है कि पत्रकारिता में संकट नहीं है लेकिन हर बात को इस संदिग्धता के सहारे किसी खेमे में बांटा जा रहा है ताकि सवाल वहीं दम तोड़ दें। हर तरफ से कोशिश हो रही है कि पत्रकार को संदिग्ध करते रहो। ऐसी कोशिश करने वाला अपने पाले के पत्रकारों को खूब पहचानता है। वो उनकी बात कभी नहीं करेगा। उसकी चिन्ता में उनकी तटस्थता नहीं होती। आप हो सकता है कि कोई सूचना ही दे रहे हों लेकिन ऐसे लोग तुरंत तैयार बैठे होते हैं जो साबित करने में लग जाते हैं कि आपने ये सूचना इसलिए साझा की है क्योंकि आप अमुक को पसंद नहीं करते। यही सोशल मीडिया का माहौल है। यही सब कर रहे हैं लिहाज़ा सब एक दूसरे को अपनी तरह ही समझ रहे हैं।
सोशल मीडिया के आने से जितनी गालियों को राजनीतिक स्वीकृति मिली है उतनी कभी नहीं मिली थी। अपने दल की निष्ठा के नाम पर गालियों को जायज़ ठहराने वाले कई लोग मिल जायेंगे। इनकी टाइम लाइन का ही मूल्यांकन हो जाए ताकि पता चल जाए कि ये क्या कभी अपनी पसंद की पार्टी के खिलाफ वाली किसी ख़बर को साझा करते हैं। इनके हिसाब से जो आलोचक है या जो ऐसी ख़बर साझा कर रहा है जिससे उसकी पार्टी की आलोचना हो सकती है, वो उसकी पार्टी या नेता के ख़िलाफ़ हैं। आप से अनुरोध है कि आप स्वंतत्र हैं अपनी पार्टी और नेता चुनने के लिए लेकिन इस प्रक्रिया में भागीदार बनकर आप अपना गला पहले घोंट रहे हैं। आज यही हो रहा है। कई दल ट्वीटर पर आकर गुहार लगाते रहते हैं कि हमारी समस्या की तरफ ध्यान दिलाइये। मंत्री से लेकर नेताओं के हैंडल पर लिख कर आ गए हैं लेकिन ऐसे लोग भी उन लोगों के द्वारा दुत्कार दिये जा रहे हैं जो हो सकता है कि उस पार्टी के समर्थक ही हो। मतदाता ही हों। इसकी रणनीति ही यही है कि समय समय पर व्यक्ति या किसी समूह को गालियों से घेर कर हाशिये पर ला दिया जाए।
ललित मोदी कांड और सेल्फी विद डाउटर के समय दो बातें हुईं हैं। कांग्रेस, बीजेपी विरोधी या ललित मोदी कांड से आहत सामान्य लोगों ने भी इसमें अपनी भूमिका निभाई है। सबने इस मामले की आरोपी महिलाओं में औरत होने को ढूंढा है। उन्हें आरोपी से ज़्यादा औरत नज़र आई है। जैसे इन चारों महिल मंत्रियों की जगह मर्द होते तो आरोप कम हो जाते हैं। व्हाट्स अप और ट्वीटर पर महिला विरोधी तस्वीरों के ज़रिये इनके ख़िलाफ़ माहौल बनाने को हवा दी गई। आप इस माहौल में और सेल्फी विद डाटर्स से सहमति न रखने वाली महिलाओं को मिली गाली देने वालों में कोई फर्क नज़र नहीं आएगा। फर्क यह है कि एक में कम हिंसक है और दूसरे में ज़्यादा हिंसक है लेकिन अंतिम नतीजे में दोनों ही महिला विरोधी हैं। एक महिला एंकर ने अपनी बेटी के साथ सेल्फ़ी ट्वीट की तो उसे प्रधानमंत्री ने ट्वीट किया लेकिन जब उसके साथ किसी ने अभद्र भाषा का इस्तमाल किया तो उसने प्रधानमंत्री से ट्वीट कर गुहार लगाई कि सख्त भाषा में इस प्रवृत्ति का विरोध करें। प्रधानमंत्री चुप रह गए। इस एक उदाहरण से सबको सहम जाना चाहिए। सचेत भी होना चाहिए।
सोशल मीडिया के आने के बाद से हमारे समाज में औरतों का सक्रिय राजनीतिकरण हो रहा है। उनकी राजनीति प्रतिक्रिया सामने आ रही है। वे पब्लिक स्पेस में अपनी बात रख रही हैं। यह हमारी राजनीतिक को समृद्ध करेगा या नहीं, अभी नहीं कह सकता लेकिन जिस स्पेस में उनके लिए जगह बन रही है या वे अपने लिए जगह बना रही हैं उसे देखकर उत्साहित तो होता ही हूं। मगर धीरे धीरे मर्दों ने निष्ठा के नाम पर इन औरतों के ख़िलाफ़ एक व्यूह रचना बनानी शुरू कर दी है। औरतों पर ज्यादा हमला है। औरतों के नाम से आलोचको को गालियां दी जा रही हैं। आप इन गाली देने वालों की जैसी भी पहचान कर लें मगर ये मानसिकता पहली बार राजनीतिक सहारा पा रही है। इससे राजनीतिक दलों का हित सधता है। सोशल मीडिया राजनीति में जयकारों की टोली का निर्माण कर रही है। जनमत को जयमत में बदलने का प्रयास हो रहा है।
अगर आपको लगता है कि आज आप समर्थकों की टोली के साथ हैं तो चिन्ता करने की बात नहीं है तो एक बात बताता हूं। हर आदमी अलग अलग मुद्दों से प्रभावित होता है। जिस दिन आप किसी मुद्दे से प्रभावित होंगे उस दिन आप निष्ठा चक्र से बाहर कर दिये जायेंगे। जैसे ट्वीटर पर कुछ जाट छात्र अपने साथ हुई कथित नाइंसाफी को लेकर परेशान हैं, दरबदर हैं, उनका करियर तबाही के कगार पर हैं पर अब वे अकेले पड़ गए हैं। क्या वे भी किसी के ख़िलाफ़ हैं। इसलिए इस सामूहिकता को समझिए, इसके भीतर की विविधता ही आपको ज़्यादा सुरक्षा प्रदान करेगी और इस विविधता के लिए ज़रूरी है कि आप किसी का समर्थक होते हुए भी आलोचना और आलोचना के माहौल की रचना और रक्षा में सहयोग करें।
(रवीश कुमार जी के ब्लॉग कस्बा से साभार)