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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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ग्रामीण पत्रकारिता अपने अस्तित्व पर मंडरा रहे खतरों से जूझ रही

जबकि दम तोड़ती पत्रकारिता की रीढ़ की हड्डी  है ग्रामीण पत्रकारिता

अर्पण जैन (अविचल) / भारत एक गाँव प्रधान देश है , जिसकी आबादी का 80% हिस्सा गाँवो मे निवास करता है | पत्रकारिता जगत मे भी खबरो का सागर गाँवो से ही निर्मित होता है , देश की लगभग 80% आबादी का प्रतिनिधित्व करती, चूल्हे-चौके से बाहर खबरो का अथाह संसार देखने और समझने वाली हिन्दी पत्रकारिता की रीढ़ की हड्डी मानी गई ग्रामीण पत्रकारिता आज अपने अस्तित्व पर मंडरा रहे ख़तरो से जूझती नज़र आ रही है |

गाँवो मे खबरों की उत्सुकता देखते ही बनती है और यक़ीनन इंतजार भी रहता है सुबह के अख़बार का |

किंतु मीडिया संस्थानो की उपेक्षाओ ने ग्रामीण पत्रकारिता के आयाम ही गिराना शुरू कर दिए | ब्रेकिंग और पेज थ्री आधारित पत्रकारिता के लिए गाँवो मे कोई मसाला नही है , वहां  कोई एड नही है , ना कोई स्टिंग आधार है, है तो केवल ख़बरें , घटनाए, रिश्वत के कारनामे, राशन की दुकान की भच-भच, तोल मे कमी की शिकायत, स्कूल में शिक्षकों के नदारद रहने की बात, ग्राम पंचायत के कारनामे , जन सुनवाई मे अधिकारी की अनुपस्थिति, ग्राम सभा से सरपंच- सचिव का गायब रहना , सड़को की बदहाली या बिजली की समस्या, सूखा ग्रस्त ग्राम , अन्य कुछ भी नही |

इन सब से मीडिया संस्थान कोई विशेष लाभ की अपेक्षा नही कर सकता , कोई बहुत बड़ा आर्थिक लाभ भी नही , अत: मीडिया संस्थानों के लिए भी ग्रामीण पत्रकार " यूज एंड थ्रौ" का साधन बन गये है |

पत्रकारिता के असली मापदंड तो अंचल के संघर्षो से ही पोषित हो पाते है , आंचलिक क्षेत्रो में ,गाँवो मे, शहरो की अपेक्षा अधिक समय खबरो को पड़ने पर खर्च किया जाता है , उन्हे ये उत्सुकता रहती है कि  कौनसी घटना अपने गाँव , राज्य, देश में हो रही है, गाँवो मे जनमानस के मानस पटल पर मीडिया का बेहतर चेहरा ही घर करा हुआ है, मै मानता हू की उन पाठको के पास तथ्यात्मक विश्लेषण और निष्कर्ष नही होता इसीलिए वो मीडिया पर निर्भर भी होता है, किंतु मीडिया उस भरोसे का ग़लत इस्तेमाल करने से भी बाज नही आती, उस विश्वास के सफ़र को चंद रुपयो या अन्य लोभ लालच से तोला जाता है और तथ्यो मे भी परिवर्तन कर नया निष्कर्ष रखा जाने लगा है |

आख़िर ग्रामीण पाठको के विश्वास के साथ बीसियो बार खिलवाड़ क्यू ना हुआ हो फिर भी उसका विश्वास अभी तक कायम है |पाठको की ललक ने ग्रामीण स्तर पर कई हाकर, एजेंट और पत्रकारो को जन्म दिया , उन्होने आगे के रास्ते तय किए किंतु फिर भी ग्रामीण पत्रकारो की स्थिति यथावत है |

ग्रामीण परिवेश और ग्रामीण जनमानस में आज भी मीडिया के प्रति गहरी संवेदनाए है, किंतु उसी विश्वास और मानवीयता के साथ छल हो गया और अंचल मे पत्रकारिता की पौध को समय से पहले नष्ट करने की तैयारिया की जा रही है |

आंचलिक पत्रकारो के कुनबे को खबरो के अस्तित्व और प्रिंट मीडिया के भविष्य को सुरक्षित रखने का काम यदि किसी ने किया है तो वह है ग्रामीण पत्रकार और पाठक | अंचल में रहने वाला पत्रकार मे नही मानता की बहुत पड़ा-लिखा या प्रशिक्षण प्राप्त किया हुआ या कोई डिग्री धारक पत्रकार होगा , किंतु उसमे तथ्यो के भलीभाती देखने और विश्लेषण करने की क्षमता ज़रूर होती है , खबरो के अथाह सागर की गहराई मे डुबकी लगाने की कूबत ज़रूर होती है , किंतु वर्तमान दौर मे जिस तरह से पत्रकारिता के मूल्‍यो का क्षरण दिन प्रतिदिन होता ही जा रहा है उससे तो ये साफ तौर पर लगने लग गया है आनेवाले समय मे आंचलिक क्षेत्रो के पत्रकारो की स्थिति भयावह हो जाएगी |

कोई मीडिया संस्थान ग्रामीण परिवेश में रहने वाले पत्रकारो के प्रशिक्षण और शिक्षण की व्यवस्था नही करता,  ना ही उन पर विशेष द्‍यान नही देता  क्योंकि  वह ग्रामीण पत्रकार कोई विशेष आर्थिक लाभ संस्थान को नही पहुचाता |

आख़िर क्या पत्रकारिता केवल आर्थिक लाभ आधारित ही शेष बची है ?

टकसाल की तरफ हिन्दी पत्रकारिता के बढ़ते कदमो ने मूल्‍यो और आदर्शो को होली जलना शुरू कर दी , किंतु उसमे नुकसान पत्रकारिता की आत्मा "ग्रामीण पत्रकारिता" का ज़्यादा हुआ है |

मीडिया के अन्य स्त्रोतो को अपना रुख़ गाँवो की तरफ करना होगा , चुकी टी.वी. चैनलों और बड़े अख़बारों की तकलीफ़ यह है कि वे ग्रामीण क्षेत्रों में अपने संवाददाताओं और छायाकारों को स्थायी रूप से तैनात नहीं कर पाते। कैरियर की दृष्टि से कोई सुप्रशिक्षित पत्रकार ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र बनाने के लिए ग्रामीण इलाक़ों में लंबे समय तक कार्य करने के लिए तैयार नहीं होता। कुल मिलाकर, ग्रामीण पत्रकारिता की जो भी झलक विभिन्न समाचार माध्यमों में आज मिल पाती है, उसका श्रेय अधिकांशत: जिला मुख्यालयों में रहकर अंशकालिक रूप से काम करने वाले अप्रशिक्षित पत्रकारों को जाता है, जिन्हें अपनी मेहनत के बदले में समुचित पारिश्रमिक तक नहीं मिल पाता। इसलिए आवश्यक यह है कि नई ऊर्जा से लैस प्रतिभावान युवा पत्रकार अच्छे संसाधनों से प्रशिक्षण हासिल करने के बाद ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र बनाने के लिए उत्साह से आगे आएँ। इस क्षेत्र में काम करने और कैरियर बनाने की दृष्टि से भी अपार संभावनाएँ हैं। यह उनका नैतिक दायित्व भी बनता हैं।

आखिर देश की 80 प्रतिशत जनता जिनके बलबूते पर हमारे यहाँ सरकारें बनती हैं, जिनके नाम पर सारी राजनीति की जाती हैं, जो देश की अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक योगदान करते हैं, उन्हें पत्रकारिता की मुख्य धारा में लाया ही जाना चाहिए। मीडिया को नेताओं, अभिनेताओं और बड़े खिलाड़ियों के पीछे भागने की बजाय उस आम जनता की तरफ रुख़ करना चाहिए, जो गाँवों में रहती है, जिनके दम पर यह देश और उसकी सारी व्यवस्था चलती है।

पत्रकारिता जनता और सरकार के बीच, समस्या और समाधान के बीच, व्यक्ति और समाज के बीच, गाँव और शहर की बीच, देश और दुनिया के बीच, उपभोक्ता और बाजार के बीच सेतु का काम करती है। यदि यह अपनी भूमिका सही मायने में निभाए तो हमारे देश की तस्वीर वास्तव में बदल सकती है।

देश की ग्रामीण पत्रकारिता के अच्छे दिन आ सकते है , केवल प्रयासो मे समरूपता और संगठनात्मक सोच का जन्म होना ज़रूरी है |

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सम्पादक

डॉ. लीना