मीडिया संस्थानों में संपादक पद की अहमियत खत्म होने के बाद खूब फला फूला साम्राज्य
एम.वाई. सिद्दीकी/ सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा देश की संसद को तीन बार जुलाई 2010, नवंबर 2010 और जुलाई 2011 में आश्वस्त करने के बावजूद पेड न्यूज का धंधा दिन दुनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ रही है। प्रेस काउंसिल के माध्यम से पेड न्यूज को खत्म करने के लिए सरकार ने जो समय सीमा तय किए वे ठंडे बस्ते में हैं और खुद प्रेस काउंसिल की अनुशंसाएं भी मजा क का पात्र बनी हुई हैं। यह सोलहवीं लोकसभा की संसदीय समिति की 27वीं रिपोर्ट है। इसे देखते हुए समिति ने सरकार के इस रूख पर कड़ी आपत्ति जाहिर की है और कहा है कि इससे जनहित अधिनियम 1951 के मूल सिद्धांतों का सरासर हनन हो रहा है। कमिटी सूचना प्रसारण मंत्रालय के इस रूख से हतोत्साहित है कि वह पेड न्यूज को ले कर सख्त कार्रवाई की नीति को अंजाम नहीं दे रहा जबकि प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने जुलाई 2010 में अपनी रिपोर्ट दे दी थी। मंत्रालय के इस रूख के कारण चुनावों के दौरान छपने/प्रसारित होने वाले विभिन्न तरह के एडवोटोरियल/न्यूज से जनता के अधिकारों का हनन होता है।
संसदीय समिति ने इस बात पर भी नाराजगी जताई है कि सूचना प्रसारण मंत्रालय ने प्रेस काउंसिल की अनुशंसाओं के आधार पर जांच के लिए मंत्रियों के समूह का भी गठन नहीं किया है, जिससे यह संकेत मिल सके कि सरकार इस मामले में कड़ा रूख अपनाने को तैयार है। तदनंतर में देखा जाए तो सरकार के इस रूख से विभिन्न समितियों या आयोगों की सिफारिशें अंतत: कूड़े का अंबार बनने को अभिशप्त हैं जो राष्ट्रीय धनहानि है और आयोगों/समितियों के क्रियाकलाप बेकार के कार्य हैं। बहरहाल संसदीय समिति का मानना है कि यह मामला न्यायिक आयोग को सौंप दिया गया है जिसकी रिपोर्ट का अभी इंतजार है।
संसदीय समिति का मानना है कि पेड न्यूज का राक्षस डरावना रूप धारण कर लिया है जो सुरसा की भांति ऐसे फैल रहा मानो खबर और विज्ञापन के बीच जनहित और देश गायब हैं? इसमें कोई अंतर ही नहीं रह गया है। हकीकत में देखा जाए तो आज की तारीख में अखबार से लेकर टीवी चैनलों पर तक जो खबरें प्रकाशित/प्रसारित की जा रही हैं वे खबर के खांचे में किसी पार्टी को ऐसे समर्पित होती हैं कि मालूम ही नहीं पड़ता कि यह खबर है या विज्ञापन या दोनों में से कोई नहीं। ऐसे में आम आदमी जो टीवी/अखबार में न्यूज के रूप में पढ़ता है वह न्यूज न होकर किसी नेता/पार्टी की प्रशंसापत्र या डॉक्यूमेंट्री सरीखा जान पड़ती है। यह जनाधिकार का उल्लंघन है इसके लिए सूचना प्रसारण मंत्रालय सीधे तौर पर दोषी है। नागरिकों को दिगभ्रमित करने वाले इन खबरों पर लगाम लगाना नितांत जरूरी है। महामारी का रूप धारण कर चुका पेड न्यूज कारोबार किसी नियम के अभाव में मानवीय अधिकारों के हनन का सबसे बड़ा राक्षस बन गया है। समिति का मानना है कि यदि समय रहते इसका उपचार नहीं किया गया तो यह कैंसर से भी खतरनाक रोग लो कतंत्र को जल्द ही प्रशंसातंत्र बना देगा। क्योंकि जिस मीडिया की निर्भीकता, निष्पक्षता और सत्यता की तस्वीर लोगों के मन में है उसकी कीमत ये मीडिया संस्थान पेड न्यूज के माध्यम से पार्टी/नेताओं से उगाही करके धनोपार्जन कर ले रहे हैं, लोगों के विश्वास का गला तो घोंट ही रहे हैं साथ ही लोकतंत्र को भी कमजोर कर रहे हैं।
बहरहाल संसदीय समिति कड़े शब्दों में सरकार के इस रूख का विरोध कर रही है, उस का कहना है कि सूचना प्रसारण मंत्रालय पेड न्यूज को लेकर मीडिया संस्थानों के खिलाफ तत्कालिक कार्रवाई केमूड में हैं ही नहीं और न ही कार्रवाई करना चाहती है। इससे मीडिया संस्थानों और सरकार के बीच मिलीभगत की बू आती है। यह जगजाहिर है कि ऐसे कारनामों से भारत की वैश्विक छवि को धक्का लग रहा है जहां भारत अपने को संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हुए अपनी पीठ खुद थपथपा रहा है तो दूसरी ओर इसी देश के लोकतंत्र को यहां की मीडिया ही दीमक की तरह खोखला कर रही है। इसे देखते हुए समिति ने सूचना प्रसारण मंत्रालय को कहा है कि वह इस मामले में ईमानदार और तेजी का रूख अपनाए और दोषियों को दंडित करने के लिए कानून बनाए।
हाल ही में सरकार ने सूचना तकनीक की संसदीय समिति की 47वीं रिपोर्ट को स्वीकार किया था जिसे 2013 में संसद के पटल पर रखा भी गया था। इसमें चुनाव आयोग, प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और सेबी की विभिन्न सिफारिशों को भी शामिल किया गया था, पेड न्यूज को समाप्त करने के लिए इन संस्थानों ने भी अपनी सिफारिशें सरकार को सौंपी थी जिस पर आज तक अमल नहीं हो सका है। पेड न्यूज समाज के लिए बहुत ही खतरनाक विषाणु साबित हो सकता है।
भारतीय लोकतंत्र में पेड न्यूज विषाणु का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। यह केवल एक पत्रकार के द्वारा ही नहीं फैल रहा बल्कि इसे फैलाने और स्थापित करने में मीडिया समूहों के स्वामी और प्रबंधकों की महती भूमिका है, जो आज की तारीख में वैसे ही पत्रकारों की भर्ती करते हैं जो उनके गलत कार्यों को कलम/वीडियो के माध्यम से धन उगाही का जरिया बन सके। यह मीडिया में भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्त्रोत है जिसमें मीडिया स्वामी और प्रबंधकों के साथ कुछ इसी तरह के कथित पत्रकार शामिल हैं। यह धंधा इसलिए चरमसीमा को पार चुका है क्योंकि लगभग सभी मीडिया संस्थानों में संपादक का पद या तो समाप्त कर दिया गया है या उसे प्रबंधकों के अधीन कर दिया गया है, ऐसे में अपनी रोजी रोटी के लिए पत्रकारिता कर रहे संपाद कों का कोई पावर/वश नहीं कि वे चाह कर भी पेड न्यूज छपने से रोक सकें? यह पत्रकारिता के अधोपतन की अंतिम सीढ़ी भी है। इसके अलावा कॉरपोरेट की तरह कार्य करने वाले मीडिया संस्थान, पब्लिक रिलेशन संस्थान/ विज्ञापन एजेंसियां और कुछ पत्रकारों का वर्ग इस धंधे में अपनी रोटियां सेंक रहे हैं।
पेड न्यूज महामारी की तरह फैल रहा ऐसा रोग बन चुका है जिसकी व्यापकता बहुत ज्यादा है। यह लोकतंत्र को खोखला कर रहा है। अब समय आ गया है कि इसे रोकने के लिए सरकार को सख्त कदम तो उठाने ही होंगे साथ में राजनीतिक दलों, पत्रकारों, कॉरपोरेट हाउसों, सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों, शिक्षण संस्थानों, गणमान्य लोगों के साथ आम जनसमूह को भी पेड न्यूज के खिलाफ आवाज उठाने होंगे ताकि लोकतंत्र के विषाणु को समाप्त किया जा सके। इससे उन मीडिया संस्थानों का वहिष्कार भी किया जा सकता है जो ऐसे पेड न्यूज छापते हैं या प्रसारित करते हैं। उन पत्रकारों का भी बहिष्कार किया जा सकता है जो ऐसे न्यूज कवर करते हैं। केवल सरकार के भरोसे तो कुछ नहीं हो सकता लेकिन आम जनसमूह चाहे तो कुछ ही दिनों में पेड न्यूज के विषाणु का समूल नाश कर सकता है।
लेखक कानून एवं रेल मंत्रालय, भारत सरकार के पूर्व प्रवक्ता हैं। लेख का अंगे्रजी से अनुवाद किया है शशिकान्त सुशांत ने