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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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खबरों का मुंह विज्ञापन से ढका है ....

रामजी तिवारी/ समाचार पत्रों को सुबह हाथ में लेते समय हमारे मन में क्या चल रहा होता है ....? रात को टी वी समाचार चैनलों के सामने बैठकर हमारे जेहन में किस बात की उत्सुकता बनी रहती है ...? सोशल मीडिया को स्क्रॉल करते समय देश दुनिया को लेकर हम क्या सोच रहे होते हैं ....? 

निश्चित तौर पर हम और आप देश-दुनिया के समाचारों को जानने और उनके विश्लेषण के लिए ही अखबार पढ़ते हैं । उनसे जल्दी से जल्दी अवगत होने के लिए ही चैनलों के सामने बैठते हैं । देश दुनिया के सीधे अपडेट के लिए ही सोशल मीडिया के समाचार डेस्क का उपयोग करते हैं । 

लेकिन यदि आपको यह पता चले कि हम जिन सूचनाओं को समाचार मानकर अपनी समझ विकसित का रहे हैं, जिन विश्लेषणों के आधार पर अपनी धारणा बना रहे हैं, वह दरअसल विज्ञापन का हिस्सा है तो ....? 

तो भी हम कम से कम इस मामले तो सौभाग्यशाली माने जाएंगे कि हमको यह बात पता तो चल गयी । अब आगे से हम उन विज्ञापनो को किनारे लगाकर वास्तविक ख़बरों की तलाश में मुब्तिला रहेंगे । लेकिन यदि हम विज्ञापनों को ही खबर मानकर डूबते-उतराते रहें और हमें इस बात का इल्म ही नहीं होने पाए, तब तो यह अनर्थकारी हो जायेगा । कम से कम हमारे पूरे व्यक्तित्व को भयानक रूप से बिगाड़ देने की क्षमता रखने लायक अनर्थकारी। 

आइये कुछ उदाहरणों के सहारे इस बात को समझने का प्रयास किया जाए । होता यह है कि जिस समय कोई भी घटना देश और दुनिया में घटित होती है, उस समय उसके कई एक पक्ष हमारे सामने तैरते हुए आने लगते हैं । कोई पक्ष एक बात कहता है तो कोई पक्ष दूसरी बात । अब जिस पक्ष के पास लोगों तक समाचार पहुंचाने के सबसे प्रभावकारी माध्यम होते हैं, उनकी बात सामान्यतया जन मानस में चली जाती है । एक आम आदमी उन्ही सूचनाओं के आधार पर अपनी धारणा भी विकसित कर लेता है । 

जैसे नोटबंदी के दौरान समाचार माध्यमों में ऐसी खबरें छायी हुयी थीं कि जिन लोगों के पास काला धन है वे लोग अपने पैसों को नदियों में बहा रहे हैं, उनमे आग लगा रहे हैं । भारी मात्रा में पुरानी करेंसी की जब्ती भी सुर्खियां बटोर रही थीं । अब आप इस आधार पर उस समय अपने आसपास के लोगों के बीच बन रही धारणा को याद कीजिये । अधिकतर लोग मान रहे थे कि नोटबंदी से काला धन समाप्त हो जाएगा । उन्हें रखने वाले लोग बर्बाद हो जाएंगे । 

लेकिन बाद में जब रिजर्व बैंक ने पुरानी करेंसी की वापसी के आंकड़े जारी किये तो वे चौंकाने वाले साबित हुए । पता चला कि लगभग 99 प्रतिशत पुरानी करेंसी सिस्टम में वापस चुकी है । यानि कि नदियों में करेंसी को बहाने वाली खबरे, पुरानी करेंसी को जलाने वाली खबरे और उनकी जब्ती की खबरें उतनी बड़ी नहीं थी जितना कि उन्हें दर्शाया गया । जैसा कि उनको लेकर माहौल बनाया गया । यही माहौल विज्ञापन था, जिसे हमने खबर के रूप में पढ़ा और देखा । 

उसी नोटबंदी में जब कैश की कमी हुयी तो डिजिटल इकोनामी की बात उछली । ऐसा माहौल बना कि मानो जो डिजिटल तरीके से लेन-देन नहीं करता है वह इस देश पर बोझ है । एक स्वच्छ अर्थव्यवस्था के लिए डिजिटल इकोनामी को अनिवार्य कहा गया । 

मगर बाद में रिजर्व बैंक के आंकड़े आये तो पता चला कि देश के लोगों के पास उसी मात्रा में करेंसी आ गयी है जो नोटबंदी से पहले थी । यानी जब करेंसी उपलब्ध हुयी तो लोगों ने पहले जैसा ही उसका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया । तो दरअसल डिजिटल इकोनामी वाला समाचार भी एक विज्ञापन ही था, जो करेंसी की तात्कालिक किल्लत को ढंकने के लिए किया गया था । 

नीरव मोदी और विजय माल्या के देश से भागने के बाद जिस तरह से उनकी संपत्तियों की जब्ती वाली खबरे आयी, वे भी बहुत बड़ी थी । लगा कि उनके कर्ज से हुए नुकसान के बराबर तो जब्ती ही हो गयी है । लेकिन बाद में जब आंकड़े जारी हुए तो पता चला कि उन जब्तियों की कीमत उनकी लूट की तुलना में बहुत मामूली थी । यानि कि जब्ती का वह माहौल भी एक विज्ञापन ही था । 

इसी तरह आप पिछले कुछ समय की बड़ी घटनाओं को याद कीजिये । याद कीजिये कि वे घटनाएं आपके यहां किस तरह से पहुंची । और फिर उन्हें समय के स्केल पर देखिये कि बाद में उनका सच किस रूप में उद्घाटित हुआ । यदि अधिकतर घटनाओं में आप उस समय गलत पक्ष की तरफ खड़े थे, तो यह आपके लिए सोचने का समय है । आप समाचार जानने के अपने माध्यमो को दुरुस्त कीजिये । ऐसे माध्यमों को बाय-बाय कीजिये जो आपको भ्रमित कर रहे हैं । ऐसे को चुनिए जो समय की स्केल पर खरे उतरे हों । 

और यदि आप अधिकतर समय सही साबित हुए हैं तो यह आपके लिए राहत की बात है । आप दुसरे अन्य लोगों भी बताएं कि आपने किस तरह से खबरों की उस भगदड़ में सत्य का सिरा पकड़ा ।

किसी की प्रसिद्ध उक्ति है कि "इस दौर में खबरों का मुंह विज्ञापन से ढका हुआ है ।" इसलिये अब सच जानना बहुत कठिन है । बहुत कठिन । .....

मगर .......  नामुमकिन नहीं ।

(राम जी तिवारी जी के फेसबुक वाल से साभार)

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सम्पादक

डॉ. लीना