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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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क्या राजनीतिक सत्ता ने वर्चस्व के लिये मीडिया को ही खत्म करना शुरू कर दिया है?

जरा सोचिये जब मेनस्ट्रीम मीडिया को कोई देखने-सुनने पढ़ने वाला नहीं होगा !

पुण्य प्रसून बाजपेयी / क्या पत्रकारिता की धार भोथरी हो चली है । क्या मीडिया - सत्ता गठजोड़ ने पत्रकारिता को कुंद कर दिया है । क्या मेनस्ट्रीम मीडिया की चमक खत्म हो चली है । क्या तकनालाजी की धार ने मेनस्ट्रीम मीडिया में पत्रकारो की जरूरतों को सीमित कर दिया है । क्या राजनीतिक सत्ता ने पूर्ण शक्ति पाने या वर्चस्व के लिये मीडिया को ही खत्म करना शुरू कर दिया है । जाहिर है ये ऐसे सवाल है जो बीते चार बरस में धीऱे धीरे ही सही लेकिन कहीं तेजी से उभरे है । खासकर जिस अंदाज में न्यूज चैनलो के स्क्रिन पर रेगते मुद्दे का कोई सरोकार ना होना ।  मुद्दों पर बहस असल मुद्दों से भटकाव हो ।  और चुनाव के वक्त में भी रिपोर्टिंग या कोई राजनीतिक कार्यक्रम भी इवेंट से आगे निकल नहीं पाये। या कहे सत्ता के अनुकुल लगने की जद्दोजहद में जिस तरह मीडिया खोया जा रहा है उसमें मीडिया के भविष्य को लेकर भी कई आंशकाये उभर रही है । आंशाकाये इसलिये क्योकि मेनस्ट्रीम मीडिया के सामानातांर डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया अपने आप ही खबरो को लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया को चुनौती देने लगा है । और ये चुनौती भी दो तरफा है । एक तरफ मीडिया-सत्ता गठजोड ने काबिल पत्रकारों को मेनस्ट्रीम से अलग किया तो उन्होने अपनी उपयोगिता डिजिटल या सोशल मीडिया में बनायी । तो दूसरी तरफ मेनस्ट्रीम मीडिया में जिन खबरों को देखने की इच्छा दर्शको में थी अगर वही गायब होने लगी तो बडी तादाद में गैर पत्रकार भी सोशल मीडिया या डिजिटल माध्यम से अलग अलग मुद्दो को उठाते हुये पत्रकार लगने लगे ।

मसलन ध्रूव राठी कोई पत्रकार नहीं है । आईआईटी से निकले 26 बरस के युवा है । लेकिन उनकी क्षमता है कि किसी भी मुद्दे या घटना को लेकर आलोचनात्मक तरीके से टकनीकी जानकारी के जरीये डीजिटल मीडिया पर हफ्ते में दो 10 -10 मिनट के दो कैपसूल बना दें । तो उन्हे देखने वालो की तादाद इतनी ज्यादा हो गई कि मेनस्ट्रीम अग्रेजी मीडिया का न्यूज चैनल  रिपबल्कि या टाइम्स नाउ या इंडिया टुडे भी उससे पिछड गया ।

लेकिन यहां सवाल देखने वालो की तादाद का नहीं बल्कि मेनस्ट्रीम मीडिया की कुंद पडती धार का है। और जिस तरह मीडिया का विस्तार सत्ता के कब्जे के दायरे में करने के लिये मीडिया संस्थानो का नतमस्तक होना है , उसका भी है । और ये सवाल सिर्फ कन्टेट को लेकर ही नहीं है बल्कि  यही सवाल डिस्ट्रीब्यूशन से भी जुड जाता है । ध्यान दें तो मोदी सत्ता के विस्तार या उसकी ताकत के पीछे उसके मित्र कारपोरेट की पूंजी की बड़ी भूमिका रही है । मीडिया संस्थानो की फेरहिस्त में बार बार ये सवाल उठता है कि मुकेश अंबानी ने मुख्यधारा के 70 फिसदी मिडियाहाउस पर लगभग कब्जा कर लिया है । हिन्दी में सिर्फ आजतक और एबीपी न्यूज चैनल को छोड दें तो कमोवेश हर चैनल में दाये-बाये या सीधे पूंजी अंबानी की ही लगी हुई है । यानी शेयर उसी के है । पर ये भी महत्वपूर्ण है कि अंबानी का मीडिया प्रेम यू नहीं जागा है । और मोदी सत्ता नहीं चाहती तो जागता भी नहीं ये भी सच है । क्योकि धीरुभाई अंबानी के दौर में मीडिया में आबजर्वर ग्रूप के जरीये सीधी पहल जरुर हुई थी । लेकिन तब कोई सफलता नही मिली । और तब सत्ता की जरूरत भी अंबानी के मीडिया की जरूरत से कोई लाभ लेने वाली नहीं थी । तो मीडिया कोई लाभ का धंधा तो है नहीं । लेकिन सत्ता जब मीडिया पर अपने लिये नकेल कस लें तो मीडिया से लाभ किसी भी धंधे से ज्यादा लाभ देने लगती है । सच ये भी है । क्योकि सिर्फ विज्ञापनों से न्यूज चैनलो का पेट कितना भरता होगा ये दो हजार करोड के विज्ञापन से समझा जा सकता है जो टीआरपी के आधार पर चैनलो में बंटते - खपते है । लेकिन राजनीतिक विज्ञापनो का आंकडा जब बीते चार बरस में बढते बढते 22 से 30 हजार करोड तक जा पहुंचा है तो फिर मीडिया अगर सिर्फ धंधा है तो कोई भी मुनाफा कमाने में ही जुटा हुआ नजर आयेगा । जो सत्ता से लडेगा उसकी साख जरूर  मजबूत होगी लेकिन मुनाफा सिर्फ चैनल चलाने तक ही सीमित रह जायेगा । और कैसे सत्ता कारपोरेट का खेल मीडिया को हडपता है इसकी मिसाल  एनडीटीवी पर कब्जे की कहानी है । जो मोदी सत्ता के दौर में राजनीतिक तौर पर उभरी और मोदी सत्ता ही उन तमाम कारपोरेट प्लेयर को तलाशती रही कि वह एनडीटीवी पर कब्जा करें उसने एक तरफ अगर सत्ता की मीडिया को अपने कब्जे में लेने की मानसिकता को उभार दिया तो उसका दूसरा सच यह भी है कि मीडिया चलाते हुये चाहे जितना धाटा हो जाये लेकिन मीडिया पर कब्जा कर अगर उसे मोदी सत्ता के अनुकुल बना दिया जाये तो मोदी सत्ता ही दूसरे माध्यमो से मीडिया पर कब्जा जमाये कारपोरेट को ज्यादा लाभ दिला सकती है । और यहा ये भी महत्वपूर्ण है कि सबसे पहले सहानपुर के गुप्ता बंधुओ जिनका वर्चस्व दक्षिण अफ्रिका में राबर्ट मोगाबे के राष्ट्रपति होने के दौर में रहा उनको एनडीटीवी पर कब्जे का आफर मोदी सत्ता की तरफ से दिया गया । लेकिन एनडीटीवी की बुक घाटे वाली लगी तो  गुप्ता बंधु ने एनडीटीवी पर कब्जे से इंकार कर दिया । चुकि  गुप्ता बंधुओ का कोई बिजनेस भारत में नहीं है तो उन्हे घाटे का मीडिया सौदा करने के बावजूद भी राजनीतिक सत्ता से मिलने वाले ज्यादा लाभ की जानकारी नहीं रही । लेकिन भारत में काम कर रहे कारपोरेट के लिये ये सौदा आसान रहा । तो अंबानी ग्रूप इसमें शामिल हो गया । और माना जाता है कि आज नहीं तो कल एनडीटीवी के शेयर भी ट्रांसफर हो ही जायेगें । और इसी कड़ी में अगर जी ग्रूप को बेचने और खरीदने की खबरों पर ध्यान दें तो ये बात भी खुल कर उभरी कि आने वाले वक्त में जी ग्रूप को भी अंबानी खरीद रहे है । और मीडिया पर कारपोरेट के कब्जे के सामानातांर ये भी सवाल उभरा कि कही मीडिया कारपोरेशन बनाने की स्थिति तो नहीं बन रही है । यानी कारपोरेट का कब्जा हर मीडिया हाउस पर हो और कारपोरेट सीधे सीधे सत्ता से समझौता कर लें । यानी कई मीडिया हाउस को मिलाकर बना कारपोरेशन सत्तानुकुल हो जाये और सत्ता इसकी एवज में कारपोरेट को तमाम लाभ दूसरे धंधो में देने लगे । तो फिर कमोवेश किसी तरह का कंपीटिशन भी चैनलो में नहीं रहेगा । और खर्चे भी सीमित होगें । जो सामन्य स्थिति में खबरो को जमा करने और डिस्ट्रीब्यूशन के खर्चे से बढ जाते है । वह भी सीमित हो जायेगें । क्योकि कारपोरेट अगर मीडिया हाउस पर कब्जा कर रहा है तो फिर जनता तक जिस माध्यम से खबरे पहुंचते है वह केबल सिस्टम हो या डीटीएच , दोनो पर ही वही कारोपरेट कब्जा करने की दिशा में बढेगी ही जिसने मीडिया हाउस को खरीदा ।

और ध्यान दें तो यही हो रहा है यानी न्यूज चौनलो में क्या दिखाया जाये और किन माध्यमो से जनता तक पहुंचाया जाये जब इस पूरे बिजनेस को ही सत्ता के लिये चलाने की स्थिति बन जायेगी तो फिर मुनाफा के तौर तरीके भी बदल जायेगे । और तब ये सवाल भी होगा कि सत्ता लोकतांत्रिक देश को चलाने के लिये सीमित प्लेयर बना रही है । और सीमीच प्लेयर उसकी हथेली पर रहे तो उसे कोई परेशानी भी नहीं होगी । यानी एक ही क्षेत्र में अलग अलग प्लेयर से सौदेबाजी करनी नहीं होगी । दरअसल भारत का मीडिया इस दिशा में चला जाये इसके प्रयास तो खूब हो रहे है लेकिन क्या ये संभव है या फिर जिस तर्ज पर रशिया हुआ करता था या अभी  कुछ हद तक चीन में सत्ता व्यवस्था है उसमें तो ये संभव है लेकिन भारत में कैसे संभव है ये मुश्किल सवाल जरूर है । क्योकि राजनीतिक तौर पर एकाधिकार की स्थिति में राजनीतिक सत्ता हमेशा आना चाहती रही है । ये अलग बात है कि मोदी सत्ता इसके चरम पर है । लेकिन ऐसे हालात होगें तो खतरा तो ये भी होगा कि मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी उपयोगिता या आवश्यकता को ही खो देगा । क्योकि जनता से जुडे मुद्दे अगर सत्ता के लिये दरकिनार होते है तो फिर हालात ये भी बन सकते है कि मेनस्ट्रीम मीडिया तो होगा लेकिन उसे देखने वाला कोई नहीं होगा । और तब सवाल सिर्फ सत्ता का नहीं बल्कि कारोपरेट के मुनाफे का भी होगा । क्योकि आज के हालात में ही जब मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी उपयोगिता सत्ता के दबाब में धीरे धीरे खो रहा है तो फिर धीरे धीरे ये बिजनेस माडल भी धरधरा कर गिरेगा । क्योकि सत्ता भी तभी तक मीडिया हाउस पर कब्जा जमाये कारपोरेट को लाभ दे सकता है जबतक वह जनता में प्रभाव डालने की स्थिति में हो । और कडी का सबसे बडा सच तो ये भी है जब मेनस्ट्रीम मीडिया ही सत्ता को अपने सवालो या रिपोर्ट से पालिश करने की स्थिति में नहीं होगी तो फिर सत्ता की चमक भी धीरे धीरे लुप्त होगी । उसकी समझ भी खुद की असफलता की कहानियो को सफल बताने वालो के ही इर्द-गिर्द घुमडेगी । और उस परिस्थिति में मेनस्ट्रीम मीडिया की परिभाषा भी बदल जायेगी और उसके तौर तरीके भी बदल जायेगें । क्योकि तब एक सुर में सत्ता के लिये गीत गाने वाले मीडिया काकरपोरेशन में ढहाने के लिये ऐसे कोई भी पत्रकारिय बोल मायने रखेगें जो जनता के शब्दो को जुबा दे सके । और तब सत्ता भी ढहेगी और मीडिया पर कब्जा जमाये कारपोरेट भी ढहेगें । क्योकि  तब घाटा सिर्फ पूंजी का नहीं होगा बल्कि साख का होगा । और अंबानी समूह चाहे अभी सचेत ना हो लेकिन जिस दिशा में देश को सियासत ले जा रही है और पहली बार ग्रामिण भारत के मुद्दे राष्ट्रीय फलक पर चुनावी जीत हार की दिशा में ले जा रहे है ... और पहली बार संकेत यही उभर रहे है कि सत्ता के बदलने पर देश का इकनामिक माडल भी बदलना होगा । यानी सिर्फ सत्ता का बदलना भर अब लोकतंत्र का खेल नहीं होगा बल्कि बदली हुई सत्ता को कामकोज के तरीके भी बदलने होगें । यानी जो कारपोरेट आज मीडिया हाउस के दरीये मोदी सत्ता के अनुकुल ये सोच कर बने है कि कल सत्ता बदलने पर वह दूसरी सत्ता के साथ भी सौदेबाजी कर सकते है तो उनके लिये ये  खतरे की घंटी है ।   

(पुण्य प्रसून बाजपेयी  के ब्लॉग से साभार )

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना