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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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कौन कहता है कि मीडिया बिक गया है?

आलोक श्रीवास्तव/ एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए किसी देश के संस्थानों की निष्पक्षता की आवश्यकता होती है -- एक स्वतंत्र प्रेस, एक स्वतंत्र न्यायपालिका, और एक पारदर्शी चुनाव आयोग जो उद्देश्यपूर्ण और तटस्थ हो।

(-- राहुल गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ते हुए लिखे पत्र का अंश)

न्यायपालिका और चुनाव आयोग पर लोगों का ज्यादा भरोसा नहीं है या वे इनके बारे में अधिक जानते नहीं हैं। पर प्रेस के बारे में आम पढ़े-लिखे ही नहीं, बल्कि अपने-अपने क्षेत्रों के शीर्ष पर बैठे लोगों में भी घोर अज्ञान है। टाइम्स ऑफ इंडिया के खिलाफ 1996-1997 में मुंबई के लेबरकोर्ट, हाईकोर्ट और भारत के सुप्रीम कोर्ट में लड़े गए धर्मयुग के मुकदमे में मैंने हैरत से दर्जनों जजों, पक्ष-विपक्ष के वकीलों के इस अज्ञान और इस अबोधता को प्रत्यक्षतः देखा था। अब पिछले लगभग 25 सालों में तो इस प्रेस में कितना पानी और बह चुका है।

भारतीय प्रेस और मीडिया की अधिकतम आलोचना इस फिकरे तक जाती है कि मीडिया बिक चुका है!

जैसे कि उसे बिकने की जरूरत हो, या वह बिकने की चीज हो।

वस्तुतः 

मीडिया भारत में सत्ता, पूंजी, निहित स्वार्थ और आर्थिक गुलामी के तंत्र का पार्ट एंड पार्सल है। वह भारतीय जनता के शोषण का अत्यंत प्रभावशाली और परिणामकारी उपकरण है।

उपरोक्त बात मेरा या किसी का व्यक्तिगत विचार हो सकती है, इससे सभी को क्यों सहमत होना चाहिए? 

इसलिए इससे हर उस व्यक्ति को, जिसकी सत्य में अल्पतम आस्था है, सहमत होना चाहिए कि—

1 प्रेस एंड रजिस्ट्रेशन एक्ट 1856

2 वर्किंग जनर्लिस्ट एक्ट 1955

3 प्रेस कमीशन1951

4 भारत की केंद्रीय सरकार के श्रम कानून

5 राज्य सरकारों के श्रम कानून

6 पालेकर, बछावत, मणिसाना, मजीठिया आदि वेतन आयोगों की वेतन संस्तुति तथा प्रेस के ढांचे, स्वरूप आदि पर की गई संस्तुतियां

उपरोक्त सभी का भारत का कोई भी मीडिया संस्थान आंशिक पालन भी नहीं करता, यही नहीं उसे इनमें से किसी कानून का पालन न करने से होने वाला भय या कभी कानून की पकड़ में आ जाने का कोई अंदेशा भी नहीं होता।

भारत में प्रेस के अलावा कोई भी मझोला या बड़ा पूंजीवादी उद्योग या व्यवसाय ऐसा नहीं होगा, जो देश के इतने सारे कानूनों की समग्रतः अवहेलना करता हो और इस कदर बेधड़क आपराधिक ढंग से अपने धंधे को चलाता हो।

प्रेस, पूंजीपति, नेता, मंत्री….. आदि का जबर्दस्त गठबंधन है। यह पहले ढीला-ढाला था, पर ग्लोबलाइजेशन के बाद हर बीतते साल के साथ यह अत्यधिक सृद़ढ़ और संपूर्णतः दक्षिणपंथी होता गया है। और सन 2014 के बाद तो इसका अधिकांश एक राजनीतिक दल का विंग -- एक अत्यधिक सक्रिय दस्ता बन गया है। 

पिछले दो दशकों में इसका प्रभाव और प्रसार क्षेत्र तूफानी ढंग से बढ़ कर देश की लगभग समस्त आबादी को अपने दायरे में ले चुका है।

भारत में जनता की मुक्ति का कोई भी संग्राम आरंभ होने की आरंभिक शर्त है कि भारतीय न्यायालयों में सैकड़ों-हजारों मुकदमे उपरोक्त कानूनों के संदर्भ में मीडिया पर डाल कर न्यायपालिका और इस मीडिया दोनों पर दबाव का थपेड़ा पैदा किया जाए। पर यह काम करेगा कौन? बेशक, इसे न करने का एक तर्क न्यायपालिका पर अविश्वास भी हो सकता है। परंतु अभी न्यायपालिका वह जगह है जिस पर जितना दबाव डाला जाएगा, उसका परिणाम भले ही सत्य के पक्ष में निर्णय के रूप में प्राप्त न हो, पर संघर्ष के जनता की चेतना की मुक्ति के एक बढ़े कदम के रूप में जरूर प्राप्त होगा -- पर तभी जब यह काम बड़े पैमाने पर हो और निरंतरता के साथ हो।

इसके अलावा इस अपराधी और शोषक मीडिया के विरुद्ध हर स्तर पर जागरूकता के अभियानों की आवश्यकता है।

यह मीडिया बिका नहीं है।

(आलोक जी के फेसबुक वॉल से साभार)

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना