बीते एक सप्ताह में हमने देखा है कि चौबीसों घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनल किस तरह दोमुंहे राक्षस की तरह हो गए हैं
राजदीप सरदेसाई / न्यूज़ चैनलों की आलोचना करना मानो लोगों का शगल हो गया है। कई लोगों के लिए तो यह बिजनेस मॉडल की तरह है। राजनीतिज्ञ हमें गालियां देते हैं, सोशल मीडिया नाराजगी जताता है। और तो और, मीडिया पर नजर रखने वाली वेबसाइट्स को भी न्यूज़ एंकरों को सूली पर टांगने में अच्छा लगता है। टेलीविजन पत्रकारिता के लिए यह एक साथ ही सबसे अच्छा और सबसे बुरा समय है। खबरों की जानकारी का पहला जरिया हम हैं, लेकिन हमारी विश्वसनीयता लगातार संदेह के घेरे में है। बीते एक सप्ताह में हमने देखा है कि चौबीसों घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनल किस तरह दोमुंहे राक्षस की तरह हो गए हैं। न्यूज़ चैनलों का एक चेहरा कुरूप है, लेकिन यह फायदेमंद भी है।
पहले हमें इसके कमजोर पहलुओं पर नजर डालनी चाहिए। गजेंद्र सिंह की आत्महत्या मामले को न्यूज़ चैनलों पर जिस तरह दिखाया गया, उससे यह पता चलता है कि चेतना कितनी तेजी से सनसनी में तब्दील हो सकती है। भूमि अधिग्रहण विधेयक के विरोध में एक इंसान आम आदमी पार्टी की रैली के दौरान संसद के ठीक सामने आत्महत्या करता है। यह सर्वविदित है कि ‘आप’ को नौटंकी करना अच्छा लगता है। गजेंद्र आत्महत्या मामले में पार्टी की प्रतिक्रिया उसके घमंड और अपरिपक्वता को एक साथ ही सतह पर ले आई। कितने भी आंसू बहाएं या माफी मांगें, इसकी भरपाई नहीं हो सकती। लेकिन मीडिया व्यवसाय से जुड़े हम लोगों का क्या?
हम तथ्यों की सत्यता को नहीं परखते और पेड़ से लटके एक इंसान का मृत शरीर हमें टीआरपी बढ़ाने वाली एक खबर लगता है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट की प्रतीक्षा किए बगैर हम पहले ही निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि मृत्यु का कारण क्या था। यह जाने बिना कि गजेंद्र सिंह कौन है या वह पेड़ पर लटकने को क्यों मजबूर हुआ, हमने यह मान लिया कि वह कर्ज से परेशान होकर आत्महत्या करने वाले किसानों में से एक है। टीआरपी का दबाव हमें खबर को गलत तरीके से पेश करने को मजबूर कर रहा है। यह स्पष्ट नहीं है कि टीवी चैनल और सोशल मीडिया में कौन दूसरे के इशारे पर काम करता है, लेकिन सोशल मीडिया पर तो आप मर्डर शीर्ष ट्रेंड्स में शामिल है। बीते दो दशकों में दो लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अधिकतर मामलों में खेती की समस्या ही इसका कारण रहा है। अकेले महाराष्ट्र में ही 60 हजार से ज्यादा किसानों की मौत इस दौरान हुई है। 250 से ज्यादा इस साल ही मृत्यु के शिकार हुए हैं। मैग्सेसे पुरस्कार विजेता पी. साईनाथ जैसे कुछेक पत्रकारों को छोड़ दें तो किसी मीडियाकर्मी ने शायद ही इस दर्दनाक सत्य को लोगों के सामने लाने की गंभीर कोशिश की है। नीमच या बीड जैसे दूरदराज के इलाकों में किसी किसान की आत्महत्या में उन्हें शायद वो नाटकीयता नहीं मिलती। यह हादसा जैसे ही संसद के दरवाजे पर पहुंचता है, हम अपनी कुंभकर्ण जैसी तंद्रा से बाहर निकल आते हैं और यह प्राइम टाइम का मसाला बन जाता है।
इतना होने के बावजूद चर्चाओं में समस्या का असल कारण जानने की कोई कोशिश नहीं हो रही। एक बार फिर खबर शोर में दब गई है। असली खबर गजेंद्र नहीं है, असली खबर तो बेनाम किसान और मजदूरों का मीडिया परिदृश्य से बाहर हो जाना है। मजदूरों और किसानों की समस्याएं अब पहले पन्ने की खबर नहीं बनतीं। खाद की बढ़ती कीमतों के चलते देश के कुछ हिस्सों में लड़ाइयां हो रही हैं, लेकिन राष्ट्रीय समाचारों में आपको यह कहीं देखने को नहीं मिलेगा। कॉन्ट्रैक्ट पर रोजगार देने की प्रथा के चलते कई बड़ी कंपनियों में छंटनियां हो रही हैं, लेकिन खबरों में इसका विश्लेषण कभी नहीं होता। विरले ही किसी अखबार या न्यूज़ चैनल में एग्रीकल्चर या लेबर के लिए पूर्णकालिक रिपोर्टर रखा जाता है, लेकिन एंटरटेनमेंट और लाइफस्टाइल के लिए बड़े-बड़े ब्यूरो होते हैं। पेज थ्री अब पेज वन में तब्दील होता रहा है जबकि किसान और मजदूरों की धुंधली छवि ही बची है, दो बीघा जमीन और मदर इंडिया के जमाने की फिल्मों की तरह।
चारों ओर निराशा दिखती है, लेकिन अब इसका दूसरा पहलू देखिए। नेपाल में भीषण भूकंप आता है, जिसमें हजारों लोगों की मौत हो जाती है। हजारों बेघर हो जाते हैं। भूकंप के कुछ मिनट के अंदर ही टीवी चैनलों पर विध्वंस और मृत्यु के दृश्य दिखने लगते हैं। आपदा की ये तस्वीरें तत्काल ही लोगों को इससे जोड़ती हैं। केंद्र और राज्य सरकारें हरकत में आ जाती हैं, वायु और थल सेना के जवान राहत कार्यों में जुट जाते हैं और गैर-सरकारी संगठन भी उनकी मदद के लिए उतर आते हैं। टीवी स्क्रीनों पर सूचनाओं की भरमार दिखती है। मानवीय पीड़ा की खबरें एकबारगी ही लोगों को इससे जोड़ देती हैं। कुछ ही घंटों में पड़ोसी देश में आई आपदा हमारे लिए राष्ट्रीय मुद्दा बन जाता है। वर्ष 2013 में उत्तराखंड और ओडिशा, फिर पिछले साल कश्मीर और अब नेपाल- हर बार त्रासदी की तस्वीरें ही लोगों को इससे जोड़ने में सफल रही हैं।
सप्ताह के सातों दिन चौबीसों घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनलों की तत्काल घटनास्थल पर पहुंचने की खासियत ही भूकंप जैसी त्रासदियों के दौरान कुछ राहत देती है। हालांकि, गजेंद्र के मामले में ऐसा नहीं हुआ। मैं नेपाल की तुलना 1993 में लातूर में आए भूकंप से करना चाहूंगा। इसमें 10 हजार लोगों की जान चली गई, पूरा गांव धरती के नीचे समा गया, लेकिन हालात की गंभीरता का अंदाजा लगाने में ही कई दिन लग गए। उस समय न्यूज़ चैनलों के ओबी वैन नहीं थे जो हालात की वास्तविकता बता सकें। बार-बार कटने वाली फोन लाइनें ही सैकड़ों मील दूर स्थित दफ्तर तक पहुंचने का हमारे लिए एकमात्र जरिया थीं। लातूर की भयावह त्रासदी दुनिया के सामने आने में करीब एक सप्ताह लगा था, लेकिन आज यह घंटों में हो जाता है। यह करिश्मा आधुनिक तकनीकों से लैस ओबी इंजीनियर, जर्नलिस्ट और रिपोर्टरों का है। इसका मतलब यह नहीं कि हमें खुद को बेहतर बनाने की जरूरत नहीं है। नेपाल के मामले में भी कई बार चैनलों की संवेदनहीनता और एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ देखने को मिलती है। फिर भी उनके बेहतरीन कवरेज में कई बातें प्रशंसनीय हैं। मलबे में फंसे एक बच्चे के माता-पिता का दुख ही राहत कार्यों में तेजी लाने के लिए पर्याप्त है। कौन कहता है कि न्यूज़ चैनल केवल तमाशा हैं।
पुनश्च: कुछ वर्ष पहले मैंने एक फिल्म देखी थी- पीपली लाइव जिसमें न्यूज़ चैनलों का उपहास उड़ाया गया था। इस फिल्म ने मुझे कई जगहों पर हंसाया, लेकिन मुझे तब भी आश्चर्य हुआ था और आज भी होता है कि क्या मीडिया का मजाक उड़ाने भर से समस्या हल हो जाएगी। और क्या चौबीसों घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनलों के आने से पहले समाचार तंत्र बेहतर था? (साभार दैनिक भास्कर 01 मई 2015)।
राजदीप सरदेसाई
वरिष्ठ पत्रकार
rajdeepsardesai52@gmail.com