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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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किस के हिमायती हैं ये लोग, विरोध में किस के?

खबरें कवर करना तो ठीक, मगर उनका बनाया जाना बंद होना चाहिए

जगमोहन फुटेला /महिला हो या पुरुष। किसी के साथ किसी तरह की कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं होनी चाहिए। बलात्कार तो बिलकुल नहीं। वो हो तो उसके लिए जो भी कानून है उस के मुताबिक़ कठोरतम दंड होना चाहिए। प्रदर्शन की नौबत नहीं आनी चाहिए। फिर भी हो तो उस की आड़ में नेतागिरी नहीं होनी चाहिए। राजनीतिक रोटियां तो कतई नहीं सिंकनी चाहिए। वो भी हो तो फ्री फार आल नहीं होना चाहिए। भीड़ किसी अनुशासन या किसी के नियंत्रण के बिना नहीं होनी चाहिए। होगी तो जो सिर्फ तमाशबीन हैं वे उत्पात कर जनता और सार्वजनिक संपत्ति का ही नुक्सान करेंगे। इसे रोकने के लिए पुलिस भी अपनी खुन्नस निकालेगी। इस में रगड़े निर्दोष भी जाएंगे। मीडिया ऐसे मौकों पर अक्सर गैर जिम्मेवारी से काम लेगा। बताते हैं आप को कि भीड़भाड़ वाली जगहों पर रिपोर्टर भी अपने संपादकों के नियंत्रण से बाहर क्यों हो जाते हैं।

इसे समझने के लिए मीडिया के कामकाज के तरीके और रिपोर्टरों के मनोविज्ञान को समझना पड़ेगा। 

ये अब बहुत बार साबित हो चुका है कि मीडिया में भी ऐसे बहुत से लोग भर्ती हो गए हैं जो कहीं और जा के कुछ करने लायक ही नहीं थे। आप कोई सा चैनल खोल के देख लीजिए। हिंदी का चैनल है तो हिंदी ही नहीं आती उन में से कईयों को। कई लोगों को चोटें लगी होंगीं तो भी वे बोलेंगे और लिखेंगे ये कि ' कई लोगों को चोट लगा'. पहली बात तो ये है कि चोट जब एक से ज्यादा (लोगों को) लगी है तो भी वो एक ही चोट कैसे है, वो चोटें क्यों नहीं है? और फिर वो चोट हो या चोटें दोनों ही लगती हैं, लगता तो नहीं हैं।
तीन भाषाओं वाला एक चैनल चलता है पंजाब से। आप कभी भी खोल के देख लो। उसके हिंदी पत्रकार भी 'ये' को 'जे' और 'यानी कि' को 'जणकी' बोलते दिखाई देंगे। मैंने हिंदी अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों को ये कहते सुना है कि जब वे हैं पंजाबी तो हिंदी में क्यों बात करें। एक तो जलंधर से छपने वाले एक हिंदी अखबार का संपादक हो गया। अपनी संपादकीय टीम की मीटिंग भी वो पंजाबी में लिया करता था। हमारे बिहारी भाइयों के साथ ये समस्या और भी गंभीर है। उन्होंने वर्तनी और व्याकरण का सत्यानास कर रखा है। ऊपर से चूंकि पत्रकारिता में आने के लिए कोई न्यूनतम योग्यता भी निर्धारित है नहीं। सो, हमारे महान पत्रकारों को उस विषय की कोई जानकारी भी नहीं होती जिस पे उनको जुटाया गया है। मसलन जिस ने कभी ग्याहरवीं क्लास में भी अर्थशास्त्र नहीं पढ़ा वो बाज़ार के उतार चढ़ाव पे ज्ञान बघारता है और जिस ने कभी जीवन में किसी ला कालेज का गेट तक नहीं देखा वो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की व्याख्या करते हैं और पूरी बेशर्मी से राम जेठमलानी, अरुण जेटली, अभिषेक मनु और सलमान खुर्शीद जैसों को कानून समझाते हैं। लेकिन मैं बताऊँ आप को कि तब क्या होता है जब ये तुर्रमखां भीड़ के पल्ले पड़ते हैं।

भीड़ में जाने के बाद आधे रिपोर्टर सुनते कम, बोलते ज्यादा हैं।

सवाल भी वे वो पूछेंगे जिन से कोई तगड़ी बाईट निकलती हो। सच से या खबर से भी उनका कोई लेना देना नहीं है। तकरीबन हर रिपोर्टर 'पीस टू कैमरा' (माइक हाथ में ले के बोलना) भीड़ के साथ खड़ा हो कर करेगा। अब यहीं वो बेसिक भूल करता है। वो, वो नहीं बोल रहा होता है जो वो खुद भी सोचता और कहना चाह रहा होता है। वो या तो भीड़ को खुश रहा होता है या उस से डर रहा होता है। आप खुद सोच के देखिये कि अगर उसने खुद भी भीड़ में किन्हीं लोगों को कार उल्टा कर तोड़फोड़ करते देखा है तो क्या भीड़ के सामने, भीड़ के बीच खड़ा हो के वो कह सकता है कि भीड़ में गुंडे या बदमाश भी हैं। तोड़ नहीं डालेंगे वे सब लोग उसे वहीं पे? खासकर चैनल वाले पत्रकार हमेशा भीड़ से बहुत डरते है। इसी लिए वे हमेशा शाट लेने के लिए पुलिस के पीछे रहते हैं। आप कभी भी देखना। शाट आप को जो भी दिखेंगे वो सब पुलिस के भीड़ की तरफ भागते दिखेंगे। भीड़ के पुलिस की तरफ भागते कभी नहीं। क्योंकि कैमरे तो पुलिस के पीछे हैं। और वो इस लिए हैं कि भीड़ में वे कभी घिर न जाएं। पुलिस के पीछे रहेंगे तो शाट बना कर पीछे के पीछे निकल लेने की सुविधा है। भीड़ तो रोक लेती है। कहती है ये शाट भी लो और वो भी। फिर जो और जितनी देर तक भीड़ चाहेगी आप से रिकार्ड कराएगी। ज़रा सी सी तीन पांच की तो वो पीटेगी अलग से। जैसा आज एनडीटीवी के एक रिपोर्टर के साथ हुआ इंडिया गेट पर। भीड़ ने उसका माइक छीन लिया। उन लोगों ने जो कहा वो सब रिकार्ड करना पड़ा। बोलना भी वो पड़ा जो वो न बोलता तो कभी कुछ और बोलने लायक भी न रहता। इस लिए मैं हमेशा कहता हूँ कि पीस टू कभी भी किसी के सामने नहीं करना नहीं करना चाहिए। संबंधित पक्ष के सामने तो बिलकुल नहीं।

मैं अपनी बात करूं तो मैं टीवी पत्रकारिता में टीवी पत्रकारिता से पहले आई वीडियो मैगज़ीन पत्रकारिता के समय से रहा हूँ। टीवी में मुझे रिपोर्टर से लेकर संपादक तक का अनुभव हासिल करने का सौभाग्य मिला है। मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि फोटोग्राफर और टीवी वाले अक्सर प्रदर्शनकारियों को बोल के रखते हैं कि भैया कोई शाट बनवा देना। मैंने देखा है कि प्रदर्शनकारी कुछ धमाल करने के लिए कैमरे आने का इंतज़ार करते हैं। कुछ लोग लेट हो जाएं तो उन के शाट बनवाने का कष्ट दोबारा किया जाता है। मेरे खुद के एक रिपोर्टर ने गज़ब किया एक बार। एक अफसर मर गया किसी शहर में। प्रेस वाले पंहुचे। उन में ये भी था। अफसर की बीवी रो रही थी। इस ने उसे कहा कि वो चुप हो जाए। वजह भी बताई। कहा कि कैमरे का ट्राईपाड (स्टैंड) लगाने और फिर फ्रेम सेट करने में टाइम लगेगा। ट्राईपाड लगा के कैमरे का फ्रेम भी उस ने जब बना लिया तो उसने उस औरत से कहा, '' आप मेरी तरफ देखते रहना और जैसे मैं मैं इशारा करूं, आप रोना शुरू कर देना।'' आज की मीडिया में ज़्यादातर लोग ऐसे ही हैं। असंवेदनशील और अमानवीय हो जाने की हद तक नौटंकीबाज़ भी। बड़े अजीब किस्से हैं। एक अखबार के फोटोग्राफर ने पंजाब में आतंकवाद के दिनों में देखा कि सिगरेट वाली दुकान पर सब्जी बिकने लगी है। उस ने पूछा उस दुकानदार से कि ऐसा क्यों? उस ने कहा सिगरेट बेच कर गुज़ारा नहीं होता था। सब्जी में अच्छी कमाई हो जाती है। फोटोग्राफर ने पूछा वो बोर्ड है अभी सिगरेट वाला? उस ने कहा, 'हाँ'. फोटोग्राफर ने वो बोर्ड मंगवाया, सब्जियों के साथ रखवाया, फोटो खींचा और फोटो छपी तो नीचे लिखा था कि आतंकवादियों के डर से सिगरेट बेचने वाले सब्जियां बेचने लगे। फोटोग्राफर की फोटो तो बन गई जो न भी बनती तो उसकी तनख्वाह फिर भी उतनी ही रहने वाली थी। लेकिन इस का परिणाम ये हुआ कि आतंकवादियों की ऐसी कोई धमकी न होने के बावजूद उन के डर से पंजाब में सैंकड़ों सिगरेट बेचने वाले बेरोजगार हो गए।

तो अपने शाट के लालच में हुडदंग कई बार मीडिया वाले खुद कराते हैं। हुडदंग जो दंगों की जननी हैं। मीडिया ये करता ही रहता है जब तक उसे खुद को ज़लालत का सामना न करना पड़े। वो दो दो टके के लोगों को भी हीरो बनाता चला जाता है। उस ने कुछ चेहरे तलाश और तराश रखे हैं। कभी महिला मामलों पर मधु किश्वर बहुत बड़ी मांग में थीं। अब रंजना जी हैं। पत्रकार विनोद शर्मा को कांग्रेस पे बुलवा बुलवा के चैनलों ने नेता बना दिया है। बस उनका राज्यसभा में जाना ही अब शेष बचा है। आदरणीय विनोद मेहता जी के पास अपनी पत्रिका के लिए समय नहीं रहा लेकिन चैनल वालों को उन की राय उस अनाज के समर्थन मूल्य पर भी चाहिए जो उन्हें पता नहीं है कि उगता कहां पर है। अन्ना और केजरीवाल को कभी जीरो से हीरो जिस मीडिया ने अपनी ज़रूरत के लिए बनाया आज उन्हीं के द्वारा लतियाये जाने के बाद वे अब उनकी ज़रूरत नहीं हैं। मीडिया कई बार देश की किसी चिंता के लिए नहीं, किसी को भी सिर्फ इस लिए इस लिए भी सिर पे बिठा लेती है कि वो चैनल के दो चार घंटे फ्री में निकलवा देगा। वरना चार घंटों के लिए मसाला जुटाने में कई बार चार लाख रूपये तक खर्च हो जाते हैं। 

इस लिए, और सिर्फ इस कारण से मैं ऐसे किसी भी भीड़ भड़क्के की मीडिया हाइप के खिलाफ हूँ जो किसी भी केजरीवाल को संदर्भहीन बना या किसी रामदेव को सलवार कमीज़ पहना देता हो। कोई भी सभा या प्रदर्शन जब सिर्फ तमाशबीनों और उस से उपजी स्वाभाविक तमाशबीनी के लिए हो तो मीडिया को भी कुछ तो जिम्मेवार होना होगा। इंडिया गेट को तहरीर चौक बना देने में अंतत: मीडिया का भी क्या भला हो जाने वाला है। क्यों नहीं सोचता वो कि इंडिया गेट जब उबला तो उस भीड़ के पास जलाने के लिए वहां पे सिर्फ और सिर्फ मीडिया की ही ओबी वैन और वाहन उपलब्ध होंगे। अपने दिल पे हाथ रख के बताएं देश के टाप टेन चैनलों के ही संपादक, इस पेशे में आया हर पत्रकार क्या सिर्फ देश और समाज का ही भला सोचता है? अगर 'नहीं' तो फिर खबरें कवर करना तो ठीक, मगर उनका बनाया जाना बंद होना चाहिए। (journalist community से )

 


 

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना