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अखबारी कागजों की कीमत की आग में झुलसता अखबार उद्योग

लिमटी खरे/ कोरोना कोविड 19 के चलते 2020 के बाद अखबारों पर संकट के बादल छाने आरंभ हुए थे, जो आभी बदस्तूर उतने ही घने और स्याह ही दिखाई दे रहे हैं। कोविड काल में अखबार की प्रोडक्शन कास्ट में जमकर बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। बिजली की दरें, स्याही, मशीन के उपरकरण आदि तो महंगे हुए ही हैं, साथ ही कागज की दरों में जिस तरह से अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है वह अखबारों के लिए संकट से कम नहीं है।

रूस और यूक्रेन के बीच हो रहे युद्ध ने कागजों की दरों में जमकर बढ़ोत्तरी की है। इसके पहले चीन ने कागज का उत्पादन कम कर दिया था, क्योंकि इसके लिए उसे पेड़ काटने पड़ रहे थे। यही कारण था कि 2018 के उपरांत कोविड काल तक देश में कागजों की कीमतों में आग लग गई थी, क्योंकि चीन को कागज की आपूर्ति भारत से की जाने लगी थी।

अखबारों का इतिहास भी भारत में दो सदी पुराना माना जा सकता है। भारत में यूरोपियन्स के प्रवेश के साथ ही समाचार पत्रों की शुरुआत होती है। भारत में प्रिंटिंग प्रेस लाने का श्रेय पुर्तगालियों को है। गोवा में वर्ष 1557 में कुछ ईसाई पादरियों ने एक पुस्तक छापी थी, जो भारत में मुद्रित होने वाली पहली किताब थी। 1684 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की। लेकिन भारत का पहला समाचार पत्र निकालने का श्रेय भी जेम्स ऑगस्टस हिकी नामक एक अंग्रेज को जाता है, जिसने वर्ष 1780 में ‘बंगाल गजट’ का प्रकाशन किया था। यानी भारत में समाचार पत्रों का इतिहास 242 वर्ष पुराना है। कहा जाता है कि कोई भी परंपरा एक डेढ़ या दो सदी तक ही चला करती है। दो सौ सालों में वह शून्य से आरंभ होकर अपने शिखर तक पहुंचता है और एक बार फिर विलोपन की कगार पर पहुंच जाता है।

देखा जाए तो किसी अखबार का मालिक उसका प्रकाशक या संपादक नहीं होता है। अखबार का असली मालिक तो उसका पाठक ही होता है। किसी भी अखबार की लोकप्रियता या उसकी आवाज उसके पाठक की कसौटी पर ही तय होती है। पाठक ही उसके परिवार का अहम हिस्सा माना जा सकता है।

एक आकलन के अनुसार कोरोना काल में ही अनेक देशों में अखबारी कागज की किल्लत आरंभ होना शुरू हुई। अनेक देशों में पेपर बनाने वाली मिल बंद होने लगीं। जाहिर है इन परिस्थितियों में अखबारी कागज की कमी हुई और मांग बढ़ने एवं सप्लाई कम होने से कीमतों में उछाल दर्ज किया जाने लगा।

यूक्रेन और रूस के बीच चल रहे युद्ध के कारण रूस पर लगी पाबंदियों ने आग में घी का काम किया। इसके चलते रूस से अखबारी कागज की आपूर्ति पूरी तरह ही बंद कर दी गई। रूस के अलावा फिनलेण्ड अखबारी कागज का एक बड़ा उत्पादक और निर्यातक है, पर वहां मजदूरों की लंबी हड़ताल ने रही सही कसर पूरी कर दी तो अखबारी कागज के एक अन्य बड़े उत्पादक देश कनाड़ा में भी वेक्सीन के खिलाफ लामंबद हुए ट्रक चालकों की हड़ताल से भी अखबारी कागज यह प्रभावित हुआ।

देश में अखबारी कागज का 40 फीसदी हिस्सा कनाड़ा से आयात किया जाता है। आज देश में अखबारों की तादाद भी घटती ही प्रतीत हो रही है। अधिकांश अखबारों ने अपने ई संस्करण आरंभ कर दिए हैं, इसका नतीजा यह हुआ है कि रद्दी कागज की कीमतें पांच रूपए किलो से पचास रूपए किलो पर पहुंचती दिख रही हैं।

पूरे विश्व में कागज की कमी जबर्दस्त तरीके से चल रही है। श्रीलंका में तो लाखों स्कूली छात्र छात्राओं की परीक्षाओं को ही रद्द कर देना पड़ा क्योंकि वहां प्रश्न पत्र छापने के लिए कागज ही नहीं है। और तो और कागज आयात करने के लिए उनके पास विदेशी मुद्रा का भण्डार भी नहीं है।

2018 में घरेलू अखबार की कीमत 26 से 28 रूपए किलो हुआ करती थी। जैसे ही चीन को कागज की आपूर्ति आरंभ की गई ये दरें बढ़कर 35 से 38 रूपए प्रतिकिलो पर पहुंच गईं। आज कागजों की कीमतें 60 रूपए से 75 रूपए प्रतिकिलो पर जाकर टिकी हैं। 2018 में कागज 290 डॉलर प्रतिटन हुआ करता था वह कोविड काल के आरंभ में 380 डॉलर प्रति टन पहुंचा और वर्तमान में इसकी दरें 960 से 1000 डॉलर प्रतिटन पर जा पहुंची हैं।

देश में भी घरेलू अखबार की मिलों में पर्याप्त उत्पादन नहीं हो पा रहा है। सरकारों के द्वारा भी छोटे मझौले अखबारों को पर्याप्त मात्रा में विज्ञापन नहीं दिए जाने से भी अखबारों पर बंद होने का संकट गहराता दिख रहा है। रही सही कसर ई कामर्स कंपनियों के द्वारा अपना करोबार फैलाने के साथ कर दी गई है। दरअसल, ई कामर्स कंपनियों के कारोबार में कोरोना काल में जमकर उछाल दर्ज किया गया है, इस लिहाज से उन्हें भी पैकिंग मैटेरिलय की आवश्यकता है। अखबारी कागज बनाने वाली अनेक मिल्स आज पैकिंग मैटैरियल बनाने के काम में लग चुकी हैं।

अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आज 60 रूपए किलो का कोरा कागज खरीदकर एक किलो में चार पेज की लगभग चालीस प्रति छापकर आपको महज दो ढाई रूपए में जो छोटे अखबार दे रहे हैं उनकी कागज की लागत ही प्रति पेपर सिर्फ कागज की ही लागत सवा रूपए के करीब बैठती है। इसके बाद छपाई का खर्च, संपादकीय, विज्ञापन, प्रसार आदि प्रभागों का वेतन न जाने कितने खर्च उस अखबार के प्रबंधन के मत्थे होते है, इसके अलावा एजेंट का कमीशन भी अखबार मालिक को ही देना होता है। कुल मिलाकर चार पेज का छोटा अखबार साढ़े तीन से चार रूपए में एक प्रति छापकर आपको महज दो रूपए में देता है . . . अगर उसकी प्रसार संख्या कम है तो प्रोडक्शन कास्ट और भी बढ़ जाती है।

एक समय था जब सब मिलकर देश और समाज हित में अखबारों का प्रकाशन किया करते थे। अब सोशल मीडिया के अनेक प्लेटफार्मस के आने के बाद अखबारों पर संकट के बादल छाए हैं इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। कोविड काल में अनेक अखबारों का प्रकाशन भी बंद हुआ है। कोविड काल में लोगों को सब कुछ मोबाईल पर देखने सुनने की आदत सी हो चुकी है, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।

लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं

(साई फीचर्स)

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सम्पादक

डॉ. लीना