मनोज कुमार / मजदूर हाशिये पर हैं। अब उनकी कोई बात नहीं करता। मजदूर कभी वोट बैंक नहीं माना गया तो बदलते दौर में मजदूरों की जरूरत भी बदल गयी। मजदूर किसे कहते हैं और मेहनतकश, यह भी अब लोगों को जानने की जरूरत नहीं रह गयी है। इस बार जब मई दिवस मनाया जा रहा है तब हिन्दुस्तान तख्तो-ताज का फैसला करने के लिये आमचुनाव के मुहाने पर खड़ा है। कभी इसी हिन्दुस्तान में मजदूरों के लिये, मेहनतकश लोगों के लिये राजनीतिक दल सडक़ पर उतर आते थे। आज किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में मेहनतकश के लिये कोई जगह नहीं है। उनके पास मुद्दे हैं तो धर्म और महंगाई की, वे चुनाव में वायदे करते हैं बेहतर जिंदगी की लेकिन बेहतर कौन बनायेगा, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। हालांकि देश की आजादी के साथ ही मेहनतकश लोगों की उन्नति का जिम्मा कम्युनिस्टों के कंधे पर रहा है। आज जिस संख्या में राजनीतिक दल मैदान में हैं, तब वैसा नहीं था। कांग्रेस पर पूंजीवादी को प्रश्रय देने का कथित रूप से ठप्पा लगा था तो जनसंघ की पहचान अपने हिन्दूवादी सेाच को लेकर थी। तब माकपा हो या भाकपा या इनकी सोच से मेल खाते दल ही बार बार और लगातार मेहनतकश के पक्ष में खड़े होते दिखायी दिये हैं।
इस चुनाव में केवल औपचारिक रूप से माकपा हो या भाकपा का हस्तक्षेप है क्योंकि इस बार के चुनाव में मुद्दे नहीं, मौका भुनाने की होड़ है। जिस तरह प्रचार पर पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है, वह कम से कम माकपा या भाकपा के बूते की बात तो है ही नहीं। जिस तरह से प्रचार का तरीका अपनाया गया है, वह भी माकपा या भाकपा के बूते में नहीं है। कभी इस देश में पूंजीवाद के खिलाफ सर्वहारा वर्ग के बीच संघर्ष था लेकिन अब पूंजीवाद के खिलाफ पूंजीवाद के बीच संघर्ष है। तेरी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसी, की भी बात नहीं हो रही है बल्कि बात हो रही है कि तेरे पास सौ करोड़ तो मेरे पास 99 करोड़ क्यों? जब पंूजीवाद के खिलाफ पंूजीवाद मैदान में होगा तो सर्वहारा वर्ग का क्या काम? उसके लिये तो महात्मा गांधी के नाम पर रोजगार की गारंटी दी जा रही है। साल में सौ दिन काम करेगा और इस सौ दिन की कमाई से पूरे 365 दिन अपने परिवार को पेट भरेगा। यह सर्वहारा वर्ग की नियती है लेकिन पूंजीपति हर मिनट में लाखों कमायेगा और उसके कमाने के लिये 365 दिन भी कम पड़ जाएंगे।
स्थिति जब ऐसी तो किसका मई दिवस और कौन नारे लगायेगा इंकलाब जिंदाबाद। नयी पीढ़ी के लोगों को मई दिवस के बारे में पता नहीं भी हो तो हैरान होने की जरूरत नहीं है। नयी पीढ़ी तो डे मनाने में यकिन रखती है क्योंकि बाजार उसे बताता है कि उसे कौन सा डे मनाना है। बाजार को क्या जरूरत है कि वह बताये हमारे देश में मई दिवस भी होता है। अंग्रेजी में शायद इसे लेबर डे कह सकते हैं लेकिन जो खुद का पेट नहीं भर सकता हो, उस लेबर के लिये क्या डे और क्या नाईट। बाजार तो कहता है कि जिनका पेट भरा हो और जो बाजार का पेट भर सके, उसके लिये ही अलग अलग डे बने हैं। मेहनतकश के लिये कोई परवाह नहीं करता है। सुरसा की तरह बढ़ती महंगाई में रोज की मजदूरी डेढ़ सौ रुपया कर हमारी सरकार ऐसा सीना तान लेती है मानो सारा खजाना उसने मजदूर के नाम कर दिया है। दरअसल, जिस तरह मशीनीकरण का दौर शुरू हो चुका है, हाथ बेकार हो रहे हैं, वहां अब कोई इंकलाब का नारा लगाने नहीं आता है। कोई यूनियन बंद होते कारखानों के सामने धरने पर नहीं बैठती हैं और न ही अखबारों के पन्ने पर मजदूरों की मौत की कोई खबर छपती है। लाल सलाम अब लोग भूलने लगे हैं क्योंकि वर्दीधारी अब उन्हें सेल्यूट मारते हैं। इस देश से तो जैसे मेहनतकश दरकिनार कर दिये गये हैं और सभी पूंजीपति हो गये हैं। पूंजीपतियों की भीड़ में सर्वहारा वर्ग कराह रहा है। अब तो इंतजार है कि दबे-कुचले लोगों के बीच से कोई आएगा और कहेगा-इंकलाब जिंदाबाद...वह सरकार निकम्मी है..