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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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प्रक्षिप्तकार अग्रवाल का दलित विरोधी चेहरा

कैलाश दहिया/ 'हंस' पत्रिका के सितंबर, 2022 अंक में द्विज आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल का 'नेहरू से ऐसा डर क्यों' शीर्षक से लेख छपा है। इस लेख में इन्होंने एक बार फिर अपना दलित विरोधी चेहरा दिखा दिया है। ये लिखते हैं, 'वैसे यह इन दिनों परम लोकप्रिय अस्मिता-परक सोच का ही तो एक रूप है जिसके अनुसार आप केवल अपनी जन्मजात सामाजिक पहचान के मुताबिक ही काम कर सकते हैं, उस पहचान से मुक्त होकर लोकतांत्रिक व्यक्तित्व अर्जित करने की संभावना है ही नहीं। सो, आप दलित अधिकारों की बात तभी कर सकते हैं जब खुद दलित हों, स्त्री अधिकारों की बात तभी जब स्वयं स्त्री हों...।

पूछा जाए, ये अभी तक दलित अधिकारों के लिए कौन सा मोर्चा खोले हुए थे? इन्हें दलित अस्मिता से भय क्यों लगता है? दलित अगर अपनी पहचान के साथ आ रहा है तो इस से किसी को क्यों भयभीत होना चाहिए? क्या दलित अपनी पहचान के साथ लोकतांत्रिक व्यक्तित्व अर्जित नहीं कर सकता? अग्रवाल महोदय अगर अपनी बनिए की पहचान के साथ लोकतांत्रिक व्यक्तित्व अर्जित कर सकते हैं तो चमार-भंगी भी अपनी दलित पहचान के साथ लोकतांत्रिक व्यक्तित्व अर्जित कर सकते हैं। हां, यह जाहिर सी बात है कि कोई गैर दलित "दलित साहित्य" नहीं लिख सकता।

ये अपनी जन्मजात चालाकी से बाज नहीं आए हैं, इन्होंने लिखा है, 'जन्मजात सामाजिक पहचान के मुताबिक ही काम कर सकते हैं'। पता नहीं इन्होंने कहां देख- पढ़ लिया कि दलित अपनी जन्मजात सामाजिक पहचान के मुताबिक ही परंपरागत व्यवसाय में ही लगा रहना चाहता है! दलित तो इस देश का शासक, इंजीनियर, डॉक्टर, पायलट, लेखक, अभिनेता और न जाने क्या-क्या बनना चाहता है। लेकिन उसे इस से रोका जाता है। इन का कथन भी इसी दिशा में बढ़ा हुआ है। इस रोकने के खिलाफ ही तो दलित की लड़ाई है।

दरअसल, अग्रवाल महोदय के अंदर अपनी जाति की वजह से चालाकी कूट-कूट कर भरी हुई है। असली बात है पेशों के प्रति सम्मान का भाव, जो द्विजों में पाया ही नहीं जाता। दलित विमर्श पेशों के नाम पर दलित में भर दी गई हीनता को दूर करने का ही नाम है। यही इन की समस्या हो गई है। फिर एक चमार या भंगी अपनी जातीय पहचान के साथ क्यों नहीं आ सकता? इस से लोकतांत्रिक व्यक्तित्व अर्जित करने में क्या बाधा है? ऐसा लगता है बनिए के रूप में अग्रवाल महोदय लोकतांत्रिक व्यक्तित्व अर्जित नहीं कर पाए हैं! और, अगर इन्होंने अपनी जाति के रूप में लोकतांत्रिक व्यक्तित्व अर्जित कर लिया है तो निश्चित मानिए दलित जाति का प्रत्येक व्यक्ति इसे अर्जित करेगा ही करेगा।

इन्होंने दलित अधिकारों को उठाने की बात भी कही है। इन से अनुरोध है कि जितना जल्दी हो सके दलित अधिकारों पर ये अपने एजेंडे के साथ सामने आएं। कौन इन्हें दलित अधिकारों को उठाने की बात करने से रोक रहा है? दलितों की तो मांग है कि 'बलात्कारी को फांसी' और 'जारकर्म पर दलित स्त्री-पुरुष को तलाक' का अधिकार मिले। क्या ये इस काम में हमारी मदद करेंगे? बताइए, हम से बड़ा स्त्री समर्थक कौन मिलेगा।

इन की चालाकी देखिए, एक तरफ ये पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू पर किंवदंतियों और प्रक्षिप्त गढ़ने वालों से लड़ते दिखाई देना चाहते हैं, वहीं दूसरी तरफ ये किंवदंतियों के समर्थन में लिखते हैं, 'किंवदंतियां ठोस तथ्यों को नहीं बल्कि लोकमानस में बैठी मान्यताओं को सूचित करती हैं।'

क्या इन्हें पता नहीं कि ये जिन का विरोध कर रहे हैं वे ही प्रक्षिप्त और किवदंती गढ़ने वाले लोग हैं। ऐसे ही लोगों ने पुराण रच कर इस देश की जनता को अंधेरे में धकेले रखा है। इन्हें यह भी पता होना चाहिए कि इतिहास पुरुषों के प्रति किंवदंतियां गढ़ने वाले अपराधी की श्रेणी में आते हैं। ऐसे ही लोगों ने भूतकाल में  किंवदंतियां खड़ी की हैं। असल में, ये जनमानस के नाम पर ठोस तथ्यों को नकारने की जिद पर उतरे हैं। तथ्य यह है कि ये दलित के प्रति छुआछूत बरती गई है और दलित स्त्री को जारकर्म में धकेला गया है। जिस में ब्राह्मणी वर्ण व्यवस्था के वैश्य किसी से पीछे नहीं हैं। यही इन का किंवदंतियां के समर्थन का वास्तविक चेहरा है। 

इन जैसे किंवदंतीकारों ने ही आजीवक कबीर साहेब के जीवन और चिंतन में  किंवदंतियां और प्रक्षिप्त भर दिए थे, जिन्हें महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर ने अथक मेहनत से ध्वस्त किया है। ये इस बात के गवाह हैं।

वैसे, इन से पूछा जा सकता है कि नेहरू के बारे में जैसी किंवदंतियां फैलाई जा रही हैं, कल को अगर इन किंवदंतियों ने लोकमानस के मन में घर कर लिया तो क्या ये किंवदंतियां सच मान ली जाएंगी? अगर अग्रवाल महोदय को कबीर साहेब के जीवन और चिंतन में प्रक्षिप्त और किंवदंतियां मंजूर हैं तब तो इन्हें नेहरू के साथ गढ़ी जा रही किंवदंतियां भी स्वीकार करनी पड़ेंगी। लेकिन, दलितों को तो किसी भी ऐतिहासिक व्यक्ति के जीवन से जोड़ी जा रही किंवदंतियां और प्रक्षिप्त  मंजूर नहीं। वैसे भी युद्ध किंवदंती और इतिहास के बीच छिड़ा हुआ है, जिस में इन्हें तय करना होगा कि ये किस ओर हैं। दो नावों की सवारी एक साथ नहीं की जा सकती।

आखरी बात जो इन की सोच के संबंध में बताई जा सकती है, गरीब और दलित में जमीन आसमान का फर्क होता है। दलित करोड़पति भी हो सकता है लेकिन पहचान उस की दलित की ही रहेगा। इस के विपरीत किसी गरीब से गरीब ब्राह्मण को गरीबी की वजह से छुआछूत का सामना नहीं करना पड़ता। ब्राह्मण अपनी गरीबी में भी किसी सामंत से पांव धुलवा सकता है जबकि एक दलित को मरे हुए पशु का मांस खाने को विवश कर दिया जाता है। वैसे, किसी गरीब बनिए की आत्मकथा सामने आए तो अच्छा ही होगा। आजीवक आलोचक उस की दलित आत्मकथा से तुलना कर पाएंगे।

असल में, इन्होंने जो लिखा है, ऐसा लेखन प्रक्षिप्त की श्रेणी में आता है। कोई प्रक्षिप्तकार ही किंवदंती के समर्थन में बोलता है। उम्मीद है ये अपने लेख पर पुनः विचार करेंगे और सच के पक्ष में लिखेंगे। दलितों को इन से इस से ज्यादा और कुछ नहीं चाहिए।

इस आलेख के बारे में कैलाश दहिया जी ने लिखा है- आजीवक किसी बहस-विमर्श को उस मंच पर ही उठाने को तैयार रहते हैं। अगर कोई पत्रिका विमर्श को अधूरा रखती है तो उसे क्या माना जाए? डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल के 'हंस' पत्रिका के सितंबर, 2022 अंक में छपे लेख के जवाब में इस पत्रनुमा लेख को 'हंस' को तभी भेज दिया गया था। लेकिन हंस ने इसे अपनी पत्रिका में जगह नहीं दी। इस पर तुर्रा यह कि ऐसी पत्रिकाएं विमर्श को चलाने का दावा करती हैं। पाठक देखेंगे कि इन पत्रिकाओं में कोई दम नहीं बचा है। यह पत्र मैं दिवंगत राजेंद्र यादव जी को श्रद्धांजलि स्वरूप दे रहा हूं। शेष पाठक दोस्तों पर, कि वे इस विमर्श में अपना योगदान देंगे।

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सम्पादक

डॉ. लीना