कैलाश दहिया/ हिंदी साहित्य में आजकल एक चलन हो गया है, अगर कोई पुरस्कार लेना हो या नाम कमाना हो तो डॉ. धर्मवीर का विरोध करना शुरू कर दो। दलितों के साथ-साथ पिछड़ों में भी यह प्रथा पिछले एक-डेढ़ दशक से देखी जा रही है। द्विज तो हैं ही दलित विरोधी।
डॉ. राजेश चौहान ने अपनी दिनांक 15 जुलाई, 2021 की फेसबुक पोस्ट में डॉ. नामवर सिंह के वक्तव्य की सूचना देते हुए बताया है- ''कबीर के आलोचक' और डॉ. धर्मवीर के संदर्भ में नामवर सिंह ने कहा था, 'मैं धर्मवीर की आलोचना करके ब्राह्मणों को सुख नहीं पहुँचाना चाहता।'' है ना गजब का वक्तव्य! यानी नामवर जी को आलोचना से कोई मतलब नहीं था, उन्हें केवल अपनी जातिवादी राजनीति करनी थी। इतना ही नहीं, उन की आलोचना में किसी को दुख पहुंचाना भी सम्मिलित था! सुख किसे पहुंचाते थे, यह भी सोचने लायक बात है। वैसे, 'कबीर के आलोचक' में ब्राह्मण आलोचकों की पड़ताल की गई है। अगर नामवर जी ब्राह्मणों को सुख नहीं पहुचाना चाहते थे, तो वे इस किताब के पक्ष में लिख सकते थे। लेकिन उन से यह भी नहीं हुआ। अब यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि जिस भी लेखक- आलोचक ने 'कबीर के आलोचक' का विरोध किया वह ब्राह्मणों को सुख पहुंचाने के लिए ही लिख रहा था। तो यह है हिन्दी साहित्य और इस की राजनीति!
वैसे, यह ध्यान देने लायक बात है, नामवर सिंह से किसी ने यह क्यों नहीं पूछा, आप तो ब्राह्मण हजारी प्रसाद द्विवेदी का शिष्य होने का दंभ भरते हैं, क्या इस से ठाकुरों में रोष नहीं होता रहा होगा? दूसरे, किसी ठाकुर के द्विवेदी का शिष्य होने पर निश्चित ही ब्राह्मणों को सुख मिलता ही रहा होगा। यानी नामवर सिंह जीवन भर ब्राह्मणों को सुख देते रहे। ऐसे में, डॉ. धर्मवीर की आलोचना से ब्राह्मणों को कैसे सुख मिलता, यह उन्हें बताना ही चाहिए था। खैर, कोई बात नहीं, नामवर जी का कोई शिष्य चाहे तो इस बात का खुलासा कर सकता है।
एक बात और, डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी के नामवर सिंह का पड़शिष्य होने पर निश्चित ही ब्राह्मणों में रोष होता होगा! पूछा यह भी जा सकता है, क्या नामवर सिंह केवल ब्राह्मणों को सुख देने के लिए ही डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्य बने थे? वैसे, साहित्य में 'ब्राह्मणों को सुख पहुंचाना' क्या और कैसे होता है, इस बात का उन्हें खुलासा करके जाना चाहिए था। फिर, इस मामले में बेचारे सामंत के मुंशी को बे-मतलब फुटबॉल बनाया गया है। यूं मुद्दे को नहीं रल्णाया जा सकता।
उधर, पिछड़ों के लेखक वीरेंद्र यादव अपनी दिनांक 20 जुलाई, 2021 की फेसबुक पोस्ट में एक पार्टी के कथित 'ब्राह्मण सम्मेलन' के संदर्भ में लिखते हैं, 'डा. धर्मवीर अशोक वाजपेयी को महान कवि घोषित करते हुए उन पर पूरी एक किताब लिख सकते हैं।' अब इन से पूछा जा सकता है, कहां-किस किताब में डॉ. धर्मवीर ने अशोक वाजपेयी को महान कवि घोषित किया है? इन्हें संदर्भ सहित बताना चाहिए। यूं प्रक्षिप्त गढ़ कर लेखक नहीं बनने दिया जाना। वैसे, इस बात से ध्वनि तो यही निकलती है, जिसे भी और जो भी घोषित करना है वह आजीवक ही करेंगे। तो प्रक्षिप्तकारों को सावधान रहने की जरूरत है। यूं इन्हें किसी विद्वान से आलोचना का अर्थ भी पता करना चाहिए।
जहां तक अशोक वाजपेयी पर लिखी किताब की बात है तो डॉ. साहब लिखते हैं, 'अशोक वाजपेयी के काव्य को समझने के लिए दो हिस्से करने पड़ेंगे- एक अशोक वाजपेयी और दूसरे उनके संस्कार। हां, यह दो लेखक हैं। कई जगह ये दोनों एक हो जाते हैं और कई बार ये दोनों अलग-अलग बोलते हैं। कभी संस्कार उन पर हावी हो जाते हैं तो कभी वह संस्कारों की गिरफ्त से बच-निकल भागते हैं। इन कविताओं में ऐसा हुआ है कि संस्कारों को पीछे छोड़ कर वे खुद भी बोलने लग जाते हैं। असल में, ये कविताएं दो व्यक्तियों ने लिखी हैं - एक अशोक वाजपेयी ने और दूसरे उनके संस्कारों ने। इन्हें अशोक और वाजपेयी कहा जाए तो ज्यादा ठीक रहेगा।'(१) यह है महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर की अशोक वाजपेयी पर लिखी आलोचना की किताब 'अशोक बनाम वाजपेयी : अशोक वाजपेयी' का मर्म। इसे वीरेंद्र यादव महोदय अशोक वाजपेयी को महान घोषित करना बता रहे हैं! कैसी बुद्धि पाई है इन्होंने?
असल में, इन का दुख यह नहीं है कि अशोक वाजपेयी पर डॉ. साहब ने किताब क्यों लिखी। इन्हें मलाल है कि डॉ. साहब ने इन पर किताब क्यों नहीं लिखी। अरे भाई! पहले कुछ काम कीजिए तब आप के ऊपर भी किताब आ ही जाएगी। वैसे, डॉ. साहब ने किताब तो नामवर सिंह पर भी नहीं लिखी। हां, उन के गुरु डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी पर 'कबीर' पर चली बहस में अलग से किताब अवश्य आई है। अब इस बात का क्या किया जा सकता है? उधर, प्रोफेसर कालीचरण स्नेही इन्हें लखनऊ का नामवर बताते-बताते रिटायर हो गए! बताइए, डुप्लीकेट लोगों पर भी भला किताब लिखी जाती है? वैसे, स्नेही जी यहां भी गच्चा खा गए, जब इन्हें कुछ बनाना ही था तो कम से कम गुरु तो बनाते ही। अभी भी द्विवेदी का ही शिष्य बता कर इन्हें खुश कर दिया। इस बारे में डॉ. धर्मवीर ने एक बातचीत में बताया था- "बाबू जगजीवन राम ने कहा था, डॉ. अंबेडकर ने दलितों को कुछ बनाना ही था तो ब्राह्मण बनाते, क्षत्रिय बना कर एक पायदान नीचे क्यों छोड़ गए।" तो, स्नेही जी यादव जी को द्विवेदी बनाते तो कुछ बात बनती।
ऐसे ही, रामजी यादव ने वीरेंद्र यादव की पोस्ट पर अपने कमेंट में लिखा है, 'धर्मवीर जी के शिष्य जिस तरह गाली गलौज कर रहे हैं कम से कम वह विमर्श की भाषा नहीं है।' इस पर यही कहना है कि इन्हें अपनी बात के पक्ष में प्रमाण देना चाहिए। ये जान लें, प्रक्षिप्त गढ़ कर और झूठ बोल कर विमर्श में नहीं उतरा जाता। किसी पत्रिका का संपादक होने से भी झूठ बोलने का सर्टिफिकेट नहीं मिल जाता। बातचीत के क्रम में इन्होंने यह भी लिखा है- "अपने मेरे घर के पास से चमरौट की सीमा शुरू होती है और हमारे ऐसे हैं कि संस्कार चमार भी हमारे लिए उतने ही सम्माननीय हैं जितने दूसरे।" इन्होंने जो 'चमरौट' लिखा है, वह इन की मानसिकता को अच्छे से दर्शा रहा है। अब ये अपनी जाति भी बता दें, ताकि सामंत के मुंशी की लिखत से इन के लिए सुभाषित बता दिए जाएं।
वैसे, लगे हाथ बताया जा सकता है कि यादव कोई जातिगत पहचान नहीं है। बहुत सारे चमार और दलित भी खुद को यादव बताते हैं। यह केवल हीनता से जुड़ा मामला है। हीनता से ग्रस्त ये 'संस्कार' को भी परिभाषित कर दें, तभी इस पर आगे बात होगी। फिर इन्हें दलित चिंतन की सीमा' बताने की बजाय पिछड़े चिंतन का विस्तार करना चाहिए। ताकि पिछड़ों का कुछ भला हो सके। और, पता नहीं लोकतन्त्र की इन की क्या समझ है, उस पर भी कुछ लिख दें। ताकि उसे समझ कर इन से संवाद किया जा सके।
ऐसा नहीं है कि वीरेंद्र यादव ही प्रक्षिप्त गढ़ रहे हैं। पिछड़ों में प्रेम कुमार मणि से ले कर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह, डॉ. कमलेश वर्मा तक, ऐसों की लंबी लिस्ट है। इधर, दलितों में भी ऐसे प्रक्षिप्तकार पैदा हो गए हैं। कुछ तो बौद्ध धर्मांतरण की वजह से और कुछ निजी स्वार्थों के कारण। अब प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन को ही देख लीजिए। इन्होंने 'अमर उजाला' में दिनांक 04 जुलाई, 2021 को 'चार सप्ताह में चार कड़ियों का टूटना' शीर्षक से प्रकाशित अपने लेख में सूरजपाल चौहान जी के निधन की तारीख 20 जून, 2021 लिखी है। जबकि चौहान जी का देहांत 15 जून, 2021को हुआ था। ऐसा नहीं है कि यह गलती से हुआ है। यह सोच समझ कर होशो-हवास में किया गया अपराध है। इसे इतिहास को मिटाने की प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए। यूं देखें तो वीरेंद्र यादव और श्यौराज सिंह बेचैन एक ही सिक्के के दो पहलू साबित होते हैं, जो प्रक्षिप्त गढ़ने की फैक्टरी चला रहे हैं।
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संदर्भ-
१.अशोक बनाम वाजपेयी : अशोक वाजपेयी, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण :2004, पृष्ठ 14