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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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डॉ. अंबेडकर और 'अलेस'

कैलाश दहिया / बात कुछ यूं उठी, 'अंबेडकरवादी लेखक संघ' यानी अलेस के कर्ताधर्ता डॉ. सूरज बड़त्या ने अपने इस लेखक संघ के बैनर तले किए जाने वाले 'चतुर्थ दलित लिटरेचर फेस्टिवल' को लेकर व्हाट्सएप पर एक ग्रुप बनाया। इस '4th Dalit Lit Fest DU' नाम से बनाए ग्रुप में इन्होंने मुझे भी शामिल किया। इस ग्रुप में मैंने 'हिन्दुस्तान' ई पेपर का लिंक शेयर किया, जिस का शीर्षक था 'संघ की शाखा में गए थे आंबेडकर और महात्मा गांधी, RSS का बड़ा दावा।' मुझे उम्मीद थी कि इस ग्रुप और इस फेस्टिवल में इस पर चर्चा होगी। लेकिन, सूरज बड़त्या ने तो मुझे ग्रुप से ही रिमूव कर दिया। जिसे शायद किसी के कहने पर मुझे पुनः ग्रुप में जोड़ दिया गया। खैर, मैंने बड़त्या को व्यक्तिगत मैसेज भेज कर इस विषय पर फेस्टिवल में अलग से एक सेशन रखने का सुझाव दिया। इस के बाद तो इन्होंने कथित फेस्टिवल के नाम से बने ग्रुप में मेरे मैसेज भेजने पर ही प्रतिबंध लगा दिया। तो यह हाल है अंबेडकरवादी  दलितों का! दरअसल ऐसे लोग डॉ. अंबेडकर के नाम पर अपनी दुकानें चला रहे हैं। एक तरह से ये अंबेडकर को बेचने-खाने में लगे हुए हैं। ऐसे ही लोगों की वजह से दलित आंदोलन को अथाह नुकसान पहुंचा है। ऐसे ही लोगों ने 12 सितंबर, 2005 को डॉ. धर्मवीर पर जूते-चप्पल चलाए थे।

बताया जा सकता है, जिस कौम में अपने पुरखों के कार्यों का मूल्यांकन नहीं किया जाता वह पतन की ओर अग्रसर हो जाती है। 'अलेस' जैसे दलितों की वजह से दलितों की बुरी हालत के होने का रहस्य समझ में आ रहा है। क्या इन्हें इस बात पर विचार नहीं करना चाहिए कि बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर संघ की शाखा में गए थे या नहीं? अगर डॉ. अंबेडकर संघ की शाखा में गए भी थे तो क्या दलितों को उन के इस कार्य की आत्मालोचना नहीं करनी चाहिए। निश्चित ही अलेस को इस पर एक रिसर्च पेपर लाना चाहिए।

बात रिसर्च पेपर को लेकर उठी, बाद में सूरज बड़त्या ने अपनी फेसबुक आईडी पर 'अलेस' में निम्नलिखित विषयों पर लेख आमंत्रण की सूचना डाली :

 "-दलित साहित्य से विश्व शांति, सद्भाव और बंधुत्व की संभावनाएं

 -स्त्री-दलित-आदिवासी- अल्पसंख्यक और घुमंतू स्त्री का देश और समाज

 -दलित साहित्य : अतीत, वर्तमान और भविष्य

 -आदिवासी-घुमंतू साहित्य : सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत की चुनौतियां और संभावनाएं

 -भारतीयता के आईने में दलित, आदिवासी, स्त्री और अन्य हाशियाकृत समुदाय की साहित्यिक अभिव्यक्ति

 -अल्पसंख्यक समुदाय : दर्द और स्वप्न की साहित्यिक अभिव्यक्ति और संभावनाएं

 -दलित-आदिवासी समुदाय : उत्पीड़न, संघर्ष

 -हिजड़ा समुदाय(LGBT) : साहित्यिक-सामाजिक यथार्थ

 -भारतीय मीडिया और दलित-प्रश्न

 -दलित-आदिवासी विमर्श : दुनिया के हाशियाकृत समुदाय से संबंध

 -हिंदी सिनेमा और दलित प्रश्न

 -दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक और घुमंतु समुदाय केंद्रित भारतीय सिनेमा

 -भारतीय भाषाओं में दलित साहित्य की विरासत और संभावनाएं

 -सत्ता संस्कृति और अंबेडकरवादी वैचारिकी 

 -दलित अधिकार और कानून

 -हिंदी साहित्य में दलित चेतना

 -स्त्री-अधिकार और कानून

 -श्रमिक महिलाओं के अधिकार और कानून

 -दलित पत्रकारिता का सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक चिंतन

 -हिंदी में दलित थिएटर : इतिहास और वर्तमान

 -हिंदी नाटक और दलित प्रश्न

 -उत्तर आधुनिक युग और हाशिये का समाज

 -लोक गीतों में भारतीय दलित समाज

 -दलित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का इतिहास और वर्तमान

 -वैश्विक परिदृश्य में वंचित समुदाय की अभिव्यक्ति और प्रतिरोध।"

इन्होंने साफ-साफ लिखा कि उपर्युक्त विषयों से संबंद्ध विषय पर ही लेख भेजें। बताइए, दलित स्त्रियों पर बलात्कार रुक नहीं रहे, द्विज व्यवस्था में व्यवस्थित रूप से दलित स्त्री को जारकर्म में धकेला जा रहा है। विद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों में दलित छात्र-छात्राओं का मानसिक उत्पीड़न लगातार बढ़ रहा है। दलितों की हत्याओं से अखबार भरे पड़े रहते हैं। इधर, अलेस और इस के जैसे तथाकथित दलित लेखक संघ दलितों की गाढ़ी कमाई से हिजड़ा, नाटक, सिनेमा और फालतू के विमर्श कर रहे हैं। दरअसल इन्हें ना दलितों का अतीत पता-ना वर्तमान, भविष्य की बात करना तो कोरी लफ्फाजी है। दलितों की मेहनत की कमाई से हो रहा यह सम्मेलन व्यर्थ न जाए इसलिए इन्हें कुछ विषय सुझाए जा रहे हैं, जिन पर ये अपने सेमिनार में चर्चा कर सकते हैं :

 -डॉ. अंबेडकर के संघ की शाखा में जाने का सच

 -अंबेडकरवाद क्या है?

 -मक्खलि गोसाल और उन का आजीवक धर्म

 -सदगुरु रैदास की 'ऐसा चाहूं राज मैं' की अवधारणा

 -कबीर साहेब के काशी छोड़ने के निहितार्थ

 -प्रेम विवाह से दलितों को क्या हासिल होता है?

 -बुधिया और भंवरी देवी का हत्यारा कौन?

 -डॉ. धर्मवीर पर जूते-चप्पल चलाने के पीछे का रहस्य

 -स्त्री को किस-किस से भरण पोषण मिलना चाहिए?

 -दलित राजनीति और उस का सच

 -धर्मांतरण से दलित को क्या हासिल हुआ?

 -रोहित वेमुला के हत्यारे कौन? 

 -शिक्षण संस्थानों का निजीकरण और दलित

 -बुद्ध ने घर क्यों छोड़ा?

 -सूरजपाल चौहान के दिवंगत डॉ. धर्मवीर को लिखे पत्र

 -दलितों में मुनाफिक

 -दलित और द्विज साहित्य में अंतर

 -स्वामी अछूतानंद 'हरिहर' का आदिहिंदू आंदोलन

 -आरक्षण में वर्गीकरण का सच

 -जारकर्म और उस के परिणाम

देखा जाए तो अलेस और संघ में कोई फर्क नहीं है। बस, अलेस को अपनी ताकत और क्षमता का पता नहीं है, अन्यथा यह इस विषय पर संवाद से भागता नहीं। हां, एक फर्क अवश्य है, संघ पूरी तरह से ब्राह्मणों का धार्मिक-सांस्कृतिक संगठन है जबकि अलेस में दलितों के साथ-साथ और भी कूड़ा-कचरा भरा हुआ है। एक दलित लेखक संघ का तो यह हाल है कि बिना ब.ब.ति. के उस के कार्यक्रम ही नहीं होते। यही वजह है कि अलेस या दलितों का कोई भी संगठन असमय ही मौत का शिकार हो जाता है। क्योंकि, दलितों के सिवाय दूसरी जातियों और वर्णों के लोग किसी भी रूप में दलित को स्वतंत्र देखना नहीं चाहते।

असल में, दलितों को किसी भी सवाल से बचना नहीं चाहिए बल्कि हर तरह के सवालों से जूझना चाहिए। अन्यथा इस तरह के आयोजन का कोई अर्थ नहीं है।

कैलाश दहिया 

( लिटरेचर फेस्टिवल का पोस्टर फोटो फेसबुक से साभार  )

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सम्पादक

डॉ. लीना