ओम थानवी। पिछले साल मैंने एक टिप्पणी लिखी थी कि जब टीका शब्द हिंदी में है, हिंदी मीडिया ने वैक्सीन प्रयोग क्यों ओढ़ लिया है? बहरहाल, अच्छा लगा कि कुछ अख़बार-टीवी टीका-टीकाकरण भी लिखने लगे।
इन दिनों हिंदी मीडिया में टीकों की शीशी के लिए वॉयल या वायल (सही शब्द वायल है) लिखा जा रहा है।
भला शीशी को शीशी कहने में क्या हर्ज है?
पत्रकारिता में भाषा, उसकी शब्दावली ऐसी होनी चाहिए जिसे विद्वान भी समझ सकें और सड़क किनारे रोज़गार करने वाला शख्स भी।
हमारा किसी भाषा से बैर नहीं, न 'बाहरी' शब्दों से परहेज़ है। यह एक-दो शब्दों का मामला भी नहीं। हिंदी में — 'हिंदी' समेत — ढेर शब्द दूसरी भाषाओं से आए हैं। मगर अनजान शब्दों का प्रयोग अनजाने नहीं होना चाहिए। अपने (अपनी नहीं) सामर्थ्य को ताक पर रखकर तो हरगिज़ नहीं — वह भी संप्रेषण की क़ीमत पर।
सहज संप्रेषण पत्रकारिता की पहली शर्त है। जो कहा जाय, वह कमोबेश हर पाठक-दर्शक-श्रोता तक पहुँचना चाहिए। बग़ैर गाँठ के।