डॉ. भूरे लाल/ अब से कुछ दिन पहले कैलाश दहिया का एक लेख "आपहुदरी और इसके अय्यार : इतिहास के हवाले" शीर्षक से कोलकाता से प्रकाशित "सदीनामा" पत्रिका के मई 2019 में छपा था। इस लेख में "आपहुदरी" यानि रमणिका गुप्ता की "जार क्रांति" से गहरी सहानुभूति रखने वाले कुछ दलित-पिछड़े विचारकों, पत्रकारों और लेखकों के कारनामों को उजागर किया गया है। उक्त लेख की प्रतिक्रिया में सुरेश कुमार का एक लेख "दलित स्त्री विरोधी बोल", कोलकाता से ही प्रकाशित "लहक" पत्रिका के जनवरी-मार्च, 2020 के अंक में आया है। सुरेश कुमार के इस लेख का आना बहुत अच्छी बात है। इस का आजीवक आंदोलन के इतिहास में ऐतिहासिक महत्व है। इस लेख का खुद सुरेश कुमार के लिए भी बड़ा महत्व है, क्योंकि इस में सुरेश कुमार खुद ने अब तक खुद को सब से ज्यादा उजागर किए हैं और उन के चिंतन व सोच की दिशा स्पष्ट हो गई है।
रमणिका गुप्ता के ऊपर डा. धर्मवीर ने प्रभा खेतान और मैत्रेयी पुष्पा के साथ एक पुस्तक "तीन द्विज हिन्दू स्त्रीलिंगों का चिंतन" शीर्षक से लिखी है। इस के पहले रमणिका गुप्ता और विमल थोराट के नेतृत्व में कुछ दलित लेखिकाएं 5 सितंबर, 2005 को डा. धर्मवीर की पुस्तक "प्रेमचंद:सामन्त का मुंशी" के उद्घाटन के अवसर पर डा. धर्मवीर पर जूते-चप्पल चला चुकी थीं। रमणिका गुप्ता ने अपने लेखन में लगातार "जारकर्म" का समर्थन किया है। यह द्विज जार सँस्कृति की परम्परा में है। इस में दलित को भला कोई आपत्ति क्यों होगी..? आपत्ति तब होती है, जब द्विज जार सँस्कृति के चिंतन के साथ ये द्विज स्त्रियाँ दलित के जारकर्म विरोधी और सदाचार समर्थक चिंतन पर हमला बोलती हैं। रमणिका गुप्ता ने खुद डा. धर्मवीर के ख़िलाफ़ "स्त्री नैतिकता का तालिबानीकरण" शीर्षक से अपनी पत्रिका का विशेषांक निकाल चुकी है। दलित आंदोलन अपनी स्वतंत्रता का रास्ता खुद अपने भीतर ढूंढने और उस के लिए जद्दोजहद करने की मुहिम में है, ऐसे में वह द्विजों से टकराहट की स्थिति ही होगी, जब द्विज उस में अनावश्यक हस्तक्षेप करेंगे। रमणिका गुप्ता के अलावे बजरंग बिहारी तिवारी नाम के दूसरे द्विज लेखक हैं, जो कुछ दलित आधुनिकताओं को आगे कर के दलित आंदोलन पर हमले कर रहे हैं। दलितों के आपसी मुद्दों पर द्विज पहले भी हस्तक्षेप कर रहे थे और आज भी कर रहे हैं। पहले भी कुछ मानसिक गुलाम दलितों को हथकंडा बना कर यह सब कर रहे थे और आज भी कर रहे हैं। पहले और अब में फर्क़ यह है कि अब दलित इस हस्तक्षेप को बर्दाश्त करने से सख्ती के साथ मना कर रहा है और एतराज कर रहा है।
रमणिका गुप्ता ने कुछ दलित स्त्रियों के ज़रिए दलित आंदोलन में सेंध लगाने की लगातार मुहिम चलाई है।इस पर विस्तार से लिखने की ज़रूरत है, क्योंकि इस का दलित चिंतन के इतिहास को समझने की दृष्टि से बड़ा महत्व है। इसलिए सुरेश कुमार के अनुसार यह मामला रमणिका गुप्ता के मरने पर केवल श्रद्धांजलि व्यक्त कर ने तक सीमित नहीं है बल्कि दलित आंदोलन के ख़िलाफ़ द्विजों द्वारा चलाई जा रही मुहिम में शामिल होने का भी है। वरना डा. धर्मवीर के मरने पर कितने द्विज और उन की सोहबत के लेखकों ने श्रद्धाञ्जलि व्यक्त किए थे, यह बात किसी से छुपी नहीं है। रजतरानी मीनू, हेमलता महिश्वर, रमेश भंगी, विमल थोराट, संजीव खुदशाह, सूरज बड़त्या, अनिता भारती, रजनी अनुरागी, अशोक दास आदि द्वारा रमणिका गुप्ता के मर ने पर व्यक्त की गई श्रद्धाञ्जलि केवल श्रद्धांजलि नहीं है,एक पक्ष है, एक खास विचारधारा की पक्षधरता और प्रतिबद्धता है ,वैसे ही जैसे डा. धर्मवीर के निधन पर इन जैसों की चुप्पी एक उपेक्षा मात्र नहीं, एक पक्ष है। इन दोनों पक्षों को एक साथ रख कर देखने से प्रतिबद्धता और स्पष्ट हो जाती है। रमणिका गुप्ता की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता। और रमणिका गुप्ता की विचारधारा क्या है, कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है। इसी तरह 5 सितम्बर, 2005 को घटित कराई गई घटना केवल अपमान नहीं बल्कि एक पक्ष है। केवल डा. धर्मवीर के पक्ष की ख़िलाफ़त नहीं बल्कि दलितों की सद्गुरु कबीर, महात्मा फूले, बाबा साहेब अंबेडकर और डा. धर्मवीर की जारकर्म विरोधी मुहिम के ख़िलाफ़ द्विज जार सँस्कृति के समर्थन में अपना एक पक्ष है। सदाचार की दलित परम्परा और जारकर्म की द्विज परम्परा के बीच एक चुनाव है। हमारे महापुरुषों ने द्विज जार सँस्कृति की धज्जियाँ उड़ाई हैं। क्या यह बात फूले-अम्बेडकरवादी दलित स्त्री -पुरुषों को नहीं मालूम है..? दलित स्त्री की गरिमा की रक्षा इसी द्विज जार सँस्कृति से मुक्त कर के होनी है। उपर्युक्त नामों वाले और खुद सुरेश कुमार द्विज जार सँस्कृति की परंपरा में स्त्री की गरिमा खोजने-पाने के पक्षधर हैं।
सुरेश कुमार की आपत्ति यह है कि कैलाश दहिया अपने उक्त लेख में जातिसूचक शब्दों का प्रयोग किए हैं। जातियाँ सामाजिक सन्दर्भ हैं, और हम सामाजिक सन्दर्भों में ही इन का इस्तेमाल करते हैं, द्विजों की तरह गालियों के रूप में नहीं। हमारे विमर्श में अगर जातियाँ सामाजिक सन्दर्भ के रूप में आ रही हैं,तो इस में क्या बुराई है..? कैलाश दहिया ने अपने लेख में सभी किरदारों की जातियों का उल्लेख कर के यही बताना चाह रहे हैं कि आजीवक समाज के लेखक और बुद्धिजीवी किस तरह अपनी सदाचार की परंपरा त्याग कर द्विज जार परम्परा में पक्ष में खड़े नजर आते हैं। इसलिए यहाँ जातिसूचक सन्दर्भ द्विजों की तरह भेदभावमूलक नहीं बल्कि सामाजिक-ऐतिहासिक सन्दर्भमूल्क है।
दलितों के किसी महापुरुष ने कभी कोई स्त्री विरोधी संहिता रचने का कार्य नहीं किया है। इस के उलट द्विज परम्परा ने लगातार स्त्री विरोधी और दलित विरोधी संहिताएँ रची हैं। आचार्य वात्स्यायन का "कामसूत्र"और मनु की "मनुस्मृति" इस के प्रमाण सामने हैं। दलितों के महापुरुषों-सद्गुरु कबीर,महात्मा फूले, डॉ आंबेडकर और डा. धर्मवीर ने द्विज जार संहिता के ख़िलाफ़ आजीवक सदाचार संहिता रचने का कार्य किया है। डा. धर्मवीर ने खुद दलित स्त्री की मुक्ति में समूची दलित कौम की मुक्ति देखी है। दरअसल,यथार्थ की भाषा न द्विजों को सहन होती है और न उन के सहधर्मी-पिछलग्गू दलित -पिछड़े लेखकों को। द्विजों को न सहन हो यह तो स्वाभाविक है, लेकिन दलित-पिछड़े लेखकों और बुद्धिजीवियों को सहन न हो, समझ से परे है। दलित यानि आजीवक समाज सदियों से द्विज संहिताओं से संक्रमित और संचालित होता आया है, इसलिए द्विज जार सँस्कृति के पक्ष में खड़े होना समझ में आता है। इसे ही मानसिक गुलामी , मानसिक पिछड़ेपन और इन से आगे मुनाफिकी के रूप में पहचान की गई है। आजीवक चिंतन के आने से सिर्फ़ बाहरी ही उजागर नहीं हो रहे हैं बल्कि बाहर से जुड़े भीतर के लोगों के चेहरे भी उघड़ रहे हैं। इसलिए यह कोहराम और हाहाकार सुनाई पड़ रही है।
डा. राजतरानी मीनू में शुरुआत में रचनात्मक सम्भावना दिखी थी, लेकिन उन्होंने खुद ही अपने चिंतन व लेखन को "जारिणी चिंतन" की दुरभिसंधि में फँसा ली हैं। जारिणी चिंतन में दलित स्त्री की मुक्ति व अस्मिता खोजना एक रुग्ण चिंतन है। इसे योग्यता की कमतरी ही नहीं बल्कि अयोग्यता की चरम सीमा कही जाएगी। मनुवाद सदाचार के लेखन के ख़िलाफ़ इस तरह की कमतरी का बखूबी महिमा मंडन करता है।
आजीवक चिंतन दलितों को भीतरी और बाहरी, हर जगह चिंतन की किसी भी तरह की "क़ैद" से मुक्त कर रहा है। डा. धर्मवीर ने खुद आह्वान किया है कि दलित चिंतन को स्वतन्त्र चिंतन के विकास के क्रम में "ब्राह्मण सन्दर्भों" से क्रमशः मुक्त होते चलना है। दलित स्त्री के नज़रिए से "द्विज जार सँस्कृति" खुद में एक बड़ा सन्दर्भ है, जिस से मुक्त हुए बगैर दलित चिंतन की मुक्ति संभव नहीं दिखती है। लेकिन यह मार्ग आसान नहीं है, खास कर तब जब दलित समाज को सदाचार का पक्षधर और जार सँस्कृति का समर्थक गुट में विभाजित कर ने की साजिशें रची जा रही हों। अब जारकर्म विरोधी और जारकर्म समर्थक लेखन के सौंदर्यशास्त्र और मूल्यांकन की कसौटियाँ भले ही अलग अलग तय की जाएं, लेकिन उन के मूल्यांकन की दलित कसौटी एक ही होगी और वह सदाचार की ही होगी। आजीवक चिंतन ने भीतर और बाहर हर जगह विद्यमान चेहरों पर धूल को हटाने का काम कर रहा है, जिस से भीतर और बाहर के चेहरों और उन की संगत-विसंगत को साफ़ साफ़ पढ़ा जा सके। आजीवक चिंतन सब चिह्नित करता चल रहा है,इसलिए घमासान मची हुई है।
सुरेश कुमार के उक्त लेख में कोई दलित चिंतन ढूँढने से भी नहीं मिलेगा सिवाय "जार चिंतन" और उस की अवधारणाओं के रेशमी शब्द जालों के। वह जार चिंतन की क़ैद में हैं। वह और उन के परम्परा के लोग एक सीध में आ गए हैं। उन की स्पष्ट पहचान हो गई है कि वह किधर हैं। कैलाश दहिया की जार सँस्कृति विरोधी मुहिम के विरोध करने पर सुरेश कुमार कुछ कम खुल पाए थे, अब उक्त लेख से उन्होंने अपने को उघाड़ कर रख दिया है। आजीवक चिंतन से अभी और महारथी उजागर होंगे। अब दलित लेखन के भीतर दलितों की मूल ऐतिहासिक परम्परा का चिंतन चलेगा,इस तरह "अभिशप्त चिंतन" की विदाई लगभग तय है।