अमेरिकी- भारतीय मीडिया और प्रधानमंत्री की अमेरिकी यात्रा
मनोज अभिज्ञान/ अमेरिका के प्रतिष्ठित समाचार पत्र 'वॉल स्ट्रीट जर्नल' में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिकी यात्रा को सिर्फ एक तस्वीर और संक्षिप्त कैप्शन तक सीमित कर दिया गया, जबकि भारतीय मीडिया में यही यात्रा "दुनिया हिला देने वाली घटना" के रूप में प्रस्तुत की गई है। यह विरोधाभास कोई संयोग नहीं है, बल्कि यह भारतीय मीडिया के आत्ममुग्ध और आत्म-भ्रमित होने का प्रमाण है।
अमेरिकी मीडिया के लिए यह यात्रा सामान्य राजनयिक घटनाओं में से एक थी। वॉल स्ट्रीट जर्नल ने इसे चौथे पृष्ठ पर जगह दी, और उसमें भी केवल एक फोटो के साथ दो पंक्तियाँ लिखीं—ट्रंप ने मोदी को 'मित्र' कहा लेकिन भारतीय वस्तुओं पर अधिक टैरिफ लगाने की चेतावनी भी दी। दूसरी ओर, भारतीय मीडिया ने इसे ऐसे प्रस्तुत किया मानो अमेरिका मोदी के आगे नतमस्तक हो गया हो, मानो वाशिंगटन से लेकर न्यूयॉर्क तक हर सड़क पर मोदी-मोदी के नारे गूंज रहे हों, मानो संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मोदी के सम्मान में विशेष सत्र बुला लिया हो।
यह अंधराष्ट्रवाद और अंधभक्ति की पराकाष्ठा है। भारतीय मीडिया का एक बड़ा वर्ग पत्रकारिता नहीं, बल्कि भक्ति रस का वितरण कर रहा है। यह वही मीडिया है जो प्रधानमंत्री के विदेश दौरे को वीर रस के महाकाव्य की तरह प्रस्तुत करता है, मानो कोई विजयी सम्राट लौट रहा हो। यही मीडिया जब बुनियादी समस्याओं की बात आती है—महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्या, स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली—तब मूक बना रहता है।
आखिर क्या कारण है कि विदेशी मीडिया मोदी की यात्राओं को इतनी प्रमुखता नहीं देता? इसका उत्तर स्पष्ट है—विदेशों में मीडिया की प्राथमिकता खबरें होती हैं, व्यक्ति नहीं। वहां की पत्रकारिता सत्ता के सामने नतमस्तक नहीं होती, बल्कि सत्ता से प्रश्न करती है। वहीं, भारत में पत्रकारिता किसी मिशन का हिस्सा नहीं है, बल्कि यह दरबारी संस्कृति में बदल चुकी है, जहां सत्ता की प्रशंसा करना ही एकमात्र धर्म बन गया है।
एक समय था जब पत्रकार सत्ता के लिए चुनौती होते थे। आज पत्रकार सत्ता के दरबारी बन चुके हैं। वॉल स्ट्रीट जर्नल ने मोदी की यात्रा को एक सामान्य राजनयिक घटना की तरह लिया, क्योंकि उनके लिए यह प्रचार नहीं, बल्कि खबर है। भारतीय मीडिया ने इसे ऐतिहासिक क्षण बना दिया, क्योंकि उनके लिए खबर नहीं, बल्कि प्रचार महत्वपूर्ण है।