विनीत कुमार। एंकरिंग करते हुए दीपक चौरसिया का “बेउडा वीडियो” सामने आने के बाद लोग मुझे लिख रहे हैं कि आपको भले ही आश्चर्य हो रहा होगा, पूरी इन्डस्ट्री को पता है कि वो क्या करते हैं ?
सही बात है, मुझे मीडिया इन्डस्ट्री के अंदरख़ाने की बात कहां मालूम होगी ? मेरा तो पूरा बचपन जार्जिया के छोटे से गांव में बीता, स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई बर्लिन में हुई, भारतीय मीडिया के प्रति समझ बनाने के लिए इन्टर्नशिप करने भारत आया तो मेरे चैनल का ऑफिस भी नोएडा फिल्म सिटी में न होकर वीडियोकॉन टावर में रहा. मैं कैसे वो सब जान सकता हूं जो आप जानते हो.
लेकिन मैं अब मैं आपसे एक सवाल पूछूं ? आपको जब इतना सब पता है तो ये बात किसी शक़्ल में सार्वजनिक तौर पर आयी तो नहीं ? तब आपके भीतर इस बात की समझदारी रही कि पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ में फर्क़ होता है. अब देखिए कि यहां पर्सनल, प्रोफेशनल लाइफ पर ऐसा हावी हुआ जा रहा है कि दोनों के बीच कुछ अंतर बचा ही नहीं.
इसका मतलब तो यही है न कि हम अपनी-अपनी जगहों पर गर्दन झुकाकर काम करते रहते हैं. ऐसा करते हुए हम वो कलाबाजी सीख लेते हैं कि पूरी दुनिया की ग़लतियों पर नज़र रखते हुए बॉस की हरकतें ग़लत भी हो तो नज़रअंदाज़ करने की क्षमता विकसित हो जाय. बॉस के नाम पर हम वो सब झेलते और बर्दाश्त करते हैं जिसके ख़िलाफ सार्वजनिक मंचों पर कीबोर्ड और माइक ताने रखते हैं. मैं अपनी आंखों के सामने देखता हूं कि कारोबारी मीडिया, कॉर्पोरेट की कारगुजारियों पर लिखते-लिखते लोग एकदम से चुप मार जाते हैं. भीतर एक भय समा जाता है कि नए संस्थान के बॉस नाराज न हो जाएं. ये अलग बात है कि इस नए बॉस ने उनके तेवर को देखकर की काम पर लिया है जिससे कि संस्थान की सजावट बरक़रार रहे.
आज दीपक चौरसिया ने जो किया है, वो महज सत्ता के साथ स्नेहक-संबंध( ल्युब्रिकेंट फ्रेंडशिप) के कारण नहीं है बल्कि इस बात के इत्मिनान से पैदा हुई बेशर्मी है कि हम हर उस आवाज़ के बॉस हो सकते हैं जो हमारे ख़िलाफ उठ सकती है. मीडिया जितना बोलता हुआ दिखाई देता है, उस बड़बोलेपन में इन्डस्ट्री के भीतर का एक ख़तरनाक सन्नाटा और चुप्पी बरक़रार है. जिस दिन वो आपके सामने आएगा, आपको लगेगा- कारोबारी मीडिया के भीतर सुधार ज़रूरी कामों में से एक है.