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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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मीडिया का दोहरा नजरिया

अरविंद शेष। बांसुरी और ढोल बजा कर "लोगों" का दिल जीतने वाले हमारे प्रधानमंत्री जी ने तो सचमुच "सबका" मन मोह लिया होगा! लेकिन जो मीडिया और लोग प्रधानमंत्री जी के बिल्कुल बेफिक्र और अनौपचारिक होकर बांसुरी और ढोल बजाने को उनके "महान" होने के बतौर पेश कर रहा है, उसी ने इस देश के कुछ दूसरे नेताओं के इसी तरह की गतिविधियों को क्या इसी लोकेशन से देखा? याद करिए, जब बिहार में लालू प्रसाद बतौर मुख्यमंत्री किसी होली समारोह में खुद साधारण लोगों के साथ मिल कर होली खेलने लगते थे (उसे कुर्ताफाड़ होली का नाम दिया गया था), हेलीकॉप्टर से जाते हुए किसी खेत में उतर कर कुछ घास काटने वाली महिलाओं से बतिया कर फिर अपने सफर पर आगे बढ़ जाते थे, मलिन कही जाने वाली बस्तियों में खुद घुस जाते थे और किसी से भी पानी लेकर पीने लगते थे, दलित बच्चों को खुद से साबुन लगा कर नहलाने लगते थे... या इसी तरह की दूसरी "हरकतें" करते थे, तो उस दौर में मीडिया और समाज के वाचाल सत्ताधारी तबके ने उन्हें किन जुमलों से नवाजा था...!!! लालू प्रसाद को इन्हीं "हरकतों" के लिए "विदूषक", "मसखरा", "जोकर" कहा गया था, जिस छवि से लालू प्रसाद का आज भी पीछा नहीं छूटा है। जबकि लालू अपने किसी कलंकित अतीत पर परदा डालने की कोशिश नहीं कर रहे थे, अपने शुरुआती शासन-काल में जमीन पर दिख रहे थे।

सवाल है कि वह कौन-सी कुंठा है जो "सबको" इस देश के लोकतंत्र में एक ही तरह की गतिविधियों में शामिल अलग-अलग दो नेताओं के लिए दोहरा नजरिया और पाखंड की परतों से लैस करता है? यहां वह "सब" कौन है? नब्बे लोगों के माथे पर बैठे वे दस वाचाल लोग "सब" कैसे हो जाते हैं? यह "सब" आखिर किस आधार पर यह स्थापित करता है कि एक ही "हरकत" करता हुआ एक नेता जमीनी स्तर पर लोगों से जुड़ने की कोशिश कर रहा है और इसी तरह की "हरकत" करता हुआ दूसरा नेता "विदूषक", "मसखरा", "जोकर" है? क्या सिर्फ इसलिए कि इस "सब" की नजर में एक नेता बतौर उनके "घोड़ा" बन कर दौड़ता है और दूसरा उस "घोड़े" की लगाम कसना चाहता है?

(वैसे ढोल और बांसुरी पर रीझने वालों ने अगर फिल्में देखी हों तो उन्हें अपना माथा लगाना चाहिए कि राजकपूर जब "लागा चुनरी में दाग..." जैसा क्लासिकल गीत परदे पर गा रहे थे, तब राजकपूर नहीं गा रहे थे, मन्ना डे गा रहे थे। और आज के तकनीकी जमाने में ढोल पर डंडा चलाना या बांसुरी में लय की फूंक मारते दिखना और बांसुरी या ढोल बजाना, दोनों दो बातें हैं...! बांसुरी या ढोल की आवाज वही सुनाई देगी जो मंच चाहेगा!)

Arvind Shesh

 

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सम्पादक

डॉ. लीना