साकिब खान/ हिंदी पत्रकारिता दिवस पर बधाई नहीं अपनी संवेदना जतायें। दोस्तों हिंदी की पत्रकारिता अपने सबसे मुश्किल दिनों में है।
इस पर सबसे बड़ा संकट अपनी विश्वसनीयता का है। जिस तरह से न्यूज चैनल और वेब पोर्टल हर दिन सारी नैतिकताओं और सिद्धांतों की धज्जियां उड़ा रहे हैं वह हिंदी पत्रकारिता के लिए शर्मनाक है।
दूसरी तरफ अखबार आर्थिक संकट से जूंझ रहे हैं। कोरोना काल में देश भर में पत्रकारों की नौकरियां जा रही हैं। इन पत्रकारों को कोरोना वारियर्स कहा गया था। लेकिन आज जब इनकी नौकरियां जा रही है तो सब ओर चुप्पी है। कई अखबार बंद हो चुके हैं और कई बंदी के कगार पर हैं। सरकार की ओर से इन्हें बचाने की कोई पहल अब तक नहीं हुई है।
हिंदी पत्रकारिता की दुर्दशा का दो प्रमुख कारण मुझे लगते हैं।
पहला मीडिया मालिकों का लालच जो करोड़ों-अरबो रुपये का मुनाफा बटोरते हैं लेकिन पत्रकारों पर खर्च करने में हमेशा कंजूसी बरतते हैं। इसके कारण अच्छी प्रतिभाएं इससे दूर हो जाती हैं।
दूसरा कारण हिंदी क्षेत्र के पाठक या दर्शक हैं।
ये टीवी पर समाचार देखना चाहते हैं, अखबार भी रोज पढ़ना चाहते हैं लेकिन रुपये खर्च नहीं करना चाहते। 30 रुपये की लागत वाला अखबार इन्हें 4 में मिलता हैं तो भी इन्हें महंगा लगता है। 4 रुपये में अखबार ये खरीदें इसके लिए भी अखबारों की ओर से इन्हें उपहार देना पड़ता है। अगर अखबारों की ओर से ये न दिया जाये तो आधे से ज्यादा खरीदना बंद कर देंगे। 100 रुपये के उपहार के लिए भी हिंदी के पाठकों को 80 रुपये का तेल जलाकर अखबार के दफ्तरों के आगे लाइन लगाते देखा है। ऐसा करने वालों में कार से आने वाले भी रहते हैं।
ऐसे पाठकों के कारण ही अखबार, टीवी या मीडिया बाजार और सरकार के हाथों का खिलौना बन जाता है। इनसे मिलने इनके इशारे पर हर रोज पत्रकारिता के सारे एथिक्स या नैतिकताओं को तोड़ते हैं। जनता के हितों की अनदेखी होने लगती है। और पत्रकारिता घुट-घुट कर मरने लगती है।
लेकिन हिंदी वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता। इन्हें अंदाजा भी नहीं है कि इसका क्या नुकसान उन्हें उठाना पड़ रहा है।
बहरहाल हिंदी पत्रकारिता दिवस पर इसके लिए संवेदना जतायें और हो सके तो दो बूंद आंसू भी।