दिनेश चौधरी। कप्पू मस्तमौला पत्रकार थे। अखबार के मुख्य उप सम्पादक। मालिक-सम्पादक को भी नहीं भजते थे। एक बार मालिक ने दो मिनट देर से आने पर कुछ कहा था तो अगले दिन से अपने भूदानी झोले में टेबल-घड़ी लाकर सामने रखने लगे, इस नारे के साथ कि 'टाइम से आना और टाइम से जाना।'
कोई पूछता कि आप क्या करते हैं, तो बड़ी मासूमियत से कहते कि, 'जी, हम तो रद्दी बेचने का कारोबार करते हैं।' उन दिनों में जब पॉलीथिन का हमला नहीं हुआ था, अखबारी रद्दी भी ठीक-ठाक बिका करती थी। मुझे लगता कि वे पत्रकारिता के 'पवित्र' पेशे को बदनाम कर रहे हैं।
आगे चलकर कुछ दिनों तक गाजियाबाद में यूनियन ऑफिस में रहना हुआ। उन दिनों 'टाइम्स ऑफ़ इंडिया' ने दिल्ली में नई-नई एंट्री ली थी और 'हिन्दुतान टाइम्स' से मुकाबले के फेर में दोनों के दाम घटकर 1 रुपये हो गए थे। अख़बार बहुत भारी थे। एक दिन हॉकर ने कहा, 'ग्राहक बनाए रखने का चक्कर है। वरना बाँटने के बदले रद्दी के भाव बेच दूँ, तब भी इतने ही पैसे मिल जाएँगे।' हॉकर की बात सुनकर मुझे बरबस कप्पू जी की याद आ गई।
और रद्दी पेपर की बात इसलिए याद आ रही है कि पनामा पेपर भी रद्दी के ही भाव बिके थे। पैराडाइस का भी यही हश्र होगा। पत्रकारिता जैसे-जैसे रद्दी होती जाएगी, लोकतन्त्र का कबाड़खाना और बड़ा होता जाएगा।