राकेश प्रवीर। क्या हमारी पत्रकारिता वाकई दिशाहीन हो गयी है? क्या मीडिया के वजूद पर उठ रहे सवाल वाजिब है? इस तरह के अनेक ऐसे सवाल हैं जो हमें सोचने के लिए मजबूर करते हैं। एक बार फिर देश में ‘होप एंड हैप्पीनेस’ की जुगाली शुरू हो गयी है। एक ओर जहां जन सामान्य की समस्याएं विकराल हाती जा रही है वहीं गैरजनपक्षीय मुद्दों को उछालने व उसके इर्द-गिर्द भड़काऊ भावनात्मक तानाबाना बुनने का खेल जारी है। मगर हम जमीनी तल्ख हकीकत और जलते सवालों से अपने को बचाने की जुगत में लग गए हैं।
जिस देश की 26 करोड़ जनता महागरीब हो, वह देश हर मिनट 29 बच्चे पैदा करता है। जिस देश की 29 करोड़ आबादी पहले ही बेघरबार हो, हर घंटे 1768 बच्चे पैदा करके मग्न रहता है। जिस देश की 39 करोड़ जनता पहले ही अनपढ़ हो, वह देश प्रति दिन 42,434 बच्चे पैदा करके खुशियां मनाता है। या फिर जिस देश में 40 करोड़ लोग पहले से ही बेरोजगार हो, वह देश हर महीने 12,73,033 बच्चों को पैदा करता है। फिर भी जनसंख्या नियंत्रण पर चर्चा करने से हमें परहेज हैं।
किसानों की बदस्तूर जारी आत्महत्या व राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भूख से होने वाली मौतों के कारण देश का सिर शर्म से आज भी नीचे झूका हुआ है। देश की एक तिहाई आबादी के पास सिर छुपाने के लिए घर नहीं है। फुटपाथ और पार्क ही जिनका आशियाना है। 5 करोड़ से ज्यादा बच्चे लावारिश हालत में सड़कों और गलियों में घूमते रहते हैं। 18 करोड़ बच्चे बुनियादी शिक्षा से वंचित है। देश में प्रतिवर्ष 1.5 करोड़ लोगों की मौत संक्रामक बीमारियों से हो जाती है, ऐसे हालात में व्यक्ति पूजा और वितंडावाद की राजनीति को मीडिया में सनसनीखेज ढंग से प्रस्तुत करना वाकई मीडिया की दिशाहीनता और भटकाव को ही तो प्रदर्शित करता है।